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कृष्ण होने का अर्थ

जन्माष्टमी के अवसर पर छोटे बच्चों को कान्हा के रूप में सजाने का चलन आम हो गया है। नन्हे बालक पारम्परिक पीली पोशाक पहने, सर पे मोर पंख लगाए, हाथ में बंसी पकडे मनमोहक लगते हैं। किन्तु इसमें एक बड़ी त्रासदी है। हमने कृष्ण की केवल वेशभूषा ही का अनुकरण किया है- उनके मूल्यों का नहीं।

कृष्ण होने का अर्थ केवल मुरली बजाने और माखन चुराने तक सीमित नहीं है। क्या हम अपने बच्चों को कृष्ण के दिखाए मार्ग पर चलने के लिए भी प्रेरित करते हैं? या फिर जन्माष्टमी भी अन्य त्योहारों की तरह बाज़ारवाद की भेंट चढ़ चुका है। 

हम बच्चों को कृष्ण जैसा भाई, कृष्ण जैसा मित्र, कृष्ण जैसा अनुरागी बनाने की कोशिश कभी नहीं करते। करते भी हों तो सफल कम हो पाते हैं क्यूंकि हमारे अपने जीवन में इन मूल्यों का कोई स्थान नही। जब हमारे अपने समबन्धों में प्रेम और ईमानदारी नहीं है तो बच्चे भी हमसे लेन-देन और दोगलापन ही सीखते हैं। नफे नुकसान से रिश्तों को तोलने वाले हम नई पीढ़ी को भाव विनोद की क्या परिभाषा दे पाएंगे।  स्त्री का सम्मान, ऊंच- नीच, भेदभाव न करना, न्याय और सत्य को सर्वोपरि रखना – ये सब सिद्धांत अगर हिंदुस्तान में सचमुच अपना लिए गए होते तो आज हमारे समाज की ये दुर्दशा न होती। कहने को तो हर कोई बहुत धार्मिक है – लेकिन असल में अपने व्यवहार और सोच को धर्म की कसौटी पर परखने की चेष्टा कोई नहीं करता। कृष्ण की जीवन कथा मे निहित जीवन आदर्श ही जब समाज से गायब हों तो बालकों को कान्हा के रूप में सजा देने से वे कल के सभ्य पुरुष न बन जायेंगे।

हमने मान लिया है कि कृष्ण जीवन-दर्शन आज कि समय में व्यावहारिक नहीं है। कृष्ण की शिक्षा, गीता का उपदेश इस सदी के लिहाज से बहुत पुराना हो गया है। हम खुद ही तो बच्चों से कहते हैं कि ज़्यादा शरीफ मत बनो – चालाकी से जीना सीखो। नहीं तो ज़िन्दगी की दौड़ में पीछे रह जाओगे। इसलिए यह ठीक है कि हम कृष्ण की लीला बच्चों को टीवी पर दिखा दें, जन्माष्टमी पर उन्हें कान्हा बना कर तस्वीरें सोशल मीडिया पर डाल दें और अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाएँ। इससे ज़्यादा कुछ करने का न तो हमारे पास समय है न हमे कोई ज़रूरत भी महसूस होती है।

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