आज के दौर में राजनीति, समाज और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में लगातार गाँधी के विचारों की प्रासंगिकता पर चर्चा की जाती है। यह चर्चाएं ‘सत्य के प्रयोग’, ‘अहिंसा की कसौटी’ और आदर्श को केन्द्र में रखकर की जाती है। इन्हीं कसौटियों के आधार पर यह लेख कार्यस्थल पर गाँधी के विचारों की प्रासंगिकता पर आधारित है।
हम में से अधिकांश मध्यमवर्गीय लोगों के दिन का एक बड़ा हिस्सा अपने-अपने कार्यस्थल पर गुज़रता है। इसका प्रभाव हमारे जीवन पर इतना गहरा होता है कि कार्यस्थल की पहचान और परिस्थितियों के आधार पर हम खुद को परिभाषित करने लगते हैं। आधुनिक समय में हमारी जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषा की अस्मिता पर कार्यस्थल की अस्मिता का सापेक्षिक प्रभाव बढ़ चुका है।
कार्यस्थल पर शोषण
यदि आप कार्यस्थल की सामान्य व्यवस्थाओं पर नज़र डालें तो आप पाएंगे कि आजकल के कार्यस्थलों ने नौकरशाही के ढांचे को अपना लिया है। इनके अपने व्यवस्था और तंत्र होते हैं जो एक व्यक्ति को नियमों को कार्यरूप देने वाली मशीन में बदल देते हैं। इस स्थापना को आप खुद के जीवन में देख सकते हैं।
कार्यस्थल पर हमारी भूमिकाएं और दायित्व ऐसे होते हैं जिनमें व्यक्ति के रूप में हमारे आपसी रिश्ते और संवेदनाएं गौण होते हैं और केवल नियमों का क्रियान्वयन प्रमुख होता है। इसमें अधिकारी-कर्मचारी की व्यवस्था होती है। लिखित और मौखिक पदानुक्रम होते हैं जिनमें दायित्वों का वितरण होता है और विशेषज्ञता का ठप्पा होता है। औपचारिक संवाद और संचार की पुख्ता व्यवस्था होती है। इस व्यवस्था में फाइल या उस जैसी अन्य कोई सरकारी वस्तु आगे-पीछे करती रहती है। इसमें कौन, किससे कब, क्या और कैसे कहेगा इसके बारे में लिखित और मौखिक नियम होते हैं।
यह पूरी व्यवस्था अपने भागीदारों पर तनाव और दबाव पैदा करती है। इसमें आपसी प्रतियोगिता और उठा-पटक को भी देखा जा सकता है। बचने-बचाने, फंसने-फंसाने के इस खेल में सकारात्मक और सृजनात्मक ऊर्जा का बड़ा हिस्सा खर्च होता है और संगठन की गति भी शिथिल हो जाती है। अंततः हम कुछ करने की स्वाभाविक आकांक्षा की बजाए व्यवस्था की कैद को अपनी नियति मान लेते हैं।
शोषण का प्रतिकार करने के लिए क्या कहता है गाँधी-मार्ग?
व्यवस्था के इस मकड़जाल में गाँधी के विचार और विधि एक औेज़ार है जो हमें हमारी भूमिकाओं के सापेक्ष संतुष्टि और सृजन-सुख दे सकते हैं। इस दिशा में गाँधी-मार्ग का पहला मंत्र है कि हर व्यक्ति के अंदर बदलाव की संभावना है। यह बदलाव की संभावना किसी नायक के करिश्मे जैसी नहीं है, जो पलक झपकते ही सब कुछ ठीक कर देगी।
गाँधी-मार्ग, व्यक्ति में यह बोध जगाता है कि वह खुद की और हर आम आदमी की ताकत में विश्वास रखे और सबको साथ लेकर बदलाव को साकार करे। गाँधी-मार्ग पर चलने वाले लोगों को अपनी ताकत पर पूरा भरोसा है। इसी भरोसे के बीज को वे दूसरों में भी बोते हैं। वे केवल राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर सुधार की बात नहीं करते हैं, बल्कि खुद की शुद्धि और बदलाव को सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं।
यदि इस प्रक्रिया को हम भी स्वीकार कर लें तो हम भी आत्म की ताकत और विशिष्टता को स्वीकार करने लगेंगे। हमारे अंदर यह विश्वास पैदा होगा कि सार्थक बदलाव और सृजन का केन्द्र हमारे भीतर ही है। इसके साथ ही ‘अन्य’ से ‘आत्म’ के संबंध को देखने में एकता का भाव पैदा होगा। यह भाव ही सत्य, अहिंसा, शांति और सह-अस्तित्व को प्रत्येक बदलाव की कसौटी के रूप में मान्य करता है। ये मूल्य ही हर व्यक्ति को गाँधी-मार्ग का पथिक बनाते हैं।
जब सत्य, अहिंसा और प्रेम का मार्ग नामुमकिन लगे
यह गाँधी मार्ग कार्यस्थल पर हर रोज़ संभव है। यह चेतना के उस शिखर का प्रतिनिधित्व करता है जहां आप व्यक्तिगत प्रभावों, उपलब्धियों और आवश्यकताओं के परे जाकर अपने कर्त्तव्यों और दायित्वों के निर्वहन को अपना धर्म मान ले। यह रास्ता इतना आसान नहीं है। हमें अपने चारों ओर उत्पीड़न, शोषण, हिंसा, भ्रष्टाचार, और प्रतियोगिता दिख रही है। इसके प्रभाव में यह नामुमकिन सा लगता है कि सत्य, अहिंसा और प्रेम का मार्ग भी कोई मार्ग है।
ऐसी स्थिति में गाँधी का कथन याद कीजिए, “जब मैं निराश होता हूं और मनन करता हूं तो पाता हूं कि इतिहास में अंततः सत्य और प्रेम की विजय होती है।” इस सूत्र को सत्य मान लेने का लाभ यह है कि बदलाव की संभावना और आशावाद बनी रहती है। यह सृजनात्मक बदलाव का आधार है जो आपको आत्म मनन के मार्ग पर ले जाएगा।
गाँधी का दूसरा मंत्र यह है कि सत्य और जीवन एक ही है। इसे मान लेने पर यह भी स्वयं सिद्ध हो जाता है कि व्यक्ति का हित और समाज का हित दो अलग रास्ते नहीं हैं। इस मार्ग पर विचार और क्रिया में विरोधाभास के लिए कोई स्थान नहीं है। जबकि आजकल कार्यस्थल पर विचार और क्रिया में विरोधाभास सबसे बड़ी समस्या है।
इसके कुछ उदाहरण देखिए। सत्ता और अफसरशाही लोकतंत्र के बहाने सहमति के रास्ते पर चलने का ढोंग करते हुए अपने विचार को थोपने का प्रयास करती है। बैठक विवरण में जोड़-तोड़ करके अधिकारियों द्वारा उसे अपने पक्ष में करना इसका एक लोकप्रिय उदाहरण है। क्या इस व्यवहार को स्वीकार कर लेना ठीक है? प्रायः हम सत्ता के साथ संबंध नहीं बिगाड़ने के चक्कर में इस गलत व्यवहार को स्वीकृति दे देते हैं लेकिन यह मत भूलिए कि हमारे मौन रहने से भविष्य में ऐसी घटनाएं बढ़ती जाएंगी।
कैसे दर्ज कराएं सत्ता के साथ अपनी असहमति?
यदि आप अपनी असहमति दर्ज किए बिना इसे व्यवस्था की मजबूरी मानकर स्वीकार कर लेते हैं तो यह आपकी स्वतंत्र चेतना का दमन होगा। जब आप इनके विचारों की खिलाफत करेंगे तो वे कानून की व्याख्या द्वारा अपने वर्चस्व को भावी खतरे दिखाकर आपको डराएंगे। चूंकि शोषक वर्ग स्वाभवतः कायर होता है इसलिए वह अपने पद और स्थान को सुरक्षित रखने के लिए किसी भी तरह के दायित्व से बचना चाहता है। वह खुद को दायित्व से मुक्त करते हुए अपने मातहत काम करने वाले कर्मचारियों को फंसाना चाहता है।
ऐसी स्थिति में हमें कभी भी अपने धर्म या कर्म के आत्म स्वीकृत मार्ग से हटना नहीं चाहिए। हमें बड़ी स्पष्टता के साथ सत्य का पक्ष लेते हुए अपनी असहमति दर्ज करानी चाहिए। आपके इस व्यवहार पर नौकरशाही ऐसा नाटक रचेगी जैसे मानो वही सत्यवादी है और बाकि सभी असत्य के रास्ते पर चल रहे हैं। वे कागज़ी दांव पेंच लगा कर अन्य लोगों को असत्य के रास्ते पर धकेलने का प्रयास करेंगे और अपनी ज़िम्मेदारियों को दूसरों पर थोपेंगे। याद रखिए ऐसी व्यवस्था के आगे घुटने टेकने से व्यक्ति कमज़ोर होता जाता है।
इस स्थिति में गाँधी के विचारों के दो निहितार्थ हैं। पहला, “मैं कर्त्तव्य पथ पर सत्य के रास्ते से नहीं भटकूंगा। अपने कर्त्तव्य पथ के मार्गदर्शी सिद्धान्त के रूप में गाँधी की ताबीज का ख्याल रखूंगा।” दूसरा, “मैं सामने वाले के हृदय परिवर्तन की संभावना में विश्वास करूंगा लेकिन उसके प्रभाव में खुद को सत्य के पथ से नहीं डिगने दूंगा।”
यदि कोई अपने दायित्व को आप पर टाल रहा है तो आपको क्या करना चाहिए?
सोचिए कि क्या दायित्व को एक दूसरे पर टालकर खुद सुरक्षित और दायित्वहीन स्थिति का आनंद लेने में कोई सुख है? यह तो शुद्ध कायरता है। यदि कोई अपने दायित्व को आप पर टाल रहा है तो आपको क्या करना चाहिए? सबसे पहले आप अपनी भूमिका में दायित्व के उस अंश का पालन करें लेकिन उसके षडयंत्र का हिस्सा ना बने। सत्याग्रह का मार्ग अपनाते हुए बिना वाचिक और मानसिक हिंसा किए उसे इस बात का बोध कराए कि वह अपने दायित्व को निभाए।
आप उसमें यह विश्वास पैदा कर दें कि जिस डर के कारण वह अपने दायित्व को दूसरों पर थोप रहा है, उस डर से छुटकारा पाने में आप उसकी मदद करेंगे। उसके डर को दायित्व मानकर स्वीकार कर लेने पर आप शोषण और उत्पीड़न का शिकार होंगे। यह ख्याल रखिए कि आपके ऐसा करने से उसका डर कम नहीं होगा, बल्कि अपने डर को जीतने के लिए दूसरों को उत्पीड़ित करने की उसकी इच्छा को बल मिलेगा।
जब पद और सत्ता का लोभ आपको आपके कर्तव्य से भटकाए
कई बार पद-लोभ और सत्ता की निकटता से लाभ का बोध आपको कर्त्तव्य पथ से डिगाएगा। ऐसी स्थिति में हमें संतोष को ध्यान में रखना है। आपकी असली ताकत सत्य से अनुप्राणित आत्म बोध है, ना कि पद से अलंकृत फर्जी बोध। जब आपके कार्यस्थल पर सत्ता आपको कुछ लाभ पहुंचाने का प्रयास करे और यह सिद्ध करे कि आप ही उसके उत्कृष्ट कार्यकर्ता हैं तो तुरंत गाँधी जी का वह रूप याद करिए जब वे अपनी प्रतिभा, प्रतिष्ठा के अलंकरणों के बदले अपने कमज़ोर से कमज़ोर साथी के साथ खड़े होते हैं।
गाँधी उस रूप में सत्ता के शिखर पर विराजमान वायसराय को फोन करके अपने आंदोलनों की जानकारी देते थे। वह इसकी परवाह नहीं करते थे कि सत्ता कानून और शक्ति का प्रयोग करके उनको रोक सकती है क्योंकि उन्हें चोरी-चुपके आगे नहीं बढ़ना था। उन्हें तो वह ताकत पैदा करनी थी कि वह सत्य के साथ अकेले खड़े होकर भी जीत सकते हैं। यदि यह बोध हम विकसित कर लें तो हमारे अंदर अफसरशाही की मानसिक हिंसा का प्रतिकार करने की ताकत पैदा होगी।
इससे व्यवस्था के संचालन में विश्वास की बहाली होगी। जब आप विश्वास की परंपरा पर चलेंगे तो वचन और शब्द अनमोल हो जाएंगे, जिसके लिए सहमति महत्वपूर्ण होगी, ना कि औपचारिक स्वीकृति। इससे निर्णय लेने में सभी भागीदारों की सहमति अनिवार्य होगी। ऐसा होने पर ना तो कोई लोकप्रिय निर्णय लिया जाएगा जिसमें सत्य की कसौटी का उल्लंघन हो और ना ही कोई तानाशाही निर्णय होगा जिसमें भागीदारों की आवाज़ दबाई गई हो।
यह ज़रूर है कि इस तरह के व्यवहार से आप किसी तात्कालिक लाभ के भागीदार नहीं बन पाएंगे लेकिन अंततः आपको संतुष्टि मिलेगी कि आपकी चेतना ने लोकहित के लिए लोकशाही में योगदान दिया है, ना कि स्वार्थ के वशीभूत होकर किसी शोषक चेतना की पराधीनता स्वीकार की है। यह भाव ही सही अर्थों में स्वावलंबन है।