हाल ही में आए एक विवादास्पद फैसले में अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट से निवेदन करते हुए कहा कि बंबई हाई कोर्ट के इस फैसले को बदलने की ज़रूरत है, जिसमें कहा गया है कि अगर पीड़ित और आरोपी के बीच सीधा स्किन-टू-स्किन टच नहीं हुआ है तो पॉक्सो एक्ट के तहत उसे अपराध की श्रेणी में नहीं माना जाएगा।
क्या स्किन-टू-स्किन टच ज़रूरी है?
मुंबई हाई कोर्ट ने अपने एक वाद में एक अपराधी को पॉक्सो एक्ट के तहत सज़ा से बरी कर दिया था, क्योंकि उस व्यक्ति और पीड़िता के बीच स्किन-टू-स्किन टच का मामला नहीं था। यह कहने का मतलब होगा कि कोई व्यक्ति जिसने ग्लव्स पहन रखे हों तो उसके द्वारा किया गया कृत्य अपराध की श्रेणी में नहीं आएगा।
अगर किसी आरोपी और पीड़ित बच्चे के बीच कोई सीधा स्किन-टू-स्किन संपर्क नहीं हुआ है तो पॉक्सो कानून के तहत यौन उत्पीड़न का कोई अपराध नहीं माना जाएगा। ऐसे में इस बात पर गौर किया जाना लाज़िमी है कि यह कानून आगे चलकर हमारे समाज एवं आम जनमानस के लिए कितना खतरनाक और अपमानजनक सिद्ध हो सकता है और इसके साथ ही ऐसी घटनाओं से जुड़े कई पीड़ित मासूम बच्चे न्याय से वंचित रह जाएंगे।
आखिर किन बेड़ियों से जकड़ा है समाज?
भारतीय समाज के पुरुष प्रधान होने की वजह से देश में महिलाओं को बहुत अत्याचारों का सामना करना पड़ता है। देश के अखबारों एवं न्यूज़ चैनलों में आए दिन यौन उत्पीड़न से जुड़े अपराधों की खबरें आती रहती हैं। हालांकि, पहले की तुलना में वर्तमान में कानून महिलाओं के साथ अब अधिक मज़बूती से उनके साथ खड़ा है लेकिन अधिकतर मामलों में परिवार वाले ही अपने कदम पीछे खींच लेते हैं।
यह बहुत ही शर्मनाक बात है परंतु यह उतनी ही सत्य भी है कि अधिकांश मामलों में हमारे अपने करीबी ही शामिल होते हैं। इसके कारण समाज में अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के कारणवश ज़्यादातर मामले दर्ज़ ही नहीं हो पाते हैं।
समाज में अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के सवाल के कारण अपराधियों के खिलाफ मामला दर्ज़ नहीं होने से अपराधियों को अपराध करने के लिए प्रोत्साहन मिलता है। आमतौर पर हम यौनिक एवं शारीरिक शोषण को ही शोषण समझते हैं जबकि मानसिक और भावनात्मक स्तर पर होने वाले शोषण भी बच्चों के मानसिक विकास पर लंबे समय तक प्रभाव डालते हैं।
बच्चे ना तो मज़बूती से इसका सामना कर पाते हैं और ना ही उनमें यौन चेतना का विकास होता है, जिससे वे अपराधियों के लिए सॉफ्ट टार्गेट बन जाते हैं। ऐसे पीड़ित बच्चों में लड़के और लड़कियां दोनो ही निशाना बनते हैं लेकिन आम तौर पर लड़कियों की संख्या अधिक होती है। बेशक बाल यौन शोषण एक जघन्य अपराध है। इससे बच्चों के बाल मन में एक अनजाना सा डर बैठ जाता है और इससे उनका कॉन्फिडेंस लेवल भी बहुत कमज़ोर हो जाता है।
वे बुरे सपने, आत्मग्लानि और डिप्रेशन जैसे मनोविकारों से ग्रस्त हो जाते हैं। कभी-कभी यही मानसिक तनाव बच्चों के अंतर्मन में इतनी गहराई से समा जाता है कि उनके साथ हुआ वह दुर्व्यवहार कुंठा बनकर समय के साथ धीरे-धीरे उन्हें भी दूसरों के साथ अपराध करने के लिए प्रेरित करता है।
देश की प्रगति चाहिए तो बदलना होगा कानून
जिस तरह साल 2000 के इंडियन जुवेनाइल लॉ के तहत, निर्भया केस में आरोपियों को सख्त सज़ा नहीं मिलने पर साल 2015 में उसे बदलकर नई जुवेनाइल जस्टिस (चिल्ड्रेन केयर एंड प्रोटेक्शन) बिल को लाया गया था। उसी तरह पॉक्सो एक्ट में भी ज़ल्द-से-ज़ल्द बदलाव करना बहुत ज़रूरी है वरना यह अपराधियों को एक और निर्भया जैसी जघन्य घटना को अंजाम देने के लिए आमंत्रण देने जैसा होगा।
पॉक्सो एक्ट के तहत, किसी नाबालिग लड़की के साथ जबरन शारीरिक संबंध बनाना ही कठोर अपराध की श्रेणी में नहीं है बल्कि इस कानून के अंतर्गत यदि किसी बच्चे के किसी भी अंग को टच किया जाता है तो वह रेप की परिभाषा में ही गिना जाएगा।
बीते वक्त अटॉर्नी जनरल और राष्ट्रीय महिला आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया है कि अगर कोई आरोपी ग्लव्स पहन कर भी बच्चे को छुए तो उसे भी पॉक्सो एक्ट के तहत कठोर सज़ा मिलनी चाहिए। अगर आज सही समय रहते हुए अगर हमने इस जघन्य अपराध के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाने में देर कर दी तो ना जाने कल तक कितने नाबालिग और मासूम बच्चे अपराधियों के अपराधों का शिकार हो चुके होंगे।
जानें क्या है पॉक्सो एक्ट?
- वर्ष 2012 में यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण करने संबंधी अधिनियम के तहत, इनकी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए बच्चों को यौन अपराध, यौन उत्पीड़न, पोर्नोग्राफी जैसे समस्याओं से बचाने के लिए लागू किया गया था।
- सबसे खास बात यह है कि इस एक्ट में जेंडर डिस्क्रिमिनेशन नहीं है।
- सजा के प्रावधान भी काफी सख्त हैं। इस कानून के तहत दोषी व्यक्ति को उम्र कैद तक की भी सज़ा सुनाई जा सकती है।
- इस एक्ट का उद्देश्य यौन अपराधों के विभिन्न पहलुओं और दंड के संदर्भ में स्पष्टता स्थापित करना है।