हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने एक बात कही कि विंड टरबाइन से पानी निकाला जा सकता है। प्रधानमंत्री के इस बयान के बाहर आते ही मीडिया जगत में बवाल मच गया। देश के तमाम लोग अपनी-अपनी बुद्धि के हिसाब से उनके कथन को सही या गलत साबित करने लग गए। एक शोर के बाद यह मामला धीरे-धीरे ठंडा हो गया। अब पता नहीं कि प्रधानमंत्री साहब देश के आम जनमानस को अपनी बात अच्छे से समझा नहीं पाए या लोगों ने ही उनकी बात को समझना नहीं चाहा लेकिन यह मुमकिन है।
इस कड़ी में एक नज़र देश के हालातों पर डालें तो हमें पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन से बारिश के पैटर्न में हुए बदलाव का असर अब देश में नज़र आने लगा है। इन आंकड़ों के मुताबिक, पिछले 200 साल में दक्षिणी और पूर्वी महाराष्ट्र, उत्तरी कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, गुजरात, तेलंगाना और राजस्थान सहित देश के अनेक राज्यों ने 26 से ज़्यादा भयंकर सूखे (अकाल) झेले हैं।
इसी कड़ी में टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन से आए सूखे (अकाल) से देश की जीडीपी में 2 से 5% तक का नुकसान हुआ है। इसी के साथ-साथ 2019 में छपे बिज़नेस इनसाइडर के हवाले से छपी एक खबर के मुताबिक, देश की 42% भूमि पर सूखे (अकाल) का खतरा मंडरा रहा है, जिसका देश के आम जनमानस पर व्यापक असर पड़ेगा।
यूं तो सूखे (अकाल) और जल-संरक्षण पर बहुत कुछ लिखा-बोला गया है लेकिन जब भी इस मुद्दे पर बात होती है तो सरकार द्वारा जल-संरक्षण के लिए आम जनमानस को दिए गए सुझाव घर पर पानी बचाओ के संदेश से लेकर रेनवाटर हार्वेस्टिंग तक ही सीमित रहते हैं लेकिन जो सेक्टर सबसे ज़्यादा पानी चूसता है, उसे सरकार द्वारा हमेशा नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है।
जीवाश्म ईंधन चूसते हैं सबसे ज़्यादा पानी
पानी के व्यापक उपयोग का एक क्षेत्र, जिसे जलवायु परिवर्तन पर होने वाली डिबेट (वाद-विवाद) में लगभग हमेशा अनदेखा कर दिया जाता है, वह क्षेत्र है ऊर्जा। विशेषज्ञों के मुताबिक, अगर हम अपनी जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम कर पाएं तो इससे ना केवल जलवायु परिवर्तन का दबाव घटेगा बल्कि भविष्य के सूखे (अकाल) को रोकने में भी मदद मिलेगी। असल में मसला यह है कि पारंपरिक बिजली संयंत्रों में ऊर्जा बनाने के लिए बहुत मात्रा में पानी का इस्तेमाल किया जाता है, जो इस प्रक्रिया के अंत में भाप बनकर समाप्त हो जाता है।
इस मसले को अच्छे से समझने के लिए अगर हम कोयला संयंत्र की बात करें, जो अधिकांश अन्य भाप-उत्पादक बिजली-उत्पादक संयंत्रों की तरह, आमतौर पर अपने टर्बाइनों को चालू करने के लिए भाप का उपयोग करता है और यह पानी आस-पास के जल निकायों जैसे झीलों, नदियों से लिया जाता है। एक रिपोर्ट के आंकड़ों के मुताबिक, औसतन एक विशिष्ट कोयला संयंत्र प्रति वर्ष 70 से 180 बिलियन गैलन पानी निकालता है और इसकी खपत करता है। बारिश के अभाव में इस वजह से पानी की कमी रहती है, जो फसल की खराबी, किसानों की आत्महत्या और बेज़ुबान मवेशियों की मौत की एक बड़ी वजह बनती है।
लेकिन अब सैकड़ों बेगुनाहों को मरने और बर्बाद होने से बचाया जा सकता है, क्योंकि सौभाग्य से अब हमारे पास जल सरंक्षण के विकल्प हैं। इस कड़ी में अमेरिका ने समस्त विश्व के सामने एक नज़ीर पेश की है, जिसको दोहराते हुए हम भी ऊर्जा बनाने के साथ-साथ पानी भी बचा सकते हैं। यह बात 2014 की है, जब कैलिफोर्निया के रिकॉर्ड सूखे को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए, पवन ऊर्जा ने राज्य के जीवाश्मों से निकाले गए बिजली संयंत्रों में पानी की खपत को विस्थापित करके कैलिफोर्निया में 2.5 बिलियन गैलन पानी बचाया।
इस कड़ी में अमेरिकी पवन ऊर्जा संघ (AWEA) के अनुसार, पवन ऊर्जा की वार्षिक जल बचत राज्य में प्रति व्यक्ति लगभग 65 गैलन या 20 बिलियन बोतल पानी के बराबर है। AWEA के अनुसार, पवन ऊर्जा के सबसे अनदेखे लाभों में से एक यह है कि इससे बिजली पैदा करने के लिए वस्तुतः पानी की आवश्यकता नहीं होती है, जबकि लगभग सभी अन्य बिजली स्रोतों से पानी भारी मात्रा में वाष्पित हो जाता है।
इस प्रक्रिया से एक तरफ बिना पानी बर्बाद किए ऊर्जा बनती है। वहीं संयंत्रों के मुकाबले बेहद कम कार्बन उत्सर्जन कर जलवायु परिवर्तन से निपटने में भी काफी मददगार साबित होती है। इतनी खूबियों के बावजूद इस प्रक्रिया के भी आलोचक हैं, जिनका मानना है कि विंड एनर्जी विश्वसनीय और अप्रत्याशित है।
हालांकि, यहां भी हकीकत कुछ अलग है जैसा कि AWEA बताता है कि पवन ऊर्जा जलविद्युत जनरेटर को अपने जल संसाधनों को तब तक संरक्षित करने की अनुमति देती है, जब तक कि उनकी आवश्यकता ना हो, केवल उच्च मांग के समय उनका उपयोग करके इस प्रकार ग्रिड विश्वसनीयता में भी अपना योगदान देती है, जिससे ऊर्जा संरक्षण के साथ-साथ पानी की भी बचत होती है।