8 घंटे काम, 8 घंटे मनोरंजन और 8 घंटे आराम। औद्योगिक क्रांति के दौरान इस नारे पर आधारित उचित काम और आराम की लड़ाई हुई थी। यह नारा आज भी वही महत्व रखता है।
सर्वांगीण विकास के लिए हमें मनोरंजन की ज़रूरत होती है
दुनिया में रहकर कुछ खेल नहीं खेला, कोई गीत नहीं गाया या कोई रंग नहीं भरा, उसने ज़िंदगी की खुशियों को बर्बाद कर दिया। इसके अलावा भी शोध और अध्ययन में भी पाया है कि काम में उत्पादकता बढ़ाने के लिए नियमित अवकाश और मनोरंजन बहुत ज़रूरी है।
पर अफसोस, जिस दुनिया में हम रह रहे हैं, वहां कुछ मुफ्त नहीं है। खाना, पानी, घर, सुरक्षा सब की एक निश्चित कीमत है, जहां बुनियादी सेवाओं पर ही दाम लगे हुए हैं, तब तो मनोरंजन, जिसे बुनियादी नहीं माना जाता है, उसकी कीमत इतनी ज़्यादा है कि कुछ ही इसे प्राप्त कर सकते हैं।
लिंग, क्षेत्र, आर्थिक वर्ग या धर्म, कोई भी विभाजन को बच्चों को खेलने-कूदने और खुद को आनंदित करने से नहीं रोकना चाहिए। शहरों में रहने वाले परिवारों के बच्चों के मनोरंजन के लिए फोन, वीडियो गेम्स, मॉल, सिनेमा घर या पार्क हैं, लेकिन ऐसा मनोरंजन सभी को नहीं मिलता।
बच्चों के मानसिक, शारीरिक और अनुभौतिक विकास के लिए खेलकूद और मनोरंजन अनिवार्य है। इनसे बच्चों के शरीर, दिमाग और अनुभूति का रोचक तरीके से कसरत होती है। गाँव हो या शहर, गरीब परिवारों में जिनके पास मनोरंजन खरीदने के साधन नहीं होते, वे अक्सर मानसिक बीमारी जैसे डिप्रेशन या नशे से जूझते हैं और सुस्त हो जाते हैं। इसलिए खेल कूद और मनोरंजन बहुत ज़रूरी है।
जीवन की खुशियों की खोज
गाँव में कुछ परिवारों के अलावा, बाकियों के पास मनोरंजन के साधन खरीदने के लिए पैसे नहीं होते हैं। ऐसे में वहां रहने वाले परिवार अपने बच्चों के मनोरंजन के लिए अपने हाथों से ही खिलौने बनाते हैं। छत्तीसगढ़ के गाँव में लोग स्वयं ही मनोरंजन के साधन बना लेते हैं। ऐसा कहा जाता है कि ज़रूरत आविष्कार का स्रोत है ठीक उसी प्रकार छत्तीसगढ़ के आदिवासियों ने भी मनोरंजन के लिए खोज कर ली है। इसके साथ खुशियों की भी, जो ज़िन्दगी में कुछ रंग, कुछ हंसी और बहुत सारा प्यार भरती हैं।
पैसों के अभाव में, जो संसाधनों आसपास में और मुफ्त में मिलते हैं, वहां के लोग उन्हीं वस्तुओं का उपयोग करके अपने बच्चों के मनोरंजन के लिए खिलौने बनाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में साधन संपन्नता, कौशलता और आत्म निर्भरता की झलक बाकी कार्यों में भी दिखती है जैसे, घर बनाना है, तो मिट्टी, लकड़ी, पत्थरों, या घास-फूंस से बनाए जाते हैं। खेती के दिनों में हल चलाना है, तो लकड़ी से स्वयं ही हल तैयार कर लिया। बैल या मवेशियों को बांधने के लिए रस्सी पेड़ से प्राप्त की जाती है। लोगों के आसपास, जो भी वस्तुएं जंगल, पेड़ पौधे या प्रकृति से उपलब्ध हैं, वे उसका उपयोग अपने जीवन के साधनों के रूप में करते हैं।
क्या है रेंचू झूला?
रेंचू सुनने में अजीब नाम लगता है, लेकिन छत्तीसगढ़ी बोली में इसका मतलब एक प्रकार का झूला होता है। रेंचू झूले में बच्चे एक लकड़ी के सहारे गोल-गोल बहुत तेज़ी से घूमते हैं। एक लकड़ी को ऊंचाई के अनुसार जमीन पर काट दिया जाता है। यह उतनी ऊंचाई की होती है, जहां तक छोटे बच्चे आसानी से पहुंच सकें। इसे सीधा ज़मीन पर गाढ़ दिया जाता है। इसके ऊपरी सिरे को नुकीला किया जाता है।
उसके बाद, इस लकड़ी के चोटी के ऊपर, धनुष के आकार की एक मोटी लकड़ी रखी जाती है। धनुष आकार की लकड़ी के बीच में ऐसे जगह पर गड्ढा किया जाता है, जहां दोनों तरह बिल्कुल सामान्य रहे। किसी तरफ ना-कम-ना ज़्यादा हो, जहां रेंचू में गड्ढा किया जाता है, वहां पर कोयले को पीसकर डाल दिया जाता है, ताकि वह गोल-गोल घूम सके। यह लुब्रिकंट की तरह काम करता है, जो आसानी से बिना रुके झूले को घुमाता रहता है और बस रेंचू झूले को आकार देने में इतनी ही चीज़ों की ज़रूरत होती है।
रेंचू के दोनों ओर पर अलग-अलग बच्चे बैठते हैं। इस पर बैठने के बाद, इसे गोल-गोल घुमाना शुरू किया जाता है। इस झूले का छोटे बच्चे बहुत ही आनंद लेते हैं। आशावादी आंखों से बच्चे झूला झूलते बच्चों को देखते और अपनी पारी का इंतज़ार करते हैं।
खेल से बढ़ता है आपसी मेल मिलाप
रेंचू झूले को व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से बनाया जाता है, लेकिन ज़्यादातर यह सामूहिक उपयोग के लिए बनाया जाता है, जिससे पूरे गाँव के बच्चे यहां झूला झूल सकें और खेल सकें। इसे कोई बड़े पेड़ के नीचे बनाया जाता है। यह सार्वजनिक स्थान होता है, ताकि गाँव के सभी लोग यहां इकट्ठा हो सकें और सभी बच्चे मस्ती के साथ खेल सकें।
बच्चों को झूलते हुए देखना एक प्रकार का बहुत ही आनंददायक अनुभव होता है। इस झूले से कभी-कभी बच्चों के दिमाग में चक्कर आ जाते हैं और वे गिरकर चोटिल हो जाते हैं। इसके अलावा, वयस्कों की निगरानी में बच्चे सुरक्षित भी रहते हैं। यह झूला गाँव के लोगों को एक साथ बांधे रखता है।
बच्चों का दूसरा बहुत ही प्रिय खेल है झूला झूलना। कुछ बच्चे बरगद के पेड़ के पर झूला झूलने चले जाते हैं। बरगद के पेड़ के तने से लंबी और मज़बूत जड़ें ज़मीन की ओर गिरती हैं। इसे उछलकर बच्चे पकड़ते हैं और इस पर रस्सी की तरह झूलते हैं।
मनोरंजन के उचित प्रबंध नहीं होने के कारण यहां के गांववासी खुद ही मौजूदा साधनों से खिलौने और खेल बना लेते हैं। झूले बनाने की प्रक्रिया में गाँव वासियों का व्यावहारिक ज्ञान भी झलकता है। उन्हें बहुत अच्छे से तोल, भार, फुलक्रम जैसे भौतिक विज्ञान की भी समझ होती है। यह झूला पूरे गाँव को एक धागे में मोतियों की माला की तरह बांध के रखता है।
गाँववासी अपने स्वयं के साधनों और समझदारी से इस झूले को बड़ी आसानी से बना लेते हैं, लेकिन कभी-कभी बिना सुरक्षा उपकरणों के झूला झूलना भी कभी- कभी खतरनाक भी हो सकता है, क्योंकि ये जुगाड़ से बना होता है। मनोरंजन और खेल, हमारे दिमाग और शरीर की कसरत के लिए बहुत ज़रूरी हैं, लेकिन सब इतनी आसानी से इनके साधन नहीं जुटा पाते।
इसलिए ये तो प्रबंधन की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए कि वे गाँव वासियों के बच्चों के मनोरंजन के लिए व्यवस्था करें। मनोरंजन के उपकरण जैसे झूले सार्वजनिक स्थानों पर और सुरक्षित होने चाहिए। मैं तो यही कहूंगा कि रेंचू झूले का मज़ा हर इंसान को एक बार अवश्य लेना चाहिए।
नोट- यह लेख राकेश नागदेव ने दीप्ति मिंज के सहयोग से लिखा है।
लेखक परिचय : राकेश नागदेव छत्तीसगढ़ के निवासी हैं। वे मोबाइल रिपेयरिंग का काम करते हैं। वो खुद की दुकान भी चलाते हैं। उन्हें अपने लोगों के साथ मिल जुलकर रहना पसंद है और वो लोगों को अपने काम और कार्य से खुश करना चाहते हैं। उन्हें गाने और जंगलों में प्रकृति के बीच समय बिताने का बहुत शौक है।
About the author: Deepti Mary Minj is a graduate in Development and Labor Studies from JNU. She researches and works on the issues of Adivasis, women, development and state policies. When she is not working, she watches films like Apocalypto and Gods Must be Crazy, and is currently reading Jaipal Singh Munda.