निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
-भारतेंदु हरिश्चंद्र, (हिन्दी के जनक)
हिन्दी हमेशा ही मेरे लिए कक्षा के विषय से ज़्यादा प्रेम का विषय रही है, मतलब एक ऐसा विषय जिसे पढ़ने, समझने और बोलने से मुझे हमेशा ही प्रेम रहा और हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा, राज्य भाषा हो ना हो लेकिन मातृभाषा तो है ही।
उन सबके बावजूद भी मैंने हिंदी को हमेशा ही उपेक्षित और अन्य विषयों की चर्चा के बीच हिन्दी को एक कोने में दुबके हुए ही पाया।
हिन्दी प्रदेश में रहने के बाद भी मैंने हिन्दी को महत्व देते लोग कहीं नहीं देखे। उनके लिए अंग्रेजी हमेशा हिन्दी से सर्वोपरि रही है। यदि मैं अपने अनुभव की ही बात करूं, तब मेरा हिन्दी विषय में शुरूआती कक्षाओं से ही सबसे बेहतर परिणाम रहा, लेकिन मुझे याद है कि उस हिन्दी के लिए मुझे कभी सराहा ही नहीं गया।
बल्कि हिंदी विषय के शिक्षक ही मुझे कहते, तुम गणित और अंग्रेज़ी पर ध्यान दो, तब तुम कुछ बेहतर कर सकती हो और शायद हिन्दी के नाम पर यही डर रहा होगा, जो मैं एक कॉमर्स (स्ट्रीम) स्टूडेंट में बदल गयी।
मगर इसके बावजूद भी हिन्दी मुझे हमेशा ही अपनी तरफ़ खींचती रही और एक बार फिर मैंने हिन्दी की तरफ अपना रुख कर लिया यानि मैंने एम.कॉम के बाद वापस एम.ए करने का मन बनाया लेकिन हमारे समाज़, हमाऱी सोच की परेशानी यही है कि हम हिन्दी को ज्ञान से नहीं जोड़ पाते, हमें लगता है हिन्दी के हर तर्क का तोड़ अंग्रेज़ी है मगर शेक्सपीयर हों या कालिदास, जॉन इलियट हों या सूरदास हर किसी की रचना अपनी छुअन अपनी थरथराहट लिए हुए है और सबका अपना-अपना महत्व।
मैं आज भी किसी को बताऊं की मैं हिन्दी लिट्रेचर की विद्यार्थी रही हूं, तब झट से मुझे कह दिया जाता है इंग्लिश लिट्रेचर क्यों नहीं चुना? मुझे नसीहत दी जाती है, हिन्दी से किसी का कोई भला नहीं हो सकता! हिन्दी पढ़ने-लिखने वाले जहां है वहीं रह जाते हैं और लोगों का दिखाया ये डर इतना बड़ा था कि कभी-कभी लगा कहीं मैं वाक़ई गलत तो नहीं?
हिन्दी की स्थिति का अंदाज़ा आप इस बात से लगाईए कि मुझे मेरे अपने ही कॉलेज में हिन्दी प्रोफेसर ने ये कहते हुए एडमिशन देने से मना कर दिया था कि हिन्दी का कुछ स्कोप नहीं हम भी यहां हिन्दी लेकर पछता रहे हैं अगर हमारा अंग्रेजी या कोई और विषय होता तब हम कहीं और होते।
साथ ही उनका कहना था यहां हिन्दी पढ़ने वही आते हैं, जिन्हें सिर्फ डिग्री चाहिए होती है, मगर उस डिग्री का कुछ करना नहीं होता है, तब आप विचार कीजिये किसी भी हिन्दी भाषी की कहीं और पहुंचकर क्या स्थिति होती होगी?
माधवराव सप्रे जो की हिन्दी के आरंभिक संपादक और पहले कहानीकार कहे जाते हैं उनकी ये पंक्ति यहां बरबस ही मुझे याद आ गई। जिस भाषा से स्वाभिमान की वृत्ति जाग्रत नहीं होती वह भाषा किसी काम की नहीं। – माधवराव सप्रे
तब आज हिंदी दिवस के मौके पर ये विचारणीय है कि हिन्दी हमारी मूल भाषा थी तब क्यों हमें उसे बचाने को एक दिन घोषित करना पड़ गया और हिन्दी को लेकर आज बड़े-बड़े बैनर और हैशटैग लिए हम क्यों घूम रहे हैं?
हमने हिन्दी को क्यों और कैसे सबसे पिछली पंक्ति में ले जाकर खड़ा कर दिया? जैसा की मैंने अपने अनुभव में बताया जहां एक और हिन्दी को संभालने वाले ही हमें उसे छोड़ देने की सलाह दे रहे हों (क्योंकि वो जानते हैं हिन्दी की स्थिति क्या है) वहां आप कितना और कब तक मनोबल बटोर सकते हैं।
यूं तो कोई विषय कमतर नहीं होता, हर विषय की अपनी मान्यता है और उपयोगिता भी और यदि हिन्दी कमत्तर ही होती तब पत्रकारिता का सबसे बड़ा अवॉर्ड (रैमन मैग्सेसे) एक हिन्दी भाषी पत्रकार (रवीश कुमार) तक नहीं पहुंचता। लेकिन हिन्दी का उत्थान हिन्दी-हिन्दी चिल्लाने से नहीं होगा, बल्कि तब होगा जब हिन्दी को समान अवसर मिलेंगे।
हिन्दी को बोलचाल से निकालकर, रोज़गार से पत्राचार तक का महत्व देना होगा, तब जाकर हमारे युवा उसे आगे ले जाने को राज़ी होंगे।
वर्ना तो हिन्दी दिवस साल दर साल एक दिन के तौर पर गुज़रता चला जाएगा। हिन्दी की खूबसूरती बोलने से कहीं ज़्यादा उसे पढ़ने में है। कभी पढ़िए भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर केदारनाथ सिंह तक की हिन्दी, सूरदास से रसखान तक।
यूं भी वही भाषा जीवित और जाग्रत रह सकती है, जो जनता का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व कर सके, इसलिए बेहतर यही है कमत्तर- बेहतर के फेर में ना पड़ते हुए हम अपनी भाषा को स्वाभिमान के साथ एक बेहतर स्थान दें फिर वो अपनी जगह खुद ही तलाश पाए ले।