पूर्वी भारत के अधिकांश हिस्से इस समय बाढ़ की चपेट में हैं। नगर से लेकर गाँव तक के ताल-तलैया, गली-मुहल्ले जलमग्न हो चुके हैं, जिसकी वजह से जन-जीवन पूर्ण रूप से अस्त-व्यस्त हो गया है। जब बात आती है, ग्रामीण जीवन की तो इस मुश्किल समय में सबसे पहले जनमानस को अपनी रोजी-रोज़गार की समस्या आती है। गाँव के लोगों की जीविका खेतीबाड़ी, पशुपालन और खेती आधारित रोज़गारों पर निर्भर है, जो बाढ़ आने से पूर्ण रूप से प्रभावित हो जाती है।
ग्रामीण भारत के अधिकांश कृषक खेती के साथ-साथ गाय, भैंस, बकरी और मुर्गी आदि पालन करके अपनी जीवनरूपी नैया को खेते हैं लेकिन बाढ़ की इस भीषण त्रासदी में उनकी आय का यही साधन सबसे अधिक प्रभावित होता है, जिसकी तरफ ना तो सरकार और ना ही प्रशासन का ध्यान होता है।
असमय बारिश के कारण किसानों की खेतीबाड़ी भी पिछड़ गई है। अभी तक लोगों ने धान की रोपनी भी नहीं शुरू की, तब तक बाढ़ ने दस्तक दे दी। इसके परिणामतः खरीफ फसल धान, मक्का आदि की बुआई भी नहीं हो पाई है। वहीं यह बाढ़ सबसे ज़्यादा उन किसानों के लिए शामत बनकर आई है, जो पशुपालन पर निर्भर होते हैं। ऐसे में उनके पशुओं के चारे की ज़बरदस्त किल्लत हो गई है। गाँव में चारों तरफ पानी के भर जाने के बाद घास, दाना-साना आदि के लिए किसानों को ऊंचे स्थानों पर अपने मवेशियों को ले जाने की मज़बूरी हो गई है। इसके साथ ही पशुओं में वर्षा जनित रोग भी अब दस्तक देने लगे हैं। दोहरी परेशानी के बीच किसान अपने मवेशियों के पालन-पोषण को लेकर काफी चिंतित हैं।
बाढ़ के कारण किसानों की अर्थव्यवस्था की रीढ़ टूट गई है
बिहार के तकरीबन दर्जनभर ज़िले मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी, शिवहर, सुपौल, गोपालगंज, पश्चिमी और पूर्वी चम्पारण, सारण, किशनगंज, खगड़िया आदि के कुल पांच दर्जन प्रखंड की सैकड़ों पंचायतों के अंतर्गत हज़ारों गाँव बाढ़ की त्रासदी से बुरी तरह प्रभावित हैं। जहां गाँव के किसानों को अपने मवेशियों के लिए चारा और दाना-पानी जुटा पाना एक बहुत बड़ी समस्या बन गई है।
हज़ारों-लाखों रुपये की पूंजी लगाकर पशुपालन करने वाले किसानों के लिए अपने पशुओं की रक्षा करना भी इस समय एक बहुत बड़ी चुनौती है। इनकी रक्षा और चारे के लिए किसानों को कर्ज लेने पर मज़बूर होना पड़ता है। यही मुख्य कारण है कि बाढ़ उपरांत अधिकांश किसान कर्ज में बुरी तरह डूब जाते हैं और फिर उनके लिए अपनी घर-गृहस्थी को सुचारू रूप से चलाना भी काफी मुश्किल हो जाता है।
मुजफ्फरपुर ज़िले के पारू प्रखंडान्तर्गत दर्जनों पंचायतों के हज़ारों ग्रामीणों की जीविका का आधार पशुपालन है, लेकिन इस बाढ़ की विभीषिका के बाद फतेहाबाद, ग्यासपुर, धरफरी, सोहांसा, सोहांसी, पंचरूखिया, दोबंधा, नयाटोला, पहाड़पुर, मोरहर और वासुदेवपुर से लेकर पूर्वी चम्पारण के नदी किनारे रहने वाले हज़ारों किसानों को अपनी ज़मीन के साथ-साथ पशुधन की भी रक्षा करना सबसे मुश्किल काम हो गया है। इस सम्बन्ध में सोहांसी गाँव के किसान सिंगेश्वर शर्मा कहते हैं कि सैकड़ों की तादाद में मवेशियों को लेकर पशुपालक दूसरे गाँवों में चारे के लिए जाते हैं।
बाढ़ के कारण मवेशियों को चारा नहीं मिल रहा है
ऐसे में पशुओं को एक लंबी दूरी तय करके मुश्किल से कहीं घास मिल पाती है। यदि घास नहीं मिली तो उन बेज़ुबानों को भूखे रहने की नौबत आ जाती है। दूसरी ओर मानसूनी वर्षा के कारण मवेशियों में गलाघोंटू बीमारी, लंगड़ा बुखार, स्माल पॉक्स, परजीवी रोग, खाज-खुजली आदि बीमारियों का भयंकर रूप से प्रकोप बढ़ जाता है। इस दौरान अधिकांश पशु उचित-देखभाल नहीं होने के कारण अपनी दम तोड़ देते हैं।
वहीं हुस्सेपुर रति पंचयात स्थित पंचरूखिया गाँव के फूलदेव राय, लालबिहारी राय, शत्रुघ्न राय, मुन्नीलाल, सेवक राय, बदरी राय, संजय, पप्पू, राजेश और नवल राय समेत दर्जनों पशुपालकों के पास 1200 से अधिक दुधारू पशु हैं लेकिन वे बाढ़ के दौरान घर से लेकर पशुओं के खटाल तक उफनती नदी के प्रकोप का शिकार हो गए हैं। खुद साग-सतुआ खाकर रहने वाले किसान अपने मवेशियों के लिए चारे के प्रबंध में निरंतर लगे रहते हैं।
बाढ़ के कारण हर साल गाँव से लोग शहरों के लिए पलायन कर जाते हैं
बदरी राय कहते हैं कि प्रत्येक वर्ष बाढ़ के आने के बाद गाँव से हमें पलायन करना पड़ता है लेकिन प्रशासन द्वारा आज तक बाढ़ से बचाव का कोई स्थाई हल नहीं निकाला गया है। शकलदेव मिश्र कहते हैं कि आज से 25 वर्ष पहले भी बाढ़ आती थी, जो ग्रामीणों के लिए जीवनदाई होती थी। बाढ़ 5 से 10 दिन ठहरती थी। बाढ़ का पानी धीरे-धीरे उतरता था तो मिट्टी में नई जान आ जाती थी। फसलें लहलहा उठती थीं और पर्याप्त अन्न का उत्पादन होता था। इससे गाँव में चारों तरफ खुशहाली-ही-खुशहाली होती थी।
परंतु, पिछले दो दशकों से बाढ़ के कारण जीना मुहाल हो गया है। गाँव के धनी लोग अपनी-अपनी ज़मीन बेचकर शहरों में घर बनाकर आसानी से अपनी जीविका चला रहे हैं। हम जैसे निर्धन लोग गाँव में ही रहने को मज़बूर हैं। आखिर हम कहां जाएं? अब तो हमारा बाढ़ के साथ ही जीना और मरना लगा हुआ है। वहीं बकरी पालक विनय बैठा, कृष्णा सहनी और बसावन मियां कहते हैं कि पूरा इलाका जलमग्न है। हमें कहीं भी घास नहीं मिल रही है। खुद का पेट भरना कठिन है लेकिन बकरी पालन करने से नगद आमदनी होती है जिससे घर का चूल्हा-चौका चलता है। ऐसे में हम अपने हिस्से से बकरियों को दाल-भात रोटी आदि खिलाकर किसी तरह उन्हें ज़िंदा रखने की कोशिश करते हैं।
2019 की पशु जनगणना रिपोर्ट के अनुसार, देश में 192.47 मिलियन गाय, 109.85 मिलियन भैंस, 74.26 मिलियन भेड़ों की संख्या दर्ज़ की गई थी। वहीं बकरियों की संख्या 148.88 मिलियन, सुअरों की संख्या 9.06 मिलियन आंकी गई थी। सरकारी स्तर पर पशुओं की रक्षा, उनका इलाज और पालन-पोषण के लिए बहुत सारी योजनाएं चल रही हैं। परंतु ग्रामीण किसान इन योजनाओं से पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में जनकल्याणकारी योजनाओं की व्यापक स्तर पर अनभिज्ञता
‘पशु संजीवनी कार्यक्रम’ के तहत मार्च माह से ही पशुओं की टैगिंग की जा रही है। टैगिंग एक यूनिक पहचान है, जिसके ज़रिये पशुबीमा, टीकाकरण, कृमिनाशक दवा और इलाज की सुविधाएं दी जाती हैं। इसके बावजूद अभी तक सरकार की पहुंच इन बाढ़ प्रभावित इलाकों में नहीं हैं। इसके फलस्वरूप पशुओं की सुरक्षा के साथ-साथ पशुपालकों की आर्थिक क्षति की पूर्ति भी सुदृढ़ नहीं हो पा रही है। स्थानीय जनप्रतिनिधि सरकारी चूड़ा, मिट्ठा, सतुआ, बिस्कुट लोगों के लिए बंटवाकर खानापूर्ति कर लेते हैं।
लेकिन, पशुओं के लिए इनकी सारी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं। सोहांसी निवासी नीतू कुमारी कहती हैं कि गंगा मइया के जल-प्रलय से सड़क, पुल-पुलिया सब ध्वस्त हो चुके हैं। अधिकांश लोग सगे-संबंधी और इष्ट-मित्रों के घर रह रहे हैं। नाव से राशन-पानी की व्यवस्था के साथ-साथ पशुओं के चारे के लिए भी लोग दूर-दूर तक जाकर किसी प्रकार से बंदोबस्त करने में जुटे हुए हैं। यही करते-करते कुछ महीनों के बाद कार्तिक मास के समय तक जन-जीवन पुनः पटरी पर लौटता है। यह स्थिति प्रत्येक साल की है। बहुत लोगों ने इस समस्या से उबकर गाँव छोड़ने का भी निश्चय कर लिया है।
बाढ़ से सबसे ज़्यादा पशुओं की ही मौत होती है। उन्हें उपयुक्त दाना-साना और चारे नहीं मिलते हैं और वे बीमार हो जाते हैं। लोग अपनी जान बचाने में लगे रहते हैं, जिसके कारण माल-मवेशी उपेक्षा के शिकार हो जाते हैं। पशुओं के इलाज के लिए प्रखंड मुख्यालय से पशु चिकित्सक सालों-साल गाँवों में नज़र तक नहीं आते हैं। ग्रामीण निजी पशु चिकित्सकों को मोटी रकम चुका कर किसी तरह अपने मवेशियों का इलाज कराते हैं।
दरअसल, बाढ़ की समस्या से निजात पाने और लोगों को इससे बचाने के लिए तकरीबन 3800 किमी बनाए गए लंबे तटबंध ने ही लोगों का जीवन तबाह कर दिया है। अगस्त आते-आते बिहार की कोसी, कमला, बागमती, गंडक, गंगा, नारायणी, सोन आदि नदियों का जलस्तर खतरे के निशान से ऊपर जाने लगता है। दूसरी ओर पड़ोसी देश नेपाल में जब बारिश होती है तो इसका सीधा प्रभाव इन नदियों के जलस्तर पर पड़ता है। बाढ़ से बचाव के तमाम उपाय केंद्र और राज्य सरकारें करती रही हैं, मगर तबाही भी उसी रफतार से बढ़ती रही है।
स्थानीय प्रशासन एवं सरकार की अनदेखी आमजनमानस को भारी पड़ रही है
इस संबंध में वयोवृद्ध कांता सिंह कहते हैं कि सावन-भादों मास में बाढ़ की त्रासदी और बढ़ जाती है। पर्याप्त नाव की व्यवस्था बेहद ज़रूरी है। इसको लेकर स्थानीय प्रतिनिधियों को आगाह भी कराया गया है। इसके बावजूद व्यवस्था पूरी नहीं हो सकी है। केंद्र व राज्य सरकार की पशु बीमा योजना और चारा विकास योजना के बारे में किसानों को पता ही नहीं हैं।
यदि किसानों को आर्थिक क्षति से बचाना है तो स्थानीय जनप्रतिनिधियों एवं प्रखंड के अधिकारियों को नियमित टीकाकरण, पशु बीमा, चारा विकास योजना, एजोला की खेती, हाथ से चारा काटने वाली मशीन आदि का लाभ पीड़ित किसानों व पशुपालकों को देना चाहिए। तभी सैकड़ों पशुपालकों की आर्थिक स्थिति मज़बूत की जा सकती है।
बहरहाल, हुक्मरानों की बाट जोहते किसान व पशुपालकों के पास कर्ज लेकर घर-गृहस्थी चलाने की मज़बूरी कायम है। दूसरी ओर मवेशियों के चारे से लेकर उनके रख-रखाव और स्वास्थ्य की देखभाल भी आवश्यक है, जब मवेशी बचेंगे तभी आमदनी भी होगी वरना गाय, भैंस, बकरी, मुर्गी आदि के पालने का काम छोड़ने को बाध्य होना पड़ेगा।
जिसका सीधा प्रभाव महिलाओं और बच्चों के पोषण पर पड़ेगा, जिससे उनकी समुचित देखभाल नहीं हो पाएगी। इसलिए समय रहते हुए पशुपालकों के दुख-दर्द को समझने के लिए स्थानीय नेतृत्व के साथ-साथ अधिकारियों को भी आगे आना होगा, तभी गाँव के आम जनमानस और बेजुबान पशुओं की ज़िन्दगी बचेगी।
नोट- यह आलेख मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार से अमृतांज इंदीवर ने चरखा फीचर के लिए लिखा है।