कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान मध्य प्रदेश के सुदूर आदिवासी अंचलों में स्वास्थ्य कर्मियों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था। ग्रामीण सर्दी, जुकाम, खांसी और बुखार से ग्रसित होने के बावजूद अस्पताल जाने से डर रहे थे। उनके मन में यह डर घर कर गया था कि कहीं डॉक्टर उन्हें कोरोना ना बता दे और उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़े।
जहां से जिंदा घर वापस आने की संभावना बहुत कम है। उनकी यही जिद उन्हें मौत के मुंह में धकेल रही थी। ऐसे में, उन्हें तीसरी लहर से बचाने और टीका लगाने के लिए स्वास्थ्य कर्मियों को काफी मेहनत करने की ज़रूरत पड़ गई थी। इससे बचने के लिए स्वास्थ्य विभाग ने एक तरकीब निकाली और विभाग ने गाँव की किशोरियों को उत्प्रेरक के रूप में काम लेना शुरू किया, जिसके बाद वे गाँव की हालत सुधारने तथा कोरोना से बचाव के लिए टीके लगवाने के लिए आशा कार्यकर्ताओं के साथ गाँव-गाँव का दौरा करने लगीं तब जाकर कहीं हालत थोड़ी संभली।
ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना के टीके को लेकर व्याप्त अंधविश्वास
इस सम्बन्ध में झाबुआ ज़िले की आशा कार्यकर्ता जंगली भूरिया बताती हैं कि शुरू में जो हमें परेशानी आ रही थी, इससे कैसे निपटा जाए? हमें कुछ समझ में नहीं आ रहा था तब स्वास्थ्य विभाग ने राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम से जुड़े साथिया समूह के किशोरों को प्रशिक्षित करना शुरू किया। इस योजना में प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले सारे किशोरों की उम्र 18 से 19 के बीच है और सभी ने 12वीं तक की पढ़ाई पूरी कर ली है।
पहले भी ये किशोर इस कार्यक्रम के साथ जुड़कर स्वच्छता, माहवारी, एनिमिक, पोषण, सुरक्षा आदि के बारे में ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता फैलाने के सम्बन्ध में प्रशिक्षण ले रहे थे, लेकिन कोरोना महामारी के दौरान इनकी भूमिका बहुत बढ़ गई। गाँव में सबसे ज़्यादा पढ़े-लिखे होने के चलते इनके ऊपर ज़्यादा ज़िम्मेदारियां थीं।
जंगली भूरिया ने हमें बताया कि वह इन किशोरों को अपने साथ लेकर घर-घर टीके के लिए जागरूक करने का काम करती हैं। इतने पर भी लोग नहीं मान रहे हैं, इसलिए सबसे पहले इन्हीं किशोरियों को कोरोना के टीके की पहली खुराक दी गई फिर उदाहरण के रूप में इन्हें समाज के सामने प्रस्तुत किया गया। हमने गाँव के समुदाय को बताया गया कि देखो इन सब को कोरोना का टीका लगाया गया है और ये सब पूर्ण रूप से स्वस्थ हैं। इन सब पर टीके लगने के बाद किसी तरह का कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ा है।
ग्रामीण क्षेत्रों में टीके के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए युवा शक्ति का उपयोग
टीके के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने वाली झाबुआ ज़िले की हिमांशी पुरोहित बताती हैं कि इसके लिए सबसे पहले उन्हें अपने ही परिजनों का विरोध झेलना पड़ा था। वह किसी भी कीमत पर नहीं चाहते थे कि उन सब की कोरोना की जांच कराई जाए और उन्हें टीके लगाए जाएं। उन्हें समझाना बहुत जोखिम भरा काम था। टीके लगने के बाद मरने की बात लगभग हर घर से उठ रही थी। जब गाँव वालों को समझाने का कोई और तरीका नज़र नहीं आया, तब सबसे पहले युवाओं ने टीके लगवाना शुरू किया।
हमें अपनी बात साझा करते हुए हिमांशी कहती हैं कि जब टीके की खुराक लेकर वह घर वापस आई तो पूरा घर उसकी देखरेख में जुट गया कि कहीं उसे बुखार तो नहीं आ रहा है। उसके हाथ-पैर में दर्द तो नहीं हो रहा है। टीके के दुष्प्रभाव का ऐसा गलत प्रचार हो चुका था कि इसे खत्म करने में हम लोगों को काफी मशक्कत करनी पड़ी। वर्तमान में हिमांशी के प्रयासों से उसके घर पर सभी हितग्राहियों का टीकाकरण हो चुका है। अब वह पीले चावल लेकर घर-घर टीके लगवाने के फायदे समझा रही हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में टीके के लिए प्रोत्साहित करने में आशा कार्यकर्ताओं के साथ किशोरियों की महत्वपूर्ण भूमिका
इसी तरह मोनिका भूरिया को तो टीका लगाने की बात पर मार भी पड़ी लेकिन वे टस से मस नहीं हुई और अपनी सहेलियों के साथ टीकाकरण केंद्र जाकर टीका लगवा लिया, फिर गाँव-गाँव की आशा कार्यकर्ता इन्हीं किशोरियों की टोली लेकर आस-पास के गाँवों में प्रचार-प्रसार के लिए निकलने लगीं। हरिजन बस्ती की रहने वाली उन्नति मकवान कहती हैं कि बस्तियों में अभी भी हम लोगों को देखकर लोग छिप जाते हैं या भागने लगते हैं, कहीं हम उन्हें सुई ना लगा दें।
गाँव के हालात अभी पूरी तरह से काबू में नहीं आए हैं। कोरोना महामारी की तीसरी लहर रोकने के लिए हमें रोज़ अपने घर से निकलकर गाँव वालों को बहुत समझाना पड़ता है। उन्नति बताती हैं कि झाबुआ ज़िले की ढेकल बड़ी हरिजन बस्ती मुख्यालय से 10 किलोमीटर दूर है। वह कहती हैं कि 10 किलोमीटर या इससे दूरी वाले गाँव के लोग अभी भी महामारी से बचने के लिए टीके लगवाने से कतरा रहे हैं।
किशोरियों के प्रयासों से ग्रामीण क्षेत्रों में टीकाकरण सफलता पूर्वक हुआ है
उन्नति, मोनिका और हिमांशी की तरह पूजा, शारदा, संगीता और करिश्मा जैसी सैकड़ों किशोरियां सुबह से गाँव -गाँव घूमकर लोगों को जागरूक करने का काम कर रही हैं। वह सफल भी हो रही हैं। इन्हीं के प्रयासों से झाबुआ ज़िले में करीब सवा दो लाख लोगों को टीके लगाए जा चुके हैं। इनमें पहली खुराक वाले एक लाख, 90 हज़ार से अधिक हैं, जबकि दूसरी खुराक वाले लगभग 32 हज़ार के आस-पास हैं। इस नेक काम के लिए ज़िला कलेक्टर ने इन किशोरियों को शाबाशी भी दी है। उन्होंने इन किशोरियों की प्रशंसा में ट्वीट भी किया है।
ज़िला टीकाकरण अधिकारी डॉ. राहुल गणावा के अनुसार
ज़िला टीकाकरण अधिकारी डॉ. राहुल गणावा बताते हैं कि ज़िला मुख्यालय से 40 किमी दूर रामनगर गाँव में भी इसी तरह के प्रयोग किए जा रहे हैं। इनकी सक्रियता ने सरकार का काम आसान कर दिया है। उन्होंने कहा, ज़िले की कुल आबादी लगभग 12 लाख है, इनमें से 7 लाख, 76 हज़ार लोगों को टीके की खुराक दी जानी हैं। इन युवाओं के प्रोत्साहन से लगभग सवा दो लाख हितग्राहियों को टीके की खुराक दी जा चुकी हैं।
उन्होंने कहा, दरअसल ग्रामीण क्षेत्रों में आदिवासी समुदाय एक साथ मिलकर रहते हैं। इन्हें प्रेरित करने के लिए उन्हीं के बीच से किसी को आगे आना होता है, जो इनकी भाषा व व्यवहार को समझता हो। इन्हें प्रोत्साहित करने के लिए इनकी बोलचाल की भाषा में बात करना बहुत ज़रूरी होता है। इसलिए हमें यह तकनीक अपनानी पड़ी। उन्होंने आगे कहा कि अभी कॉलेज बंद हैं, इसलिए हमें दिन में भी किशोर आसानी से मिल जाते हैं।
डॉ. गणावा ने हमें बताया कि पिछले 5 वर्षों से ये किशोर इस कार्यक्रम के साथ जुड़कर स्वास्थ्य संबंधी कई बातों को समझ चुके हैं। ये क्षेत्रीय भाषा में बातचीत कर ग्रामीणों को समझाते हैं। इसी सोच के साथ इन किशोरियों को कोरोना से बचाव का प्रशिक्षण दिया गया, जिसमें स्वच्छता, बार-बार हाथ धोने के तरीके, मास्क लगाना और निश्चित सामाजिक दूरी के पालन के साथ-साथ कोरोना की जांच व टीके लगवाने की अनिवार्यता भी शामिल है।
हालांकि, अभी भी गाँव में चुनौतियां कम नहीं हैं। गाँवों में हमें बुजुर्गों का जबरदस्त विरोध झेलना पड़ रहा है। वह अभी भी झाड़-फूंक पर ज़्यादा विश्वास करते हैं। इसलिए गाँव में झोलाछाप डॉक्टरों और भूमका (गुनी ओझा) की पहुंच ज़्यादा है। गाँव में टीके के दुष्प्रभाव की भ्रांतियां खत्म करने में इनकी भी मदद ली जा रही है।
आदिवासी बहुल क्षेत्रों में युवाओं के माध्यम से टीके को लेकर जागरूकता में एक हद तक सफलता मिली है
आदिवासी बाहुल क्षेत्र झाबुआ की ही तरह उमरिया और धार जैसे एक दर्जन ज़िलों में टीकाकरण के लिए गाँव के ही युवाओं की मदद ली जा रही है। अकेले स्वास्थ्यकर्मी गाँवों में जाने से डर रहे हैं। उन्हें डर है कि कहीं उनके साथ कोई अनहोनी ना हो जाए। धार ज़िले के हजरतपुर गाँव में ज़िला प्रशासन ने यूथ फॉर चिल्ड्रन के स्वयंसेवकों को तैयार किया है और उनके साथ आशा कार्यकर्ता घर-घर जाकर टीकाकरण के बारे में जानकारी दे रही हैं, ताकि पूरा गाँव कोरोना संक्रमण मुक्त हो जाए तथा इन गाँवों को सौ फीसदी टीकाकरण वाले गाँवों की सूची में शामिल किया जा सके।
यही तरीका उमरिया ज़िले के गाँवों में भी अपनाया जा रहा है। ज़िला मुख्यालय से लगभग 25 किमी दूर आकाशकोट क्षेत्र के लगभग 25 गाँवों में युवाओं का सबसे पहले टीकाकरण किया गया है, जिससे वह अपने परिजनों की भ्रांतियां दूर कर सकें। जंगेला गाँव के 30 वर्षीय शंभू सिंह ने हमें बताया कि अपने परिवार में उसने सबसे पहले टीके लगवाया और उसके बाद पूरा परिवार का टीकाकरण हुआ।
बिरहुलिया गाँव के 20 वर्षीय वृन्दावन सिंह की भी यही कहानी है। सामाजिक कार्यकर्ता संतोष कुमार द्विवेदी ने बताया कि यदि आदिवासी गाँवों का अध्ययन किया जाए, तो यह बात सामने आ जाएगी कि आदिवासी क्षेत्रों के टीकाकरण में युवाओं की संख्या सबसे अधिक है और वे ही अपने गाँवों में एक उत्प्रेरक के रूप में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर रहे हैं। युवा और किशोरों के कारण ही ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना महामारी काबू में आया है। हालांकि, अभी भी सौ फीसदी लोगों को टीके लगवाना चुनौती भरा काम है।
नोट- यह आलेख भोपाल, म.प्र. से रूबी सरकार ने चरखा फीचर के लिए लिखा है।