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लड़कियों को ससुराल में सहज माहौल क्यों नहीं देता है यह समाज?

शादी

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कई बार हमारे घरवाले और आस-पास के लोग जो हमारी पीढ़ी से पहले वाली पीढ़ियों की उम्र के हैं, हमेशा यह बोलते हैं, “आज की पीढ़ी क्या समझेगी हमारी बातें, हमारे ज़माने में ऐसा होता था, वैसा नहीं होता था व्गैरह-व्गैरह।”

अक्सर हम सोशल मीडिया पर कई सामाजिक मुद्दों से सम्बन्धित पोस्ट देखते और डालते रहते हैं। ऐसे ही एक पोस्ट में यह लिखा था कि अगर सभी लड़कियां अपने ससुराल वालों (सास-ससुर) को इज्ज़त देने लगें और अपने माँ-बाप जैसे रखें तो सभी वृद्धाश्रम बंद हो जाएंगे।

यह पोस्ट अपने आप में किस हद तक सही है, इसका निर्णय करना बिल्कुल भी आसान नहीं है क्योंकि वृद्धाश्रम में रहने वाले माँ-बाप सिर्फ बहुओं की वजह से ही वहां नहीं छोड़े जाते हैं, इसके लिए उनकी खुद की औलादें भी ज़िम्मेदार होती हैं।

हमारे देश में वैसे तो शादी के बाद ससुराल को लड़की का असली घर कहा जाता हैं मगर कई मामलों में यह सिर्फ बातों तक ही रह जाता है। एक लड़की जब अपना मायका छोड़कर ससुराल जाती है, तो वहां के लोगों को उसे समझने और उसकी पसंद-नापसंद जानने में काफी ज़्यादा वक्त चाहिए होता है। खैर, हमारे समाज को इन चीच़ों से क्या मतलब!

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार: pixabay

अब ससुराल वालों का भी फर्ज़ बनता है कि वे अपने घर की नई सदस्य को उचित मान-सम्मान और वक्त दें ताकि उसे नए घर और वहां के ससस्यों के बारे में अच्छे से जानने का अवसर मिले। हमारे देश में इन चीज़ों के लिए कोई जगह नहीं है क्योंकि रिवाज़ों के अनुसार सारे सामंजस्य सिर्फ लड़की को पहले दिन से ही बनाने पड़ते है। दोनों की परिस्थितियों में कई बार तकरार की स्थिति बनी रहती है। ऐसे में परिवार का बिखराव होना संभव ही है।

आजकल वैसे भी एकल परिवारों का चलन बढ़ता जा  रहा हैं क्योंकि भविष्य और अपने कैरियर की अंधी रेस में आजकल की युवा पीढ़ी उलझकर रह गई है। उनके पास खुद के लिए और परिवार को देने के लिए वक्त ही नहीं है। ऐसे में वे आपनी अगली पीढ़ी को भी परिवार और पारिवारिक मूल्यों की शिक्षा देने में असमर्थ होते जा रहे हैं। ऐसी मानसिकता हमरे रिश्तों के ताने-बाने को कमज़ोर कर रही है।

सच तो यह है कि बदलते वक्त के साथ हमेशा बहुत कुछ बदलता रहता है। कुछ पुरानी चीज़ खत्म होती है तभी तो नई चीज़ें बनती हैं। इस बात को स्वीकार करना भी ज़रूरी है। इसलिए एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप और परिवार के बिखराव के स्थान पर दोनों ही पक्षों को एक-दूसरे की व्यक्तिगत निजता, पसंद-नापसंद और रीति-रिवाज़ों को समझना चाहिए।

कोई भी बदलाव हमेशा एकतरफा और पूरे तरीके से नहीं अपनाया जा सकता है लेकिन थोड़ा सा अपना लेने में भी कुछ गलत नहीं होता है।
पुरानी पीढ़ी को भी लचीला होना होगा जिससे उन्हें नई पीढ़ी की सोच के बारे में जानने का अवसर प्राप्त होगा। यदि हम इस दिशा में सकारात्मक कोशिश करेंगे तब ज़ाहिर तौर पर उन्हें मोहब्बत के साथ स्वीकार कर पाएंगे।

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