पूज्य आचार्य महोदय,
आप वो कुम्हार हो जो मिट्टी से बर्तन नहीं, सृष्टि निर्माण करने वालों को रचते हैं। मुझे भी आपने गढ़ा है, नमन है आपको। हाल में ही घटी कुछ घटनाओं ने मुझे आहत किया तो सोचा क्यों ना आपसे आज के बदलते परिवेश को लेकर कुछ विचार साझा कर लूं। चेष्टा कर रहा हूं गलतियों के लिए क्षमाप्रार्थी हूं।
जीवन, व्यवहार, विचार, परिवेश पहले की अपेक्षा बहुत तेज़ी से बदल रहे हैं। समय जो आगे बढ़ना सिखाता है, उससे सीख लेकर हम समय को ही पीछे छोड़ने का प्रयत्न कर रहे हैं। सब जल्दी में हैं कुछ खोना हो या कुछ पाना। मूल्यों की नैतिकता बड़े आंगन से बाहर निकल बिना आंगन के घरों में सिमटने लगी है।
संस्कार, टेलीविज़न के प्रचारों और सोशल मीडिया तक सीमित होकर रह गए हैं। समाचारों की जगह खबरों ने ले ली है और घर के बैठकों की जगह सास-बहू के अनीतिगत टीवी सीरियल्स ने।
बच्चे अब मैदानों की जगह मोबाइलों में खेलते मिलते हैं, बात करने के अनुशासित उतार-चढ़ाव वाले लहज़े ने अपनी दहलीज़ छोड़नी शुरू कर दी है। अब नानी का घर और बाबा के किस्से किताबों की कहानियों में मिलने लगे हैं। बच्चों में बचपन से ही बड़े होने की होड़ लग गई है, वो बचपन जीना छोड़कर जिंदगी के कठिन-सरल रास्तों को समझने की कोशिश में लग जाना चाहते हैं।
हार का डर उन्हें जीतने की चाह से ज़्यादा है, वो हारकर कुछ सीखने और फिर दोगुनी मेहनत से प्रयत्न करने की जगह शर्मिन्दगी जैसी भावनाओं को ज़्यादा अहमियत दे रहे हैं। गुस्सा, मानसिक अस्थिरता, असुरक्षा, भविष्य के परिवर्तनों के प्रति इतना असहज होना चिन्तनीय है।
प्रकृति और प्राकृतिक परिवेश से मेल-जोल चिड़ियाघरों और नैशनल पार्क तक सीमित सा हो गया है या कहूं छुट्टियां बिताने के लिए एक ज़रिया मात्र बन गया है। ऐसे में आपकी महत्ता उसी प्रकार की हो जाती है, जैसे एक माँ की होती है जब उसकी कोख में जीव का निर्माण होना प्राम्भ होता है।
वो अपनी संतान को समय के हर क्षण में महसूस करती है, उसके सर्वांगीण विकास के लिए अपने आप में ऐच्छिक-अनैच्छिक परिवर्तन लाती है। जीव प्रारंभ से निर्वाण तक का सफर दुआओं और आशीर्वाद रूपी ओज से फलीभूत होता है।
आप से भी यही प्रार्थना है कि इन कच्चे घड़ों को नैतिकता और अनैतिकता के बीच का फर्क करना सिखाएं। हर मज़हब और जाति से ऊपर उठ इंसान होने के सही मायने बताएं, बड़ो को इज़्जत छोटों को प्यार, रिश्तों में ईमानदारी, कर्तव्य में सच्चाई जैसे पैमाने सिखाएं। हार कोई अभिशाप नहीं अपितु जीत का मार्ग द्वार है। बचपन भोलेपन, सादगी, नासमझी समझ, अबूझे प्रश्नों का भंडार है।
उनको बताना कि जीवन कठिन नहीं है ना ही कोई अवस्था जटिल है, अवस्थाओं को समस्या हम बनाते हैं उनमें उलझकर, घबराकर और अनचाहे बर्ताव से। ऐसा कोई प्रश्न नहीं है जिसका उत्तर पाना संभव ना हो बस ज़रूरत होती है सच्ची लगन और मेहनत की। हां, यह भी बताना कि अगर पूर्ण लगन और मेहनत के बाद भी मनचाहा मुकाम ना मिले तो इसका मतलब हारना या रुकना नही है।
उनको अपने पर्यावरण और जीवों से प्यार करना सीखने के साथ-साथ सबसे अहम बात उनको प्रश्न पूछना सिखाना, उनके बचकाने प्रश्नों से गुस्सा मत करना, बल्कि एक प्यारी से मुस्कान के साथ जवाब दे देना और उनको प्रेरित करना कि अपने प्रश्नों के जवाब खुद खोजना सीखें, रिस्क लेना सीखें, कुछ नया करने से पहले डरें ना, भीड़ का हिस्सा बनकर ना रह जाएं।
यहां तक कि प्रतिशोध, ईष्या, घृणा से दूर रहें, हर इंसान से सीखने का हुनर पाएं. जब दुःखी हों तो अपनों से गम को साझा करें, जब रोना आए तो खूब रोएं और फिर से मुस्करा दें, किताबों को अपने जीवन मे जगह दें, चिंतन-ममन से बहुआयमों पर विचार शक्ति बढ़ाएं और खूब सपने देखें और उनको पूरा करें।
पूज्य सृष्टि निर्माताओं, समावेशी विश्व की चाह में…
आपका शिष्य, पीयूष