वर्तमान में कॉलेज जा रहे विद्यार्थी जिनके सिर टेक्नोलॉजी की गुलामी में झुके हैं, जिनके हाथों में किताब दिखती नहीं और उनके चारों ओर के आसपास के परिवेश को देखकर लगता है कि यहां किताबें बिकती ही नहीं हैं।
देश की राजधानी दिल्ली में कई नामी विश्वविद्यालय और कॉलेज हैं। यहां देश के करीब सभी राज्यों से विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त करने आते हैं। इस क्रम में जेएनयू, जामिया और दिल्ली विश्वविद्यालय प्रमुख हैं। इन कॉलेजों की बड़ी-बड़ी इमारतें हैं, सुंदर बगीचे हैं, खेलने के लिए मैदान है, कैंटीन भी है, लगभग ज़रूरत की सभी चीज़ें यहां उपलब्ध हैं।
लेकिन मेरी आंखें ढूंढ रही हैं, एक ऐसी दुकान जहां से मैं प्रेमचंद्र के उपन्यास, जॉन एलिया की ग़ज़लें, हंस की पत्रिका खरीद सकूं। मैंने किताबों की दुकानों की तलाश शुरू ही की थी और पता चला कि कॉलेज के भीतर ही नहीं बल्कि पूरे साउथ कैंपस में किताबों की कोई ऐसी दुकान ही नहीं है जिसके पास मेरी मनभावन किताबें उपलब्ध हों।
इस बात से मेरे मन में बहुत निराशा थी, लेकिन एक सवाल बार-बार मेरी आंखों के सामने आ रहा था कि आखिर दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैंपस के कॉलेजों के भीतर और आसपास कोई भी पुस्तकों की कोई दुकान क्यों नहीं हैं?
नॉर्थ कैंपस के कॉलेजों की चर्चा दिल्ली में पढ़ने वाले हर एक विद्यार्थी से मैंने सुनी थी तो मैं अपने पसंदीदा पुस्तकों की की खोज में निकल पड़ा। मेरे मन में एक बात थी कि जहां हिंदू, हंसराज जैसे नामी कॉलेज हों, वहां किताबों की दुकानें तो होंगी ही, जब मैं वहां पहुंचा तो मेरी उम्मीदों को एक बड़ा झटका लगा और बाद में मुझे पता लगा कि यहां के कॉलेजों में पढ़ने वाले बच्चे भी किताबें खरीदने के लिए कैंपस से दूर मार्केट जाते हैं। इस बात को सुनकर हम बोले, ‘दिल्ली के कॉलेजों से किताबों की दुकानें और संस्कृति दोनों खत्म हो गई है क्या?’
डीयू के कॉलेजों में नहीं कोई बुक स्टोर
महात्मा गांधी जी कहते थे कि “कपड़े भले ही पुराने पहनो पर नई पुस्तकें खरीदो।” गांधी जी की इस बात को यदि दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी भी कॉलेज का विद्यार्थी पूरी करने की सोचे तो उसे ना ही कॉलेज के भीतर या कॉलेज के आसपास भी कोई ऐसी किताबों दुकान या स्टोर नहीं मिल पाएगा और वह थक-हार कर वह गूगल बाबा की शरण में जाकर इसकी खोज करने लगेगा।
सौ बात की एक बात यह है कि दिल्ली के कॉलेजों के भीतर आपको बड़ी-बड़ी और आधुनिक सुख सुविधाओं से सुसज्जित भव्य कैंटीनें ज़रूर मिल जाएंगी और उनके आसपास बड़े-बड़े कैफे, पिज़्ज़ा-बर्गर से लेकर गोलगप्पे की दुकानें मिल जाएंगी लेकिन “आपको पुस्तकों की दुकानें या ऐसे स्टोर्स का मिलना तो उतना ही दुर्लभ है जितना अपनी हथेली पर सरसों उगाना।”
समाप्ति के हाशिए पर किताबों की संस्कृति
कुछ साल पहले तक नॉर्थ कैंपस के विद्यार्थियों को अपने पाठ्यक्रम की पुस्तकों को लेने की कल्पनाओं को मूर्त रूप देने के लिए कमला मार्केट जाना पड़ता था। वर्तमान में किताबों की दुकानों वाला यह मार्केट अब कपड़ों के बाज़ार के रूप में प्रसिद्ध हो चुका है। वहां से उन दुकानों को बंद करवा दिया गया है, अब तो वहां मुश्किल से कुछ एक फोटो स्टेट और स्टेशनरी की दुकानें ही बची हैं।
साउथ कैंपस में तो आपको सत्या का बर्गर ही मिल सकता है। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अटल तिवारी बताते हैं कि कई साल पहले साउथ कैंपस में एक किताब की दुकान हुआ करती थी, जिसे बाद में कुछ कारणवश विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा बंद करवा दिया गया।
दरियागंज पुस्तक प्रेमियों के लिए स्वर्ग का रास्ता
किताबों की सुगंध अपने पाठकों को अपने तक बुला ही लेती है। दिल्ली का दरियागंज इलाका किताबों की खोज कर रहे विद्यार्थियों के लिए रेगिस्तान में एक सहरा (समुद्र) की तरह है। दिल्ली के कॉलेजों के विद्यार्थी अधिकतर मौकों पर किताबों को खरीदने के लिए दरियागंज पहुंच जाते हैं।
यहां पर दिल्ली गेट के सामने रविवार को किताबों की दुकानें लगती हैं और नई सड़क पर बुक मार्केट की ओर उस लंबी सी गली में जाने के बाद लगता है कि दुनिया की सभी किताबें इन पुराने से घरों में ही भरी हुई हैं। किताबों के लिए विद्यार्थी अपने कॉलेजों से कहीं दूर दरियागंज चले जाते हैं लेकिन जरा सोचिए अगर उन्हें अपने ही कैंपस के भीतर या आसपास ये सारी किताबें मिल जाती तो कितना अच्छा होता? इससे विद्यार्थियों के अमूल्य समय और वहां आने-जाने में खर्च होने वाले धन की भी बचत होती और वे इस अमूल्य समय का उपयोग अपने अध्ययन में लगा पाते।
केवल अब जेएनयू और जामिया में ही बची हुई है पुस्तक संस्कृति
पुस्तक संस्कृति और किताबों की दुकानों के मामले में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय काफी समृद्ध नज़र आता है। जेएनयू में पढ़ने वाले छात्र सौरभ बताते हैं कि यहां पुस्तक संस्कृति कई हद तक बची हुई है और किताबों को लेकर छात्रों के बीच में एक अच्छा माहौल देखने को मिलता है।
किताबों की दुकानों को लेकर सौरभ ने बताया कि कैंपस के भीतर 45 साल से चल रही ‘गीता बुक स्टोर’ किताबों की मुख्य दुकान है, जहां पर विद्यार्थियों के लिए लगभग सभी तरह की पुस्तकें आसानी से मिल जाती हैं। इसके अलावा ताप्ती हॉस्पिटल के पीछे तरुण बुक स्टोर और लाइब्रेरी के आसपास भी दो-तीन किताबों की दुकाने हैं। इस दौरान यह भी पता लगा कि गंगा ढाबे के पास ‘मौर्या अंकल’ नाम की पत्र-पत्रिकाओं की एक छोटी सी दुकान थी, जिसे अज्ञात कारणों से 2013 में बंद कर दिया गया है। वहीं जामिया के छात्र विक्रांत बताते हैं कि पुस्तकों को लेकर वहां अच्छा माहौल है और कैंपस के भीतर एक किताबों की दुकान भी है।
विद्यार्थियों को किताबें लुभाती नहीं, बर्गर-पिज्जा लुभाते हैं
आखिर किताबों की दुकानों /बुक स्टोर्स की जगह विद्यार्थियों को कैंटीन/ कैफे में बैठकर बर्गर खाने का शौक कैसे लगा दरअसल, यह एक साजिश के तहत हुआ है। कॉलेज की कैंटीन में मिलने वाले पकवान, सत्या का बर्गर और कमला नगर में मिलने वाले कपड़े कॉलेज जाने वाले विद्यार्थियों को आकर्षित करेंगे फिर लगेगी भीड़ और होगा मुनाफा। 21 वी सदी के इस ऑनलाइन दौर में किताबों के पन्ने मोबाइल फोन की स्क्रीन में तब्दील हो चुके हैं। इन सबके बीच पुस्तक संस्कृति धीरे-धीरे विद्यार्थियों की उपेक्षा के कारण हाशिए की ओर जाती नज़र आ रही है।
किताबें हमारे मन के कपाटों (दरवाज़ों) को खोलती हैं। पाठक को हर पृष्ठ पर चुनौतियां मिलती हैं और उसके विचारों का विस्तार होता है। गूगल से डाउनलोड किताबों के पृष्ठों से सुगंध, उनके स्पर्श और उनके बीच में हम मोर पंख रखने की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। इस बात को नहीं नकारा जा सकता कि आज पुस्तक संस्कृति हाशिए के कगार पर है। जरा कल्पना कीजिए एक ऐसी शाम की जहां किताबों की दुकानों के बाहर मित्रों की टोली के साथ चाय लेकर चर्चा परसाई की हो।
नोट- मनोज, YKA राइटर्स ट्रेनिंग प्रोग्राम सितंबर-अक्टूबर 2021 बैच के इंटर्न हैं। वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के मास कॉम के कोर्स में अध्ययनरत हैं। इन्होंने इस आर्टिकल में, वर्तमान में हमारे देश के विश्वविद्यालयों से खत्म होती हुई हमारी गौरवशाली पुस्तक संस्कृति एवं इसके अभाव में विद्यार्थियों को रोज़ होने वाली समस्याओं की ओर प्रकाश डाला है।