मेरा मैट्रिक के रिजल्ट वाले दिन साइबर कैफे से घर का रास्ता लंबा हो आया था, रास्ते में आने वाली सारी दुकानें कुछ ज़्यादा बड़ी नज़र आने लगी थीं। हर चलते राहगीर को ठहर कर देखने का समय हमारे पास था, ताकि किसी परिचित को दूर से आता देख बगल की किसी गली में दुबका जा सके।
अन्य स्टूडेंट्स की तरह हमारा परीक्षा परिणाम भी कागज पर छप चुका था। हम अपने परीक्षा परिणाम को कागज की तह में दबाए चल रहे थे। मिठाई की दुकान के बाहर छन रही जलेबियां और दुकानों पर लगी भीड़ हमें मुंह बनाकर चिढ़ा रही थी। मानो जलेबियां कह रही हो! अब हम तुम्हारे सामर्थ्य के बाहर की चीज़ हैं।
आज जेब में रखा पैसा भी हमें काटने को दौड़ रहा था। तभी जेब से सिक्कों के खनकने की आवाज़ आई, शायद वह कहना चाह रहे हों, हे अभागों! तुम्हारी संगत का असर हम पर भी होने लगा है। अपनी हरकतें सुधार लो नहीं तो हम अपनी संगत सुधार लेंगे। कोई और दिन होता तो पाव भर जलेबी घर ला सकता था, लेकिन मुझे लगा कि आज जलेबी की महक को घर तक समेटना सम्भव नहीं होगा। घर क्या मोहल्ले भर में जलेबी की चर्चा आग की तरह फैल जाएगी।
वैसे, ही परीक्षा परिणाम का दिन निकट आते ही आस-पड़ोस के लोगों की इंद्रियां जागृत होने लगती हैं। किसी-किसी की तो छठी इंद्री तक भी जाग उठती है। ऐसे में रक्षा सौदे में भारी गड़बड़ी की तरह, हम अपने रिजल्ट को दबा नहीं सकते थे और ना ही हम प्रधानमंत्री थे, जिसकी जवाबदेही खत्म कर दी गई हो।
मुझे पता नहीं रिजल्ट और जलेबी का क्या कनेक्शन है? मुझे रिजल्ट और मिठाइयों का भी कोई कनेक्शन समझ नहीं आया। अच्छे परिणामों के साथ मिठाइयों को जोड़ने का चलन ज़रूर, किसी बेहद असफल आदमी ने चलाया होगा। सिर्फ असफलता से बात नहीं बनी होगी। मेरा मानना है कि अपनी असफलता को छुपाने के लिए मिठाई बांटने से पहले उसने अपनी लज्ज़ा को त्याग दिया होगा।
आप पूछ सकते हैं कि यह बात, मैं इतने दावे के साथ कैसे कह रहा हूं? दरअसल, मैंने अभी-अभी शहर भर में धन्यवाद का पोस्टर लगा देखा है। शहर में लगे पोस्टर में एक ही आदमी का चेहरा है और उसी की सफलता की कहानी अगल-अलग तरीके से लिखी गई है जैसे अलग-अलग कोचिंग के बैनर में एक ही आदमी आईआईटी ऑल इंडिया रैंक में पहला स्थान ले आता है लेकिन उस बंदे ने वास्तव में किस संस्थान से तैयारी की? यह भेद कभी खुल नहीं पाता।
तभी मैंने अपनी गाड़ी का ब्रेक दबाया, मुझे याद आया कि दो महीने पहले, मैं इसी शहर में दवाओं के लिए दौड़ रहा था। मैं ही नहीं पूरा शहर दौड़ रहा था। शहर ही नहीं सारा देश दवाओं के मैराथन में भाग रहा था। यह उसी शहर की बात है, जहां महीने भर पहले मृतकों को जलाने और दफनाने के लिए ज़मीन कम पड़ रही थी। चिता ठंडी होने से पहले ही सफलता की पोस्टर तन कर खड़ी हो गई।
मेरे दूसरे डिवीजन से पास होने की ग्लानि कुर्सी पर बैठे आदमी की शर्म से कुछ ज़्यादा ही रही होगी। तभी तो मैं उस दिन जलेबी के दुकान पर मुड़ने की बजाय किसी परिचित को अपने समीप आता देखकर बगल की गली में दुबक गया था।