बिहार के मुजफ्फरपुर ज़िले में आज के ही दिन सन 1908 का साल इतिहास के लिए खास था, इतना खास कि यह दिन इतिहास में दर्ज़ हो गया। इस दिन देश में सबसे कम उम्र के युवा क्रांतिकारी खुदीराम बोस को अंग्रेज़ी हुकूमत ने फांसी की सज़ा दी थी। अंग्रेज़ी हुकूमत युवा खुदीराम बोस की निडरता और बहादुरी से इतनी ज़्यादा आतंकित थी कि उन्होंने युवा खुदीराम बोस की उम्र का भी ख्याल नहीं रखा, जो महज़ अठारह साल, आठ महीने, आठ दिन की थी। जिस दिन खुदीराम बोस को सज़ा दी जानी थी, उस दिन वो अपने हाथ में गीता लिए अपने देश की स्वतंत्रता की खातिर हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए और हमेशा के लिए इतिहास में अमर हो गए।
बोस का बाल्यकाल
खुदीराम बोस का जन्म 3 अगस्त, 1889 को बंगाल के मिदनापुर ज़िले के हबीबपुर गाँव के एक निर्धन परिवार में सबसे छोटी संतान के रूप में हुआ था। खुदीराम अपने स्कूल के दिनों से ही राजनीतिक और सार्वजनिक गतिविधियों में सक्रिय रहने के कारण, वह बाल्यकाल के उन दिनों में ही अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद और विदेशी दासता जैसी चीज़ो को समझने-बूझने लगे थे। उन में अपने गुलाम मुल्क की आज़ादी की चाह इतनी अधिक प्रबल थी कि उन्होंने अपने स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और अपने देश को अंग्रेज़ों से आज़ादी दिलाने की राह पर निकल पड़े।
अंग्रेज़ अधिकारी किंग्सफोर्ड को मारने की योजना बनाई
बंगाल के नारायणगढ़ रेल्वे स्टेशन पर किए गए बम विस्फोट की घटना में वह प्रमुख रूप से शामिल थे। इसके बाद उन्होंने प्रफुल्ल चंद्र चाकी के साथ मिलकर अंग्रेज़ अधिकारी किंग्सफोर्ड को मारने की एक योजना बनाई। इस योजना को मूर्त रूप देने के लिए, दोनों बिहार के मुजफ्फरपुर ज़िले पहुंचे और एक दिन मौका देखकर किंग्सफोर्ड की बग्गी पर बम फेंक दिया। दरअसल, उस दिन बग्गी में किंग्सफोर्ड मौजूद नहीं था और उसमें एक दूसरा अंग्रेज़ अधिकारी और उसकी पत्नी-बेटी थे, जिनकी मौके पर ही मौत हो गई।
28 फरवरी, 1906 को अंग्रेज़ी सरकार के द्वारा खुदीराम बोस को पकड़ लिया गया, लेकिन वे भागने में सफल रहे। इस घटना के दो महीने बाद फिर अंग्रेज़ी सरकार ने उनको पकड़ लिया और न्यायालय में उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला, जिसका अंत उनकी फांसी की सज़ा से हुआ। ऐसा कहते हैं कि फांसी के बाद खुदीराम बोस युवाओं में इतने प्रसिद्ध हुए कि धोती बनाने वाले जुलाहे, धोती के किनारे उनके नाम का एक चिन्ह बनाने लगे, जिसको युवा लड़के खूब पहनते थे और खुदीराम बोस से प्रेरणा लेते थे।
खुदीराम बोस का व्यक्तित्व
खुदीराम बोस का व्यक्तित्व हमें बता देता है कि विचारों के प्रति अपनी कर्तव्यनिष्ठा की कोई उम्र नहीं होती है। आप किसी भी उम्र में, किसी विचार के प्रति आलोचनात्मक रूप से मुखर हो सकते हैं और उसको अपने जीवन का आधार मान सकते हैं। जिस उम्र में खुदीराम बोस की शहादत हुई, वह किशोर उम्र कही जा सकती है या वयस्क कहलाने की सीमा रेखा के कुछ कदम पीछे रखी जा सकती है। इस उम्र में आज के युवाओं को देखा जाए तो उनकी तुलना बोस से करना एक अतिशयोक्ति लग सकती है।
आज की भौतिक दुनिया बहुत बदल चुकी है और उसके प्रभाव युवाओं के मन-मस्तिष्क पर हैं, इस बात को इंकार नहीं किया जा सकता है। इस उम्र में मौजूदा समय में ऐसी विचारधारा से लगाव या उसके प्रति झुकाव दूर की कौड़ी लाने के बराबर है गोयाकि परिवर्तन की दौड़ में भौतिक सुविधाओं की भाग-दौड़ बढ़ी पर सामाजिक संरचना आज भी वही है, जो भारत में सदियों पहले से चली आ रही है।
युवाओं की देश की राजनीति में सक्रियता
ऐसे कहने को हमारा देश, एक लोकतांत्रिक और संविधान से संचालित देश है, परंतु हमारे समाज की सामाजिक संरचना भी हमारे जीवन की एक सामाजिक हकीकत है। जो वंचित और पिछड़े युवाओं का जीवन कठिन और संघर्षपूर्ण बना ही देती है। इस यथास्थिति में कॉलेज-विश्वविद्यालयों में छात्र संगठनों में उनकी भागीदारी या हिस्सेदारी, आज के युवाओं को राजनीतिक-सामाजिक और सांस्कृतिक विचारों के प्रति जागरूक और चेतनाशील बनाती है इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।
यह बहस का विषय हो सकता है कि क्या छात्र संगठनों पर सामाजिक संरचनाओं का प्रभाव नहीं होता है या वह उससे संचालित नहीं होते हैं। वो ज़रूर सामाजिक संरचनाओं से संचालित होते हैं, पर कम-से-कम यह वह मंच है, जहां सामाजिक जीवन की वास्तविक सच्चाई को समझने में हमें सहायता मिलती है। उस पर मौजूद वाद-विवाद-संवाद युवा छात्रों को चेतनाशील और मुखर बनाता है।
दलित-वंचित युवाओं की मुखरता और उनकी सहज अभिव्यक्ति में ही उनकी सफलता की कुंजी छुपी हुई है। यही मुखरता आपको अपने विचारों के साथ-साथ शेष विचारधारा के प्रति आलोचनात्मक बनाती है। विचारों के प्रति आलोचनात्मक रूख युवाओं के अंदर थीसिस-एंटीथीसिस की प्रक्रिया को मज़बूत करता है और इससे युवाओं की अभिव्यक्ति में मुखरता आती है।
यह एक यक्ष प्रश्न ज़रूर कहा जा सकता है कि इन छात्र संगठनों में, उनके तमाम सवालों का हल मिल जाता है पर ऐसे संगठन अपने क्रिटिकल अप्रोच से छात्रों के अंदर नई ऊर्जा और आत्मविश्चास ज़रूर पैदा करते हैं, जो युवाओं के भविष्य का निर्धारण करते हैं। इसलिए इस तरह के संगठनों में युवाओं की भागीदारी बहुत ज़रूरी है, जिससे वे अपने अंदर की हीनभावना से मुक्त होकर आत्मविश्वासी और दूरदृष्टा बन सकें और अपनी समझ के प्रति आलोचनात्मक रह सकें और श्रेष्ठ जीवन मूल्यों का चुनाव कर सकें।