हाल ही में टोक्यो ओलंपिक पूरा हुआ है, जिसमें भारत ने जेवेलिन खेल में गोल्ड मेडल जीतकर इतिहास के एक पन्ने को स्वर्णिम कर दिया है। वहीं पूरे देश में हॉकी से गोल्फ जैसे कठिन खेलों में खेलने वाली महिला खिलाड़ियों पर बात हो रही है। खैर, मेरा इरादा टोक्यो ओलंपिक पर बहस करने का नहीं है, यूं भी अब तक खिलाड़ियों पर बहुत लिखा और पढा जा चुका है। अब हम असल मुद्दे पर आते हैं यानी आप और मुझ पर या साफ शब्दों में कहूं तो युवाओं पर खासकर एक आम लड़की पर।
एक ओर ओलम्पिक में मेडल जीतने वाले खिलाडियों की प्रशंसा में अखबारों की सुर्खियों से लेकर नेता, अभिनेताओं के ट्वीट ट्विटर पर पटे पड़े हैं, जिसमें देश की बेटियों पर गर्व किया जा रहा है और उनके ज़मीनी संघर्ष को गर्व के साथ पेश किया जा रहा है।
मगर गर्व करने वाले लोग ये भूल रहे हैं कि यदि एक लड़की को अपने पैशन को फॉलो करने के लिए संघर्ष करना पड़ा है, तब उसकी कहानी, उसके संघर्ष को नहीं बल्कि एक विकासशील देश के तौर पर हमारे फेलियर को बताती है। यूं भी हम कई तरह के भारत में बंटे हुए हैं, जिसमें रूरल/अर्बन (शहरी/ग्रामीण) का सबसे बड़ा अंतर है।
ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों के लिए आधारभूत सुविधाओं का अभाव
जहां एक तरफ शहरी क्षेत्र में, लड़कियों को पढ़ने-लिखने की आज़ादी होती है, इसके साथ ही सुविधाओं के मिलने पर उनका संघर्ष कम हो जाता है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में ये तस्वीर एक दम उलट है। यहां लड़कियों को हाई स्कूल तक की पढ़ाई के लिए एक लंबा संघर्ष करना पड़ता है। गाँवों में स्कूलों का प्रतिशत इतना कम है कि लड़कियों का पढ़ने के लिए अपने घर से कई किमी दूर जाना उनकी एक बहुत बड़ी मज़बूरी है और वो जैसे-तैसे उसे पास कर भी लें, लेकिन हायर एजुकेशन के लिए उन्हें कई तरह की विषम चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
उनके घर से निकलने की बात पर सबसे पहला सवाल उनकी सुरक्षा का खड़ा होता है, जिसके लिए सबसे पहले उन्हें एक साथ और सुरक्षित परिवेश की ज़रूरत होती है और उनकी शिक्षा, सपनों की गाड़ी यहीं पर अटकने लगती है, क्योंकि यदि लड़कियों को मज़बूत साथ या साथी सहपाठी ना मिले तब उनका अपने घर से अकेले निकलना लगभग असंभव सा हो जाता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों के लिए उचित मार्गदर्शन की नितांत कमी
यूं भी हमारा समाज बल्कि हम खुद भी कब एक लड़की के अकेले घर से निकलने पर सहज़ हुए हैं? वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में कौशल दूसरी भाषा में कहें तो अपने पैशन को फॉलो करना इसलिए भी कठिन है, क्योंकि वहां आपको उन विषयों पर ट्रेनिंग तो छोड़िए जानकारी देने तक के लिए कोई नहीं होता है, जो उनको बता सके कि किस फील्ड में जाने के लिए किस तरह आगे बढ़ना चाहिए और इसलिए अधिकांश युवा भटकते ही रहते हैं, वे तलाश ही नहीं पाते हैं कि आखिरकार उन्हें क्या चाहिए?
इन सब के बाद, यदि पेरेंटस (माता-पिता) अपनी बेटियों को बाहर भेजना भी चाहें तब आर्थिक संकट उनके परिवार के लिए सबसे बड़ी समस्या बनकर खड़ा हो जाता है। यह विचारणीय है, जब बेसिक शिक्षा जो कि हर किसी का अधिकार है, वे उसके लिए पैसे नहीं जुटा पाते हैं तब किसी पैशन को पूरा करने का संघर्ष आप समझ सकते हैं और सिर्फ इन्हीं अभावों के चलते ना जाने कितनी ही प्रतिभावान लड़कियां चौके-चूल्हे की भेंट चढ़ जाती हैं।
यूं भी, किसी भी आम परिवार में पैसे के अभाव का ज़्यादा असर लड़कियों पर ही पड़ता है और इसलिए उनका संघर्ष अनवरत चलता रहता है। मगर ऐसा नहीं है कि हम इस संघर्ष को कम नहीं कर सकते हैं, बिल्कुल कर सकते हैं।
ग्रामीण स्तर पर या प्रखंड स्तर पर लड़कियों के लिए प्रोफेशनल कोर्सेज होने चाहिए
यदि सरकारें, स्थानीय निकाय इन कोर्सेज को ग्रामीण स्तर पर या प्रखंड स्तर पर शुरू करवाने की कोशिश करें तो ग्रामीण क्षेत्रों की तस्वीर कुछ और ही हो सकती है, क्योंकि अपने पैशन को लेकर शहरों तक, जो दो-चार प्रतिशत लड़कियां पहुंचती हैं। यदि उन्हें शुरुआत में ही सही प्रशिक्षण और संसाधन मिलें तो वे चार से चालीस और फिर चार सौ भी हो सकती हैं। यदि उन्हें ग्रामीण स्तर पर ही ट्रेनिंग मिल जाए तो सबसे पहले वे यह तय कर पाएंगी कि उन्हें उस पैशन के साथ चलना है या नहीं!
ऐसे में लड़कियां अपने गृहनगर में ऐसे संस्थान होने से अपने परिवार के पैसे की फिजूलखर्ची को बचाएंगी और इसके साथ ही वे एक-दूसरे को अभिप्रेरित भी कर पाएंगी, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में भी समस्याएं बहुत हैं। पहले तो, वहां स्कूलों की संख्या ही इतनी कम है कि उन्हें कई किमी तक साइकिल या किसी दूसरे तरह के वाहनों से जाना पड़ता है फिर अपने पैशन को फॉलो करने के लिए समय और संसाधन दोनों ही बहुत ज़रूरी हैं, जो उन्हें समय से नहीं मिल पाते हैं।
जैसे उदाहरण के तौर पर, मैं अपनी ही बात करूं तब मैंने हायर सेकंडरी से हायर एजुकेशन तक, सब कुछ अपने शहर से दूर जाकर किया है और इस आवाजाही में, मैं कभी खुद के लिए एक प्लेटफार्म तलाश ही नहीं पाई या कहूं खुद को समझा ही नहीं पाई कि लिखना, जो कि मेरा हुनर है कभी मेरा पैशन, मेरी पहचान भी हो सकता है।
मैं ऐसी कितनी ही कहानियां लिख सकती हूं, जहां मैं एक अच्छे क्रिकेटर, बास्केटबॉल प्लेयर से फाइन आर्ट्स की समझ रखने वाले लोगों को जानती हूं, जो प्रशिक्षण के अभाव में अब खुद भी भूल चुके हैं कि कभी वे भी ऐसा कुछ जानते थे। मैं यह नहीं कह रही कि हमें इन संघर्ष की कहानियों पर गर्व नहीं करना चाहिए। हमें अपनी आने वाली पीढ़ी पर गर्व करने का पूरा अधिकार है लेकिन इसके साथ ही हमें उनके लिए एक ऐसा माहौल तैयार करना होगा, जिससे उनके संघर्ष की कहानियों से हर व्यक्ति रूबरू हो सके।
यदि ग्रामीण क्षेत्रों या प्रखंड स्तरों पर ऐसे स्कूल, ट्रेनिंग सेंटर खोले जाएं, जो राष्ट्रीय स्तर के भले ही ना हों मगर कम-से-कम ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले युवाओं को बेसिक ट्रेनिंग दे सकें, जिससे आने वाले युवाओं का आगे का रास्ता तय हो सके और आप देखना जिस दिन यह सम्भव होगा, उस दिन देश का युवा सबसे ज़्यादा खुश, ज़्यादा कल्पनाशील और कम बेरोजगार होगा।