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“आज़ादी के 74 साल बाद भी ग्रामीण क्षेत्रों में संविधान को चुनौती देती सामाजिक व्यवस्थाएं”

"आज़ादी के 74 साल बाद भी ग्रामीण क्षेत्रों में संविधान को चुनौती देती सामाजिक व्यवस्थाएं"

संविधान की प्रस्तावना को तार-तार करने वाले इस लेख का चश्मदीद गवाह मैं खुद हूं। जातिगत मानसिकता से प्रताड़ित लोग आज भी गुलामी की जंजीरों से जकड़े हुए हैं, “हज़ारों सालों से आज तक ऐसा कोई सूर्य उदय नहीं हुआ, जो उनके गुलामी में बिताए हुए जीवन को नया सवेरा दे सके।”

हमारा देश आज़ाद हुआ, सरकारें बनीं और देश एवं आम जनमानस को संचालित करने के लिए संविधान लिखा गया। हमारे देश के संविधान की प्रस्तावना भी बेहद खूबसूरत ढंग से लिखी गई परंतु इन सबके बावजूद, आज भी कई ग्रामीण पिछड़े इलाकों में सामाजिक व्यवस्थाएं, संवैधानिक प्रावधानों एवं अधिकारों से ऊपर हैं।

आज़ादी के 74 सालों बाद भी समाज में प्राचीन प्रथाएं रीति-रिवाज़ों के नाम से प्रचलित हैं

यह कहानी है उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के महोबा ज़िले की, इस ज़िले के महोबकंठ थाना क्षेत्र के अंतर्गत एक गाँव का दलित लड़का अपनी शादी में अपनी दूल्हे निकासी की रस्म को लेकर काफी डरा हुआ था। ऐसे कई ग्रामीण क्षेत्र हैं, जहां आज भी सामाजिक पुरानी रूढ़ियों का बोलबाला चरम पर है और तथाकथित ऊंची जाति के लोग नीची जाति के लोगों पर अपनी व्यवस्थाएं थोपते हैं एवं हज़ारों वर्षों से निचली जाति का दंश झेल रहे लोगों के पास ना पहले कोई रास्ता था और अब डर के कारण उन्हें कोई रास्ता दिखाई देता है।

इस गाँव में एक परंपरा प्रचलित है कि कोई भी दलित वर्ग से सम्बन्ध रखने वाला अपने शादी समारोह में कभी भी दूल्हे निकासी की रस्म के दौरान घोड़े पर या वाहन में किसी भी प्रकार की निकासी नहीं करेगा। इस परंपरा के रूप में प्रचलित इस सामाजिक रूढ़ि को बदलने के लिए एक एक दलित युवक आगे आया, जो चाहता था कि समाज की सामाजिक व्यवस्थाएं, देश के संवैधानिक प्रावधानों एवं अधिकारों से ऊपर ना हों और पूरे रीति-रिवाज के साथ आमजन की तरह मैं भी अपनी दूल्हा निकासी घोड़े या किसी वाहन में बैठकर कर सकूं। उसने इस अमानवीय परंपरा के खिलाफ बगावत शुरू की, गाँव के ही कुछ लोगों ने या उसके मित्रों ने सामाजिक व्यवस्थाएं ना तोड़ने को कहा जिससे लड़का भी घबराया, लेकिन युवक के मन में इस पुरानी व्यवस्था को खत्म करने का हठ उत्पन्न हो चुका था।

दलित युवक ने अपने अधिकारों के प्रत्यावर्तन के लिए सोशल मीडिया पर लगाई गुहार

इस पूरे माहौल को समझकर और हज़ारों सालों से अपने वर्ग द्वारा झेल रहे दंश को ध्यान में रखकर दलित लड़के के माता- पिता, उस समय किसी-ना-किसी अनहोनी को दूर से देख पा रहे थे, क्योंकि बुजुर्ग लोगों ने उच्च वर्ग द्वारा किए गए अत्याचारों को बखूबी ढंग से देखा और सहन भी किया है। लड़के ने एक फेसबुक पोस्ट के माध्यम से मदद की गुहार लगाई कि “क्या कोई सामाजिक संगठन या राजनीतिक पार्टी है? जो एक दलित को घोड़ी पर चढ़ने का अधिकार दिला सकती है।”

युवक द्वारा सोशल मीडिया पर साझा किया गया पोस्ट

समाज में आज भी जाति एक अहम महत्वपूर्ण प्रश्न

इस घटना की शुरुआत में यह पोस्ट सब लोगों को बेबुनियाद लगी, क्योंकि आज़ादी के इन 74 सालों के बाद संवैधानिक व्यवस्थाओं को चुनौती देती यह पोस्ट और उस गाँव के युवक की समस्या बेहद अलग थी। मैंने भी उसकी इस पोस्ट को शुरुआत में इस समस्या को नकारते हुए नज़रअंदाज़ किया, परंतु जब एक-दो दिन गुज़र जाने के बाद मैंने इस की सत्यता जानने की कोशिश की तो सच निकल कर सामने आया कि गाँव में आज भी लोग पुरानी अमानवीय परम्पराओं के रूप में प्रचलित सामाजिक व्यवस्थाओं को वरीयता देना चाहते थे और ऐसी मानसिकता के लोग लोग संविधान द्वारा दिए गए न्यायपालिका को भी चुनौती देने का कार्य करते हैं।

उसकी स्थिति को समझने के बाद तमाम राजनैतिक पार्टियों का युवक को साथ मिलने लगा और उसी दौरान मैंने भी उस युवक की शादी को पूर्ण व्यवस्थित ढंग से कराने का निर्णय लिया। गाँव का जायजा लेने पर तो गाँव के लोग युवक की शादी में सहयोग करने के लिए बोल रहे थे, परंतु हकीकत में उस युवक एवं उसके परिवारजनों को कुछ अराजक लोगों ने जान से मारने की धमकी भी दी थी, जिससे दलित समाज के लोग इस पूरे प्रकरण को देखकर बेहद भयभीत थे।

तथाकथित ऊंची और नीचे समाज के लोगों के बीच का फासला इन हज़ारों सालों में इतना बड़ा हो गया कि इन 74 सालों में आए सामाजिक बदलावों के सामने भी विशालकाय प्रतीत होता है।

इस मुद्दे पर समाज दो भागों में बंट गया

इस प्रकरण से महोबा ज़िले में हर व्यवस्था दो भागों में बंट गई, पूरी घटना को कवर कर रहे पत्रकार भी जाति के हिसाब से अपना पक्ष रखने लगे। इस घटना को जो भी पत्रकार, वकील, पुलिस एवं अधिकारी सुनता था, अपनी जातिगत मानसिकता के अनुसार उस दौरान दो भागों में बंट जाता था। एक पक्ष, जो चाहता था कि युवक की शादी अच्छे से हो और दूसरा पक्ष (उच्च वर्ग), जो नहीं चाहता था कि सामाजिक व्यवस्थाओं के रीति-रिवाजों को बदला जाए और दलित वर्ग का कोई भी नागरिक किसी भी वाहन या घोड़े पर बैठकर अपनी दूल्हे निकासी कर सके।

यह बात इतनी बढ़ी कि राष्ट्रीय पार्टियों के नेताओं ने भी सहयोग के लिए अपने बयान दिए और इस पूरे मामले को शान्त करने और संवैधानिक व्यवस्था का अच्छे से पालन हो, उसके लिए भारत सरकार की अनुसूचित जाति आयोग की सदस्या को पीड़ित युवक के घर आना पड़ा। 

नोट- उच्च और निम्न वर्ग या जाति का अर्थ केवल अराजक लोगो की सोच पर आधारित लिखा गया है ।

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