आज दुनिया यह तो समझ गई है कि कोविड से उमड़ रही मानसिक चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें काफी साधन लगाने होंगे। वहीं दूसरी तरफ एक पुरानी महामारी है टीबी, जो कोविड की तरह हवा से फैलती है और जहां सालों से मानसिक स्वास्थ्य की आपदा आई हुई है लेकिन इस पर ना तो खास ध्यान दिया जा रहा है और ना ही इसके उपचार के लिए कुछ उपाय किए जा रहे हैं।
इस को अनदेखा करना बहुत आसान है। खास तौर पर तब, जब बिहार की स्वास्थ्य प्रणाली खुद ही सिर्फ टीबी के टेस्ट और दवाई पर ज़्यादा ध्यान देती है, उससे हो रहे साइड इफेक्ट और मरीज़ों के मानसिक स्वास्थ्य पर नहीं।
नज़रअंदाज़ करने से मानसिक स्वास्थ्य की चुनौती गायब नहीं होगी
हाल ही में, एर्नाकुलम, भारत में हुई एक स्टडी से पता चला है कि 1/6 टीबी के मरीज़ डिप्रेशन के शिकार हैं और एमडीआर टीबी (जो की टीबी का एक और गंभीर रूप है) के मामलों में डिप्रेशन ज़्यादा है।
टीबी सर्वाईवर्स के लिए यह कोई नई बात नहीं है, ये तो हमारे देश के स्वास्थ्य तंत्र की हकीकत है लेकिन एक टीबी मरीज़ को सिर्फ डिप्रेशन नहीं झेलना पड़ता, इससे अलावा उसे और भी मानसिक तकलीफें होती हैं।
टीबी सर्वाईवर होने के नाते हम दावे के साथ यह कह सकते हैं कि ‘टीबी सिर्फ इंसान के शारीरिक स्वास्थ्य पर ही नहीं वरन उसके मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा असर करती है। यह जानकर कि उन्हें टीबी है, अक्सर मरीज़ों को सदमा लगता है।
फिर आता है टीबी का इलाज, जो कम-से-कम 6 महीने से 2 साल तक चल सकता है। इस इलाज के कड़े साइड इफेक्ट होते हैं, जैसे रोज़ उलटी आना, देखने-सुनने की क्षमता खो देना, डिप्रेशन, घबराहट और जब तकलीफ हद्द से बढ़ जाए, तो मन में आत्महत्या के ख्याल आना। इतना लम्बा, कड़ा इलाज मरीज़ों को मानसिक रूप से बीमार कर देता है।’
टीबी से जुड़े भेदभाव का भी मरीज़ की मानसिक स्थिति पर बुरा असर होता है। इस भेदभाव के वजह से अक्सर टीबी मरीज़ों को अकेलापन और शर्म महसूस होती है, जिससे उनका आत्मसम्मान घटता है और निराशा, डिप्रेशन ,घबराहट बढ़ती है।
मरीज़ इतना थका-हारा महसूस करता है लेकिन कभी-कभी वह खुद भी नहीं समझ पाता है कि वह इतनी तकलीफ में क्यों है।
टीबी की बीमारी और इसके इलाज का लोगों की आर्थिक स्थिति और काम करने की क्षमता पर जो असर होता है उससे भी मरीज़ का मानसिक तनाव बढ़ता है। मरीज़ की ज़िन्दगी का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है, जिस पर टीबी का साया नहीं पड़ता है।
इस सब का असर होता है मरीज़ की इलाज पूरा करने की क्षमता पर। अगर समय रहते हुए इन मानसिक तकलीफों का हल ना निकाला जाए, तो मरीज़ इलाज अधूरा छोड़ सकते हैं। इससे ना सिर्फ मरीज़ की ज़िन्दगी पर असर पड़ेगा बल्कि मरीज़ के आस-पास के लोगों और समाज में भी टीबी फैल सकता है। इससे राज्य में टीबी का बोझ बढ़ेगा।
बिहार राज्य में टीबी भारी मात्रा में मौजूद है और यहां की स्वास्थ्य प्रणाली के हाथ पहले से ही तंग हैं। ऐसे में बिहार से टीबी और उससे जुड़ी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का बढ़ता बोझ संभल नहीं पाएगा, वो भी कोविड जैसी महामारी के दौरान तो यह असंभव काम है।
इस समस्या का क्या हल है?
पहले तो हमें टीबी को एक मेडिकल मॉडल के ज़रिये से देखना बंद करना होगा। समाज सिर्फ मरीज़ की देखभाल का पात्र नहीं है, उसकी देखभाल में बराबर का हिस्सेदार है।
मरीज़ की देखभाल उसकी ज़रूरत के हिसाब होनी चाहिए, सिर्फ टेस्ट रिपोर्ट और लक्षणों के आधार पर नहीं। बिहार में, जहां स्वास्थ्य साधनों और कर्मचारियों की कमी है, अगर हम वहां समाज को भी मरीज़ की देखभाल का हिस्सा बनाएं, तो हम कम साधनों में भी मरीज़ की बेहतर देखभाल कर सकते हैं।
हमें इस महत्वपूर्ण बात को ध्यान में रखते हुए, राज्य के टीबी प्रोग्राम में मरीज़ों के मानसिक स्वास्थ्य को भी शामिल करना बहुत ज़रूरी है। इसके अंतर्गत, टीबी के इलाज के दौरान हर टीबी मरीज़ की मासिक स्वास्थ्य स्क्रीनिंग होनी चाहिए।
अगर मरीज़ को साइकैट्रिस्ट (मनोवैज्ञानिक) की ज़रुरत पड़े, तो उसे वहां भेजना चाहिए। अगर एक्सपर्ट के पास भेजने की ज़रुरत नहीं है पर मानसिक तकलीफ जैसे उदासी या डर है, तो समाज द्वारा सपोर्ट ग्रुप के ज़रिये मरीज़ को राहत दे सकते हैं।
लेकिन वो राहत किस काम की, जो मरीज़ तक पहुंच ही नहीं पाए। इसलिए टीबी मरीज़ों के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवा को डिजिटल बनाना ज़रूरी है। ऐसा करने से लॉकडाउन जैसे माहौल में भी, जहां स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंचना मुश्किल है, मरीज़ों तक आसानी से मदद पहुंच पाएगी।
टीबी से जुड़ी मानसिक तकलीफों और इस मामले में मरीज़ की ज़रूरतों को बेहतर समझने के लिए बिहार राज्य भी एर्नाकुलम जैसी रिसर्च स्टडी कर सकता है, ताकि इस रिसर्च से आने वाली जानकारी के द्वारा बेहतरीन मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का संकल्प लिया जा सके।
ऐसे रिसर्चों से आ रही जानकारी सरल तरीके में समाज तक पहुंचे यह भी बहुत ज़रूरी है, तभी तो समाज में टीबी और मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ेगी।
राज्य सरकार को क्षेत्रीय भाषाओं में जन-जागरूकता अभियान चलाने चाहिए, जिसमें टीबी सर्वाईवर खुद टीबी से जुड़ी मानसिक तकलीफों और मरीज़ की ज़रूरतों पर रोशनी डालें। इन कहानियों से ना सिर्फ जन-जागरूकता बढ़ेगी वरन टीबी और मानसिक स्वास्थ्य के बारे में भी लोगों की गलत धारणाएं भी शायद बदल जाएं। अगर बिहार से टीबी को मिटाना है, तो हमें मिलकर टीबी से जुड़े मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का हल निकालना ही होगा।
नोट- यह लेख आशना अशेष एवं रीना देवी द्वारा लिखित है। आशना अशेष और रीना देवी दोनों ही बिहार की रहने वाली एमडीआर टीबी सर्वाईवर हैं। आशना अशेष एक पब्लिक हेल्थ प्रोफेशनल वकील और एसएटीबी फेलो हैं। रीना देवी एक गृहणी हैं।