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ध्यान क्या होता है

 How To Success In Right Yoga And Meditations Mantra - योग ध्यान को कामयाब  बनाने के लिए आजमाएं ये 4 मंत्र - Amar Ujala Hindi News Live

ध्यान करना यानी निश्चित रूप से क्या करना होता है इसपर हम आज बात करेंगे।
सर्व प्रथम एकाग्रता, चिंतन और ध्यान के बीच फर्क समझना आवश्यक है।
एकाग्रता या एकाग्र चित्त होना यानी ही किसी विचार पर अपनी संपूर्ण मनो वृत्ति को केंद्रित करना। चिंतन करना यानी देखें, सुने या पढ़े हुए किसी विषय के बारे में पुनः पुनः विचार करना। और ध्यान का अर्थ है , मन में उठने वाले विचारों से एक दुरी बनाय रखना या उन विचारों को बड़े ध्यान से, जागरूकता से निरीक्षण करना।

आम तौर पे हम अपने जीवन में इंद्रियों और उनके विषयों से घीरे रहते है। नेत्र , कान, जीव्हा, स्पर्श इत्यादि से होने वाले अनुभवों me ही सारा ध्यान लगा रहता है। मनुष्य बार बार उन्हीं विषयो कि ओर आकर्षित होता रहता है ।

इन्ही विषयो की सेवा करने की एक आदत फिर धीरे धीरे मनुष्य के अंदर चीपक जाती है। यही कारण है की हम बार बार लगातार सुख दुःख के चक्र से घिरे रहते है, और जीवन बीत ता हुआ चला जाता है।
इन विषयों एवं इंद्रियों पर विजय कैसे प्राप्त करनी है और एक आंतरिक सुख की अनुभूति कैसे की जाए , इसका उत्तर “ध्यान” से मिलता है ।
ध्यान का अभ्यास बाकी विषयो से काफी सूक्ष्म और निरंतर चलता रहता हैं। एक जगह आँखे बंद करके बैठे, बाहर के विषयों और विचारों को बाहर ही छोड़ कर, ध्यान अवस्था मे बैठे। ये करने के बाद भी मन में विचारों का खेल चलता रहता हैं। जो व्यक्ति बाहर से मौन दिखाई देता हो, आवश्यक नही की वो मन से भी शांत हो। मनुष्य मन को सतत किसी ना किसी गतिविधि में उलझा रहना ही अच्छा लगता हैं। ये उसका नैसर्गिक स्वभाव दोष हैं।
किंतु इससे विचलित न होते हुए, इन सभी विचारों से एक मानसिक दूरी बनाते जाए। ये विचारों कहा से आ रहे हैं और कहा समाप्त हो रहे है इसका बारीकी से निरीक्षण करे। एक अलिप्त भाव रखते हुए उन पर दृष्टि रखे।
अपनी दोनों आँखों के बीच में अपना संपूर्ण लक्ष्य केंद्रित कर, मन में उठने वाले विचारों को देखते जाए और धीरे धीरे उनसे दूरी बनाते जाए। साथ ही अपने आप को एक बात से परिचित करवाये की , मेरा शरीर , मेरे मन मे उठ रहे विचार, और मेरी आत्मा ये तीनों अलग अलग है ।

विचारों को प्रतिउत्तर न देते हुए, उनकी गति समय के साथ धीमी हो जाती है, और फिर एक क्षण ऐसा आता हैं जब मन, विचार हीन हो जाता है। इसके कारण विचारों को सूक्ष्म दृष्टि से देखने वाला शुद्ध चैतन्य स्वरूप “मैं” हु , शुद्ध आत्मा हु, इस बात का बोध होता हैं ।
यही सत्य चित्त आनंद की अवस्था कहलाती हैं।
इस शुद्ध “मै” के बोध से मनुष्य जागरूक होता हैं , और उसका स्वयं के दिव्य रूप से पुनः मिलन हो कर, उसे अपने सच्चे रूप कि पहचान होती हैं। ध्यान की अवस्था में शरीर एवं विचारों का बोध समाप्त हो कर शुद्ध, शांत आनंद कि प्राप्ति होती हैं। धीरे धीरे साधक इस शांति और जागरुकता को अपने अंतःकरण में स्थित कर व्यवहार करना सीख लेता हैं।
ध्यान में हुई देह मन बुद्धि से परे इस अनुभूति से आंतरिक सुख और दिव्य ऊर्जा से परिचय होता हैं।
समय के साथ ये शांति और समझ मनुष्य के निजी आचरण, स्वभाव एवं दैनंदिन कार्यो में झलक ने लगती है और साधक बोहत ही सहज आनंद भाव से मोक्ष और आत्म शांति के मार्ग पर आगे बढ़ता जाता हैं।

प्रणाम .

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