पंजाब राज्य के भटिंडा से चलकर सुबह –सुबह एक ट्रेन बीकानेर पहुंचती है, जिसे लोगों ने कैंसर ट्रेन कहना शुरू कर दिया है। इसके पीछे की वजह इस ट्रेन में उन यात्रियों की संख्या है, जो कैंसर के मरीज़ हैं और पंजाब से बीकानेर कैंसर के सस्ते इलाज के लिए आते हैं।
क्यों जल प्रदूषण से बन रहे हैं रोग
पंजाब के किसानों में फैल रही इस कैंसर की बीमारी की प्रमुख वजह प्रदूषित जल बताया जाता है।
हालांकि, अब अन्य राज्यों में भी इस तरह के कैंसर मरीज बढ़ने लगे हैं। जल प्रदुषण की अनेक वजहों में से एक प्रमुख वजह रासायनिक खाद (उर्वरक) का अंधाधुंध प्रयोग भी है, जो फसलों में डालने के बाद पानी में घुलकर जल स्रोतों और साथ ही साथ भूमिगत जल को भी दूषित करता है।
रासायनिक खाद! किसानों की मजबूरी
हम किसान हैं और हम सोचते हैं कि कैसे साल भार मेहनत कर अपना पेट कैसे भरा जाए? इसलिए हमें फसल उगाने के लिए, जो भी संसाधन कम दाम में और आसानी से उपलब्ध होते हैं, उन्हें हम उपयोग करते हैं और यही बात रासायनिक खाद पर भी लागू होती है।
हमें यह खाद जैविक खाद के मुकाबले सस्ती पड़ती है और इसकी सबसे बड़ी वजह सरकार द्वारा इन रासायनिक खाद कंपनियों को दी जा रही हज़ारों, करोड़ रुपए की वो सब्सिडी है, जिसे फर्टिलाइज़र सब्सिडी कहते हैं।
हालांकि! यह सब्सिडी किसानों को सस्ते दाम पर रासायनिक खाद मिले इसके लिए है, मगर यह कम्पनियों का मुनाफा सुनिश्चित करती हैं और किसान को रासायनिक खाद लेने के लिए एक तरह से प्रोत्साहित भी करती है और इससे पैदावार जैविक खाद के मुकाबले ज़्यादा होती है,
जिससे हम अपनी लागत निकालकर कुछ मुनाफा भी कमा सकें और अपने बाल बच्चों का पेट भर सकें।
जैविक खाद का खर्च उपज से ज़्यादा
चूंकि रासायनिक खाद जैसे कि यूरिया और डीएपी हम अपने खेतों में उपयोग करते हैं, जिससे पैदावार ठीक हो जाती है। हालांकि खेती अब कोई मुनाफे का सौदा नही है मगर करें भी क्या? जब कोई काम नही है तो दिन रात मेहनत कर के हम अनाज उगाते हैं।
लेकिन उसके लिए हम कर्ज लेकर बीज खरीदते हैं, ट्रेक्टर से खेत की जुताई करवाते हैं। किसी के ट्यूब वेल से पानी खरीदते हैं, सोसाइटी से उर्वरक खरीदते हैं। इस सबके बाद कीटनाशक भी खरीदते हैं।
फसल की सुरक्षा करते हैं, मौसम की मार भी झेलते हैं, कटाई और थ्रेसिंग के बाद, जब किसी के ट्रेक्टर ट्रॉली से अनाज मंडी में बिकने जाता है, तब जाकर हमारी मेहनत का कुछ फायदा हमें मिलने के आसार बनते हैं।
क्या कहते हैं बुंदेलखंड के किसान सुनील
बुंदेलखंड क्षेत्र के एक किसान सुनील जब उनसे यह सवाल किया गया कि अधिकतर जगह मान्यता तो यह है कि जैविक खाद मुफ्त में उपलब्ध है और इससे पैदावार अच्छी होती है साथ ही मार्केट में इस फसल के दाम भी अच्छे मिलते हैं तो उनका कहना था कि
रासायनिक खाद खेती के समय आसानी से उपलब्ध होती है, साथ ही साथ इसकी कीमत प्रति एकड़ के हिसाब से कम बैठती है मगर दूसरी तरफ गोबर आज कल आसानी से उपलब्ध नही होता है और उस गोबर से खाद बनाना और उसका भण्डारण करना, साथ ही साथ उसे खेतों तक पहुंचाना! इन सबका खर्च रासायनिक खाद खरीदने से ज़्यादा पड़ जाता है।
पहले किसान पारंपरिक खेती करते थे, जहां पर खेती के साथ साथ पशुधन भी रखा जाता था, जिससे गोबर भी खाद बनाने क लिए मुफ्त में उपलब्ध हो जाता था मगर अब पशुधन पालना भी एक घाटे का सौदा बन चुका है।
एक ओर चारागाह खत्म हो गये हैं तो वहीं मशीनों से होने वाली फसलों की कटाई में अब भूसा नही मिलता और भूसा खरीदना बहुत महंगा है ओर ना ही गाँव में दूध की सही कीमत मिलती है। इन सब कारणों से पशु रखना अब मुश्किल होता जा रहा है और इस वजह से गोबर खाद सस्ते दाम पर प्राप्त करना आसान नहीं है।
1960 के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति
गुलामी की जंजीरों को तोड़कर जब भारत आजाद हुआ था, तब खाद्यान्न की अत्यंत कमी से जूझ रहा था और तब 1960 के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति!
जिसने भारत की कृषि व्यवस्था को और मुख्य रूप से खाद्यान उत्पादन को पुरज़ोर तरीके से आगे बढाया, जिसमें इन्ही रासायनिक उर्वरकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई,
तब भारत तब खाद्यान्न की अत्यंत कमी से जूझ रहा था और ज़रूरत थी कि राष्ट्र खाद्यान संपन्न बने परन्तु धीमे -धीमे इन रासायनिक उर्वरकों पर किसानों की निर्भरता बढती चली गई और गोबर खाद या अन्य जैविक खाद का उपयोग कम होता चला गया।
खेती के पारंपरिक तरीके अब गुमने लगे हैं
मध्यप्रदेश के बैतुल जिले के एक किसान अखिलेश जावलकर बताते हैं कि, सैकड़ों सालों से हमारे पूर्वजों ने अपने अनुभव के आधार पर खेती की एक तकनीकी विकसित कर ली थी,
जिसमें वो मिश्रित खेती करते थे और पशुओं के मल-मूत्र से ही विभिन्न तरीके की खाद, फसलों को मिल जाया करती थी, साथ ही साथ जो दलहन फसलें हैं वह प्रकृति के चक्र के अनुसार स्वतः ही नाइट्रोजन मिट्टी में पुरार्स्थापित कर देती थीं मगर विभिन्न कारणों से ये पारंपरिक तरीके अब गुमने लगे हैं।
फिलहाल जो रासायनिक उर्वरक इस्तेमाल करते हैं, उसके बारे में वो बताते हैं कि चूंकि खेती में फसलों को एक निश्चित चक्र में उगाया और काटा जाता है, ऐसे में इन पौधों को जिन पौषक तत्वों की आवश्यकता होती है, उनकी कमी मिट्टी में हो जाती है और बेहतर उत्पादन के लिए हम रासायनिक खाद के रूप में इन पौषक तत्वों को मिटटी में डालते हैं।
क्या है पौधों की ज़रूरत
पौधों को उगने और पनपने के लिए पानी और सूर्य के प्रकाश के अलावा भी निम्न पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है
- प्रमुख रूप से आवश्यक तत्व नाइट्रोजन,फास्फोरस, पोटेशियम
- द्वितीय पोषक तत्व–कैल्शियम,मैग्नीशियम एवं सल्फर
- सूक्ष्म मात्रा वाले पोषक तत्व– आयरन, ज़िंक, कॉपर एवं मैगनीज़। इसके अलावा अति सूक्ष्म मात्रा अन्य तत्व जैसे बोरोन व मोलिब्डनम
भारत में बहुत से प्रचलित उर्वरकों में से यूरिया एवं डीएपी (DAP-डाई अमोनियम फास्फेट ) प्रमुख हैं। इसके अलावा कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट (CAN ), अमोनियम सल्फेट, अमोनियम नाइट्रौफास्फेट (NAP), सिंगल सुपर फास्फेट, ट्रिपल सुपर फास्फेट और मोनो अमोनियम फास्फेट (MAP) भी हैं।
मिट्टी की उर्वरकता को खत्म करते रसायन
मध्यप्रदेश के बालाघाट ज़िले के एक किसान रामकिशोर बताते हैं कि, आज कल बिना यूरिया फसल उगाना जैसे बहुत मुश्किल हो गया है। तमाम तरीके के रासायनिक खाद के अति उपयोग से जमीन में (मिट्टी ) कई फायदेमंद जीवाणुओं और सूक्ष्म जीवों की संख्या में कमी आ गई है।
किसानों का मित्र कहे जाने वाले केंचुए, जो मिटटी को उलट-पुलट कर उसमें कई ऐसी परिस्तिथियों को पैदा करते हैं, जिससे मिट्टी वायुमंडल में घुले कुछ पोषक तत्वों को ग्रहण कर लेती है।
इन रसायनों ने केंचुओं को भी मार डाला है, जिससे मिट्टी की उर्वरक क्षमता में भी कमी आई है और मिट्टी के नमी ग्रहण करने की क्षमता में भी कम हो गई है। जिस वजह से अब मिट्टी को कम अंतराल में ज़्यादा पानी देने की आवश्यकता होती है
और इसके साथ ही साथ इसके दुष्प्रभावों के करण कुछ कीड़े पैदा हुए हैं, जो फसलों को नुकसान करते हैं और जिसके लिए फिर कुछ कीटनाशक रसायनों का प्रयोग करना होता है।
वो आगे बताते हैं कि इन्ही तमाम वजहों से यह रसायन चारे के माध्यम से पशुओं के दूध में और फिर मानव शरीर में पहुंच रहा है। इसके अलावा फसलों के माध्यम से भी मानव शरीर में प्रवेश कर गए हैं।
साथ ही यह रासायनिक खाद मिट्टी से बारिश के दौरान जल स्रोतों में एवं भूमिगत जल में भी पहुंच जाते हैं, जिसके दूरगामी दुष्प्रभाव मानव शरीर पर अब, हमें दिखाई देने लगे हैं।
इसके अलावा यह रसायन जल स्रोत में जलकुम्भी एवं अन्य जलीय पोधों को जल स्रोत की सतह पर उगाने में और उसकी वृद्धि में सहायक होता है जिससे वह पोधे जल में घुली ऑक्सिजन को लेने लगते हैं और सूर्य के प्रकाश को भी जल के अन्दर जाने से रोकने लगते हैं जिसका उस जलाशय एवं उसके जीवों पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
जैसा की हम देख सकते हैं कि रासायनिक खाद न केवल मिट्टी को अनुपजाऊ बना रही है अपितु मानव एवं अन्य प्राणियों के लिए भी घातक है।
क्या कहते हैं संवैधानिक प्रावधान
साथ ही साथ यह कृषि एवं पशुपालन पर भी दुष्प्रभाव डालती है। लम्बे समय में मिट्टी के अनुपजाऊ हो जाने से रासायनिक खाद पर निर्भरता बढ़ जाती है और तब आजीविका संकट भी खड़ा हो जाता है।
पर्यावरण पर इसके दूरगामी दुष्प्रभाव को अब नाकारा नही जा सकता और नदी, तालाब, भूमिगत जल एवं वायु को प्रदूषित करने में यह रासायनिक खाद और कीटनाशक अहम भागेदारी रखते हैं।
तब हमने कुछ संवैधानिक प्रावधानों को देखना चाहिए –
- प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण।– अनुच्छेद 21-
- सभी नागरिकों को आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार,(ख)- सामूहिक हित के लिये समुदाय के भौतिक संसाधनों का समान वितरण।- अनुच्छेद 39 (क)-
- पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊंचा उठाने तथा लोक स्वास्थ्य में सुधार करने का राज्य का कर्त्तव्य अनुच्छेद- 47
- कृषि और पशुपालन हेतु संगठन।- अनुच्छेद-48
- पर्यावरण का संरक्षण और संवर्द्धन तथा वन तथा वन्यजीवों की रक्षा।- अनुच्छेद 48 (क)
- प्राकृतिक पर्यावरण, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्यजीव आते हैं इनकी रक्षा करें और उसका संवर्द्धन करें तथा प्राणिमात्र के प्रति दया भाव रखें।- अनुच्छेद 51 (क) VII
जैविक खेती के लिए कुछ मूलभूत बातें
वैश्विक स्तर के साथ-साथ भारत में भी देखा गया है कि जब हम केवल जैविक खाद के द्वारा खेती करते हैं, तब शुरूआती 3 साल में रासायनिक खाद के मुकाबले कम खेती होती है, इसके बाद चौथे साल में ब्रेक इवन पॉइंटआता है और पांचवे वर्ष से हमें फायदा देखने को मिलता है।
सरकार जैविक खाद बनाने के लिए एवं पशुपालन को बढ़ावा देने के लिए यदि बेहतर तरीके से योजनायें लागू करती है, तब किसान जैविक खेती की ओर मुड़ सकते हैं। साथ ही साथ पशुओं के चारागाह के लिए स्थान सुनिश्चित करना ज़रुरी होगा, जिस पर कभी ध्यान ही नहीं दिया जाता है।
जैविक खाद के ज़रिये नए रोज़गारों का सृजन भी किया जा सकता है, साथ ही साथ शुरूआती वर्षों में किसानों को आर्थिक मदद भी देनी होगी ताकि! वह जैविक खेती के शुरुआती वर्षों में हुए नुकसान की भरपाई कर सकें।
जल संरक्षण से मानव स्वास्थ्य तक सभी के लिए फायदेमंद
जैविक खेती से पशुधन को बढ़ावा मिलता है, साथ ही साथ इस खाद के प्रयोग से मिट्टी में ह्यूमस बढ़ता है और तब सिंचाई का अंतराल बढाया जा सकता है, जिससे खेती में कम पानी की ज़रूरत पड़ेगी। केंचुए एवं अन्य लाभदायक जीवाणुओं का विकास होगा, जिससे मिट्टी की गुणवत्ता भी बढ़ेगी।
रासायनिक खादों का प्रयोग कम से कम होगा और इससे जल संरक्षण को बढ़ावा मिलेगा और जानवरों और इंसानों का बेहतर स्वास्थ्य होगा। इस तरह से यह खेती एक लाभ का सौदा साबित होगी, जिससे ग्राम विकास से लेकर देश के विकास की एक लम्बी लकीर खिंची जा सकती है।
रासायनिक खाद द्वारा खेती बनाम जैविक खेती केवल किसानो का मुद्दा नही है बल्कि यह पृथ्वी पर रह रहे हर एक मनुष्य का मुद्दा है, जिस पर समय रहते ध्यान नही दिया गया तो यह महाविनाश की ओर ले जाएगा।
सन 2015 की प्राक्कलन रिपोर्ट में उछाल दर्ज करते हुए कहा गया है कि रासायनिक खाद का उत्पादन करने वाली कंपनियों ने निश्चय ही रासायनिक कृषि को बढ़ावा देने के लिए अप्रत्यक्ष योगदान दिया है, ताकि ऐसे व्यवसायों को लाभ अर्जित हो सके।
वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ने 2016, जनवरी में एक श्वेत पत्र जारी कर जैविक खेती की ज़रूरत पर विशेष बल दिया था मगर सरकार द्वारा जैविक खेती बनाम रासायनिक खेती को प्राप्त सब्सिडी में यह पलड़ा रासायनिक खेती की ओर झुका दिखता है ,जिस पर सरकार को विचार करना होगा।
जैविक खाद पर गुजरात पीठ की टिप्पणी महत्वपूर्ण हैं
गुजरात राज्य बनाम मिर्ज़ापुर मोती कुरैशी कसाब जमात एवं अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने वर्ष 2005 अन्य बातों के साथ मवेशियों पर राष्ट्रीय आयोग (National Commission on Cattle) की रिपोर्ट उद्धृत करते हुए मवेशियों की निरंतर उपयोगिता की ओर ध्यान आकर्षित किया था।
पीठ ने कहा था कि मवेशियों के गोबर जैसे मिट्टी -पोषक जैविक खादों के अभाव में किसान महंगे और हानिकारक रासायनिक उर्वरकों के उपयोग के लिए विवश होते हैं तथा रासायनिक उर्वरकों में निवेश अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ डालता है।
इसके अलावा उर्वरक सब्सिडी नीति भारतीय किसान के पारंपरिक ज्ञान की अनदेखी करने और उसे आजीविका के उपयुक्त साधन से वंचित करने तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य, पर्यावरण और कमज़ोर वर्गों के आर्थिक हितों को खतरे में डालने के रूप में भारतीय संविधान की उपेक्षा भी करती हैं।
भारत में 1995 से 2015 तक कुल 3,22,028 किसानों ने खुदकुशी की है (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो –NCRB के आंकड़ें बताते हैं) पर सच्चाई आंकड़ों से भी भयावह होती है ।
हालांकि ये आंकड़े भी इस इस बात का स्पष्ट संकेत हैं कि मौजूदा कृषि संकट की सबसे बड़ी वजह ये है कि किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य नहीं मिल पा रहा है।
सिक्किम विश्व में प्रथम जैविक राज्य
मगर हमारे देश में भी कुछ उम्मीद की किरणें दिखाई देती हैं, जैसे कि सिक्किम राज्य ने किया है। विश्व में सिक्किम को प्रथम जैविक राज्य के रूप में चिह्नित किया गया एवं वह यूएन फ्यूचर पॉलिसी अवॉर्ड में स्वर्ण पदक विजेता रहा,जबकि डेनमार्क को रजत पदक मिला।
वहीं पिछले वर्ष आंध्र प्रदेश द्वारा ‘शून्य बजट प्राकृतिक खेती’ (Zero Budget Natural Farming) परियोजना की शुरुआत की गई और वर्ष 2024 तक रसायन के प्रयोग को चरणबद्ध ढंग से समाप्त करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।
मुझे यकीन है कि हम इस प्रकृति को नष्ट होने से बचायेंगे ताकि हमारा जीवन भी बच सके और रासायनिक खाद के दुष्परिणाम और जैविक खेती के फायदे की इस जागरूकता को अधिक से अधिक फ़ैलाने की कोशिश करेंगे।
नोट: लेखक सत्य प्रकाश नायक, पर्यावरण प्रेमी और शिक्षाविद हैं। सत्य प्रकाश की यह स्टोरी YKA क्लाइमेट फेलोशिप के तहत प्रकाशित की गई है।