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चुनावी माहौल में जातीय, सामाजिक और पारिवारिक दबाव से झूँजते आ रहा है छत्तीसगढ़ का यह गाँव

VARANASI, INDIA - MAY 12: Residents line up to vote at a local polling station set up at National Inter College in Varanasi on May 12, 2014. Indians voted in the ninth and final phase of a general election Monday that includes the holy city of Varanasi. An international delegation from Mauritius and United Nations visited Varanasi during the election process to witness the 16th Loksabha elections in India. UNDP India/2014/Prashanth Vishwanathan

छत्तीसगढ़ का हमारा ग्राम पंचायत सरभोका आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है। यहां बिंझवार समाज एवं उरांव समाज की आबादी अधिक है, जिसमें बिंझवार समाज की आबादी सबसे ज्यादा लगभग 900 है। दूसरे नंबर पर उरांव समाज है, जिसमे लगभग 150 लोग है, और तीसरे नंबर पर अन्य जाति के भी लगभग 150 लोग है। इस तरह से सरभोका में मतदाताओं की संख्या लगभग 1200 है, जिसमें बिंझवार समाज से 5 प्रत्याशी थे और उरांव समाज से 1 प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरे थे। विगत पंचवर्षी में भी बिंझवार समाज से 4-5 प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरे थे और उरांव समाज से 1 प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरे थे, लेकिन उरांव समाज को सफलता नहीं मिली थी। इस बार उरांव समाज से चुनाव लड़ रहे प्रत्याशी के हाथों में बहुमत नजर आ रहा था।

यदि लोगों में परिवर्तन की चाह है तो जिस प्रत्याशी में लोग अपने विकास को देखते है, उस प्रत्याशी के पास स्वयं मतदाता संपर्क करता है- “आपको हम इस बार चुनेंगे, हमारे पारा मोहल्ला से आप इतने वोट गिनती कर लेना, हमारे वार्ड पारा में आने की जरूरत नहीं है। हम सब संभाल लेंगे।” इस तरह भार स्वयं मतदाता ही उठाता है।

विकास की दृष्टी से ग्राम पंचायत सरभोका एकदम ही नीची स्तर पर है। लोगों का कहना है कि “विगत कई पंचवर्षी में कई सरपंचों को देखा, और उन्होंने हमारे नज़रों में तो कोई काम ही नहीं किया है। तो इस बार हम विकास के लिए ही जन प्रतिनिधि चुनेंगे।”  

ग्राम पंचायत सरभोका में चुनावी माहौल की गरमाई चारो तरफ थी। जब मैंने लोगों से बात की, तो आधे से अधिक लोगों ने नए चेहरे का जिक्र किया, और कहा कि इस बार नया जन प्रतिनिधि चुना जाएगा। लेकिन वे लोग उस नए जन प्रतिनिधि का नाम नहीं बता पा रहे थे, क्योंकि लोग अपनी मनशा नहीं बताना चाहते थे। ऐसा इसलिए कि वे डरते हैं कि कही उनकी मनशा अपने समाज विरादरी में पता ना चल जाए। उनके हिसाब से उनकी चुप्पी ही उनके लिए अच्छी है। इस बातचीत से सभी व्यक्तियों का इशारा एक ही व्यक्ति की ओर था। उनका कहना है कि वे अपना मत उनको देंगे जो पढ़ा लिखा हो, लोगों की मदद हेतु आगे हो और गाँव के विकास हेतु तत्पर हो।

लोगों ने खुलकर नाम तो नहीं लिया, परन्तु उनके कहने के अनुसार इन छः प्रत्याशियों में एक ही प्रत्याशी का चेहरा उभरकर सामने आया, क्योंकि वह पढ़ा लिखा भी है और लोगों के सहयोग में भी आगे रहता है। यह प्रत्याशी श्रीमती क्रांति गुरबाहर टोप्पो हैं। चुनाव मैदान में तो श्रीमती क्रांति गुरबाहर टोप्पो, गुरबहर टोप्पो की पत्नी थी, लेकिन लोगों के दिल में गोरबहर टोप्पो जी की छवि थी। लोग गुरबहार टोपो में गाँव का विकास देखते है।

इस तरह रहता है मतदाताओं पर सामाजिक और पारिवारिक दबाव

“चुनाव प्रत्याशियों को तो चुनाव में कई कठिनाइयाँ आती ही होगी, लेकिन इससे कहीं ज्यादा परेशानियाँ मतदाताओं को उठानी पड़ती है। मतदाताओं को अनेक प्रकार की परेशानी, पारिवारिक दबाव, जातीय दबाव / सामाजिक दबाव, यहां तक कि यार-दोस्त का भी दबाव भी महसूस होता है और झेलना पड़ता है। गाँव में अक्सर परिवार में आपसी विचार विमर्श होता है। इसमें दो मत देखने को मिलते है- बुजुर्गों के अलग विचार, युवाओं के अलग विचार। बुजुर्गों के विचार को बदलने में अधिकतर लोग नाकाम रहते हैं, क्योंकि उनके विचार में जिनकी छवि छप गई, सो छप गई। चाहे वह छवि विकास की दृष्टी से हो या फिर रिश्तेदारी, यार-दोस्त की दृष्टी से हो, इनका मत एक होता है। भले ही वे अपने वयस्क बच्चों को अपनी ओर खींचने की कोशिश करेंगे, लेकिन अपना मत नहीं बदलेंगे। लेकिन आज के युवा खुद जागरूक है। वे जानते हैं कि, कौन प्रत्याशी योग्य है और कौन नहीं।”, बताते है संजय एक्का, सरभोका के निवासी। 

 

ऐसे होता है लोगों पर जातीय दबाव 

जातीय दबाव भी गाँव में अपना एक अलग स्थान रखता है। जातीय दबाव में लोग अपना मत जात विरादरी में रखते हैं। जातीय स्तर पर बैठक, जातीय स्तर पर सामूहिक चर्चा, जातीय स्तर पर एकल चर्चा होती है। जातीय दबाव में प्रत्याशी या उस प्रत्याशी के पक्ष में खड़े रह रहे व्यक्ति, अपने जाति के लोगों की अलग से समुहिक बैठक करते हैं, जिसमें जाति पर आधारित बातें करते हैं। संजय जी बताते है, “जब हमारे समाज से प्रत्याशी चुनाव में खड़ा होता है, तो हम सभी हमारे जात विरादरी में ही वोट देते है। यदि कोई व्यक्ति या परिवार हमारे जाती के प्रत्याशी को वोट नहीं देगा, तो उस जाती के अन्य लोग उसे समाज से बाहर कर देंगे। लोग उसके घर और सामाजिक कार्यों में नहीं जाएंगे, शादी – ब्याह, छठी बारहों, मरण-हरण, आदि कोई भी कार्यक्रम में नहीं जाएंगे। इस तरह से चुनाव के समय जातीय दबाव देखने मिलता है।” इस दबाव के विरोध में बहुत ही कम लोग आगे आते हैं। अधिकतर युवावर्ग ही इस तरह के दबाव का मुंह तोड़ जवाब देते हैं।

यारी-दोस्ती में भी दबाव

यारी-दोस्ती वाले दबाव में दोस्त का व्यवहार बदल जाता है। लोग उस दोस्त से दूरी बनाए रखेंगे जो उनकी विचारधारा से अलग विचार रखता हो, या अन्य प्रत्याशी की ओर उसका झुकाव हो। लोग उनसे कम बात करेंगे,उनसे पहले की अपेक्षा कम मुलाकात करेंगे, उन्हें देखकर अलग बर्ताव करेंगे। 

इस तरह चुनाव के समय गाँव में लोगों पर कई सारे दबाव होते है, जिससे उनका वोट किसको जाएगा, यह तय होता है। इसका परिणाम यह है की लोग दबाव में आकर वोट देते है, और यह नहीं सोचते की उन्हें ऐसे व्यक्ति को वोट देना चाहिए, जो सच में अच्छा/ अच्छी जन प्रतिनिधि बन सकता/ सकती है। इससे गाँव का विकास और लोगों का कल्याण पीछे रह जाता है, और ताक़त और दबाव का यह खेल ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। 

 

यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजैक्ट के अंतर्गत लिखा गया है, और इसमें Prayog Samaj Sevi Sanstha और Misereor का सहयोग है।

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