हाल ही में, तालिबान ने अफगानिस्तान पर अपना कब्ज़ा कर लिया है और तमाम बातों के साथ, जो मुद्दा सबसे ज़्यादा गर्माया है, वह है अफगानिस्तान में महिलाओं के अधिकार जिन्हें वहां कुचला जा रहा है।
खैर, आज विमेंस इक्वलिटी डे है और वैसे भी हम ना ही अफगानिस्तान में हैं ना ही तालिबान हमारे मानवाधिकारों का हनन कर रहा है फिर हम उन सब पर बात क्यों करें? लेकिन जब-जब किसी भी अन्य देश में महिलाओं के अधिकारों के खिलाफ कानून बनते हैं तो हम अपने लोकतांत्रिक देश की दुहाई देने लगते हैं कि हमारे देश में महिलाएं कितनी आज़ाद हैं, हम महिला और पुरुष में भेदभाव नहीं रखते लेकिन क्या वाकई हमारे देश में ऐसा है?
क्या आप जानते हैं कि हमारे इस पितृसत्तात्मक समाज में महिला अधिकारों और उनके साथ किए जाने वाले सामाजिक भेदभाव की जड़ें कितनी गहरी हैं? यदि आप इन सब के बारे में नहीं जानते हैं तब अपने घरों में एक बार ज़रूर झांकिए तब आपको छोटी-छोटी बातों में बड़े-बड़े भेद नज़र आएंगे।
पहले घर के मर्द खाएंगे, फिर तुम खाना
नहीं, ऐसा अब कहीं नहीं होता। आप यही बात बार-बार दोहराएंगे लेकिन मैं आपको बता दूं कि यह महिलाओं के साथ हमारे सभ्य और आदर्श कहे जाने वाले समाज की सामाजिक व्यवस्था एवं घरों में होने वाला सबसे आम भेदभाव है और हम इसके इतने आदी हो चुके हैं कि इस पर हमारा कभी ध्यान ही नहीं जाता है।
सामान्यतः मैंने हर घर में, ये जुमला सुना है “पहले उन्हें (कोई भाई, पिता, पति) दे दो, हम लोग तो बाद में खा सकते हैं और उससे भी ज़्यादा आम है कि क्या सच में उसने खाना खाने से पहले किसी से नहीं पूछा !अकेले ही खा लिया। यदि आपको इस बात पर भरोसा ना हो तो आप अपने घरों में एक बार झांक कर ज़रूर देखें। मैं यकीनन ऐसी कई लड़कियों को जानती हूं, जिन्हें कई दफा सिर्फ इस बात की सज़ा दी गई है कि उन्होंने अपने पति से पहले खाना कैसे खाया?
यहां फिक्र, परवाह जैसे मीठे और सभ्य शब्दों में ढालकर इस बात को खत्म नहीं किया जा सकता। भूख और खाना एक व्यक्ति की क्षमता पर निर्भर करता है ना कि पुरुष के पहले खाने से।
लड़के को प्राइवेट स्कूल में पढ़ाओ लड़की को सरकारी में
हमारे समाज में एक बनी बनाई लकीर है, जो कहती है कि लड़कियों को तो घर संभालना ही होता है तब कहीं भी पढ लें क्या ही फर्क पड़ता है? मैं ऐसे सैकड़ों नाम यहां दर्ज़ कर सकती हूं, जिन्होंने एक ही समय पर अपनी लड़की को सरकारी और लड़के को इंग्लिश मीडियम स्कूल में दाखिला करवाया है।
ऐसा नहीं है कि सरकारी स्कूल अच्छे नहीं होते, बिल्कुल होते हैं। मैं भी एक सरकारी स्कूल से पढ़ी हूं मगर एक ही समय में एक लड़की और लड़के को दो अलग-अलग स्कूलों में डालना क्या वाकई सही है? और हमारे समाज की सामाजिक कही जाने वाली व्यवस्था में लडकियों के साथ भेदभाव होना यहीं से शुरू होता है। यहीं से पितृसत्तात्मक सोच का अंकुर एक लड़के के मन में फूटने लगता है कि वो उस लड़की से थोड़ा ज़्यादा है, जो कि उसकी बहन है।
ज़्यादा मत पढाओ नहीं तो लड़की हाथ से निकल जाएगी
हाथ से निकलना? मैं आज तक हिंदी साहित्य के रूप में जनश्रुतियों से मशहूर हुए इस मुहावरे को ठीक-ठीक समझ ही नहीं पाई। एक लड़की, यदि सही और गलत के बीच का अंतर समझ ले और अपने फैसले खुद कर ले फिर चाहे वो अपनी मर्ज़ी का करियर चुनना हो या जीवनसाथी! तब हमारे सभ्य और आदर्श पितृसत्तात्मक समाज को ये खुद पर तमाचे सरीखा लगता है। इसलिए ये समाज यदाकदा लड़कियों को चरित्र सर्टिफिकेट ज़ारी करता रहता है उदाहरण के तौर पर मैं एक वाकया रखूं, जो अक्सर ही मेरे या हम सभी के साथ होता है।
यदि मैं किसी मित्र या रिश्तेदार के सामने किसी गंभीर विषय जैसे राजनीति, कोई रिलेशनशिप पर बात रखती हूं, तब अक्सर सुनने वाला पुरुष/महिला कोई भी हो, वो मुझ से कहते हैं कि रहने दो, तुम नहीं समझोगी! बाहर ज़्यादा रही हो होना अब घरवालों की कहां सुनती होगी? जबकि एक लड़के से समाज में कोई ये तक नहीं पूछता कि वह इतनी देर से कहां था? और शायद इस समाज में एक लड़की के हाथ से निकलने का सम्पूर्ण पैमाना ही इतना है कि वो अपनी बात खुद कैसे रख रही है?
क्या हैं समाज के संस्कार और उनका ज़िम्मा एक लड़की पर ही क्यों?
इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है न्यूज़ पेपर में आने वाला मेट्रोमोनियल एड! आपने नहीं पढ़ा हो तो एक बार पढ़ कर देखिए फिर आपको संस्कारों के बारे में गहन जानकारी हो जाएगी। उस एड में बहुत सारी बातों के साथ छोटे से महीन अक्षरों में साफ-साफ लिखा होता है कि “लड़की संस्कारी होनी चाहिए।”
क्या हमारे समाज ने संस्कार का कोई पैमाना (स्केल) इज़ाद किया है? जहां संस्कारों की बढ़त-घटत पर कुछ कहा जा सके, नहीं बल्कि घरों में कम बोलने वाली, गलत पर चुप रहने वाली लड़की ही हमारे समाज की नज़रों में संस्कारी होती हैं और इसलिए ज़्यादा हंस-बोलने वाली लड़कियों को हमारा सभ्य समाज कुछ खास अच्छे नज़रिए से नहीं देखता है और उन्हें चरित्र प्रमाण पत्र से सुशोभित करता है, जबकि संस्कारों का सामाजिक पैमाना एक अच्छी और सही सोच होना चाहिए, जो दूसरों के अधिकारों की रक्षा और सम्मान कर सके मगर हमारा पितृसत्तात्मक समाज हमें ये सिखाने में बहुत पीछे है।
कई मौकों पर मुझे भी कहा जाता है, “चुप रहो! तुम मत बोलो वो बड़े हैं।” हालांकि, मेरे पिता ने मुझे चुप रहना कभी नहीं सिखाया लेकिन दूसरे जब-तब मुझे ये नसीहत बांटते रहते हैं।
मैं जॉब करती हूं! मेरे पिता/पति को कोई परेशानी नहीं
हमारे समाज में, जब कोई पुरुष बहुत गर्व से कहता है कि उसे कोई परेशानी नहीं, उसकी बहन, बेटी खासकर बीबी जॉब करे लेकिन वो ये बताना हमेशा ही भूल जाता है कि जिस प्रोफाइल पर उनके घर की महिला काम कर रही है, वो उसने ही तय की है।
मेरा मानना है कि पितृसत्तात्मक समाज के भेदभाव की सबसे बड़ी जड़ यही है, जहां एक महिला को कभी यह सोचने का मौका ही नहीं दिया जाता कि कामकाज़ी होना पुरुष का एकाधिकार नहीं है और यह एक लड़की के साथ सबसे बड़ा भेदभाव है कि वो इस अंतर को ना समझ पाए कि सक्षम होना, अपने पैरों पर खड़े होना एक पिता/पति का अधिकार नहीं बल्कि उसका हक है, जिसके लिए उसे किसी से भी इज़ाज़त लेने की ज़रुरत नहीं हैं।
करवाचौथ! पति परमेश्वर है, उसके पैर छुओ
करवाचौथ के, मैं खिलाफ नहीं लेकिन क्या कोई ऐसा व्रत आपने सुना है, जो एक पत्नी को देवी बनाता हो? कितने अपराध की बात है, भला एक औरत मर्द के सामने बड़ी कैसे हो सकती है! क्योंकि हमने शुरू से ही अपने घरों में कच्ची उम्र से ही एक लड़की-लड़के के सामने अलग-अलग फ्रेम रखे हैं, जहां दुनिया के तमाम पिता आराम कुर्सी पर अखबार पढ़ रहे हैं और माँ चूल्हे के आगे बैठकर अपने पतियों की डांट से बचने के लिए ज़ल्दी-ज़ल्दी खाना पका रही हैं और यही भेदभाव एक कहानी को जन्म देता है, जो एक लड़की को घरेलू और लड़के को आराम करने की शिक्षा देती है।
जायदाद तो सिर्फ बेटे की है! बेटी तो पराया धन है
हमारे समाज में, जब फैसलों की बात होती है तब एक पिता का अपनी बेटी के जीवन पर पूरा अधिकार होता है, क्योंकि बेटी तो पराया धन है लेकिन उसी पिता की संपत्ति में बेटी का कोई अधिकार नहीं होता है। यदि कोई लड़की शादी के बाद अपने पिता/भाई से अपने हिस्से की मांग कर ले, तब उसे तुरंत ही लालची, बुरी लड़की की श्रेणी में रखा जा सकता है। अब आप खुद से पूछिए कि आपने कभी अपनी बेटी, बहन को अपनी सम्पति में अधिकार देना चाहा है?
एक लड़की वंश बढ़ाती है, लेकिन उसमें आती नहीं
हम एक सनातन संस्कृति वाले राष्ट्र का हिस्सा हैं, जहां हमारी परम्पराएं सबसे पुरानी हैं जिनमें शायद ही कोई ऐसा होगा, जो कुल देवता-देवी को पूजने की रिवायत ना जानता हो। भले ही वो किसी भी धर्म या जात से आता हो, जहां एक ओर लड़कियों को नवरात्रों में देवी बनाकर पूजने का दावा किया जाता है। वहीं दूसरी ओर उन्हीं लड़कियों को घरों में होने वाले अनुष्ठान में सिर्फ इसलिए शामिल नहीं किया जाता, क्योंकि वो किसी और के घर की कहलाती हैं।
खैर इस पर बात फिर कभी! अब आप खुद से पूछिए कि खुद से कितनी समानता आपने एक समाज के तौर पर महिलाओं को दी है? हमारे पितृसत्तात्मक समाज में लड़कियां इतने छोटे-छोटे स्तरों पर भेदभाव झेलती हैं कि वे इसकी आदी हो चुकी होती हैं। वे भूल जाती हैं कि उन्हें उतना ही अधिकार है, जितना एक लड़के का अधिकार है।
ऐसे विमेंस इक्वलिटी डे आते रहेंगे लेकिन जब तक हम अपनी सोच, नज़रिया नहीं बदलते तब तक इन सबका सच्चे अर्थों में कोई मतलब नहीं है और मैं जब बार-बार पितृसत्तात्मक शब्द जोड़ती हूं तो मेरा मतलब एक पुरुष से नहीं बल्कि उस पुरुषवादी विचारधारा से है, जिसमें महिलाएं भी बराबरी से सहभागी हैं।
जब तक हमारे पितृसत्तात्मक समाज का फ्रेम नहीं बदला जाएगा, जहां काम, सोच, कार्यशैली को जेंडर यानी एक महिला और एक पुरुष की क्षमता के तौर पर नहीं बल्कि एक समानता के तौर पर देखा जाएगा, उस दिन विमेंस इक्वलिटी डे सच्चे अर्थों में होगा।