“सारे पिंजरे तोड़ेंगे, इतिहास की धारा मोड़ेंगे” कुछ दिन पहले यह नारा तिहाड़ जेल के बाहर गूंज रहा था, जब पिंजरा तोड़ एक्टिविस्ट नताशा नरवाल और देवांगना कलिता और साथ ही जामिया के छात्र आसिफ इकबाल तनहा जेल से बाहर आए।
तीनों को पूर्वोत्तर दिल्ली में पिछले साल हुई हिंसा के सिलसिले में यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया था। आप कल्पना कीजिए कि इन पढ़ने-लिखने वाले छात्रों ने ऐसा क्या किया था, जो इनको यूएपीए जैसे दमनकारी कानून में लपेटा गया? क्या सच में इन्होंने इतना बड़ा अपराध किया था या मात्र सरकार से असहमति जताने वालों पर यूएपीए लगाना एक ट्रेंड बन गया है? इन बातों को जानने के लिए समझते हैं, क्या है यूएपीए और किन लोगों को इसके तहत सज़ा दी जा सकती है?
क्या है यूएपीए?
1962 से 1975 की तीन चीज़ें
1962 का भारत चीन युद्ध, 1971 का भारत पाकिस्तान युद्ध और 1975 में लगी इमरजेंसी (आपातकाल)। इसी दौरान और भी बहुत सारी बड़ी-बड़ी चीज़ें हो रही थी, जिन पर इन सब चीज़ों की वजह से किसी ने इतना ध्यान नहीं दिया।
एक मुख्यमंत्री थे, सी.एन.अन्नादुरै, वह व्यक्ति जिन्होंने मद्रास को तमिलनाडु नाम दिया था। अपनी 1962 की राज्यसभा स्पीच में इन्होंने एक अलग तमिल देश बनाने की मांग रखी थी। हालांकि, बाद में इन्होंने अपनी मांग वापस ले ली थी। पर, सरकार के लिए यह एक समस्या वाली बात हो गई थी। एक तरफ चीन के साथ समस्याएं चल रहीं थीं, वहीं दूसरी तरफ एक अलग देश की मांग चल रही थी।
तभी यह सोचा गया कि बाहरी चीज़ों से निपटने के लिए, तो हमारे पास कानून है आर्टिकल 352, जिसके अंतर्गत युद्ध, बाहरी आक्रामक जैसी विकट स्थिति में राष्ट्रीय आपात की घोषणा की जा सकती है। पर, जो देश के अंदर की आंतरिक समस्याएं हैं, उसके लिए कुछ नहीं है।
सरकार ने सोचा कि इससे निपटने के लिए लोगों की स्वतंत्रता को थोड़ा प्रतिबंधित करने की ज़रूरत है। इसलिए इमरजेंसी खत्म होने से पहले ही गैर-कानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (Unlawful Activities Prevention Act- UAPA) पास किया गया था।
कितनी बार हुए संशोधन?
उस वक्त यह कानून देश की संप्रभुता और एकता को खतरे में डालने वाली गतिविधियों को रोकने के लिए बनाया गया था। अब तक इसमें लगातार कुल 4 बार साल 2004 में, 2008 में, 2012 और फिर 2019 में संशोधन किए जा चुके हैं।
2019 में जो संशोधन हुआ उसके तहत इसमें संगठनों के साथ-साथ व्यक्तियों को भी आतंकवादी घोषित किया जा सकता है। इसके साथ ही उस व्यक्ति की सम्पत्ति भी ज़ब्त की जा सकती है। यह कानून एन.आई.ए को अधिकार देता है कि वो मात्र शक के आधार पर लोगों को गिरफ्तार कर सकती है।
2019 से पहले जब इस कानून में किसी व्यक्ति को आतंकवादी नहीं ठहराया जा सकता था, तो जिन आतंकवादी संगठनों पर प्रतिबंध लगता था, उसके सदस्य वो वाला संगठन छोड़कर नया संगठन बना लेते थे। इन्हीं सब चीज़ों पर लगाम लगाने के लिए यूएपीए में संशोधन किया गया।
यूएपीए का इस्तेमाल आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अज़हर, लश्कर-ए-तैयबा के मुखिया हाफ़िज़ सईद, आतंकी ज़की-उर-रहमान-लखवी और आतंकी दाऊद इब्राहिम के खिलाफ किया जा चुका है। अब सवाल यह कि इन सबके बाद इस कानून में असल समस्या क्या है, जो यह अक्सर विवादों का कारण बन जाता है? इस कानून के तहत भारत के खिलाफ असंतोष फैलाना अपराध है, पर यह असंतोष क्या है? इसकी परिभाषा क्या है? यह कहीं नहीं बताया गया है। कहीं साफ नहीं किया गया है इस असंतोष शब्द के क्या मायने हैं? जिस वजह से अक्सर इसका दुरुपयोग होता आया है।
क्या कहते हैं आंकड़े?
NCRB की ताज़ा रिपोर्ट से भी हम समझ सकते हैं कि UAPA और राजद्रोह यानी भारतीय दंड संहिता की धारा 124A के सबसे ज़्यादा मामले साल 2016 से 2019 के बीच दर्ज़ किए गए हैं। जिसमें अकेले यूएपीए के तहत पिछले 5 सालों में कुल 7840 मामले दर्ज़ हुए हैं।
2015 में 1128 लोग गिरफ्तार हुए, 2016 में 999, 2017 में 1554, 2018 में 1421, तो वहीं 2019 में 1948। साल दर साल इन मामलों में लगातार इज़ाफ़ा होता आया है। इसके साथ ही गौर करने वाली बात यह है कि इन सब मामलों में मात्र 155 लोगों के खिलाफ ही आरोप सिद्ध हो पाए हैं।
सरकार के खिलाफ बोलने वालों को ही सज़ा
दलित अधिकारों के लिए काम करने वाले सुधीर ढवाले, आदिवासियों के लिए काम करने वाले महेश राउत, मशहूर कवि वरवर राव, साथ ही आनंद तेलतुंबडे, शरजील इमाम जैसे कई लोगों को यूएपीए के तहत गिरफ्तार कर लिया गया था।
इसके साथ ही आदिवासी अधिकारों के लिए संघर्षरत सुधा भारद्वाज, रिसर्च स्कॉलर रोना विल्सन, पत्रकार गौतम नवलखा और मसरत ज़हरा पर भी यही कानून लगा था। पिछले साल भी यह कानून काफी चर्चा में था, जब जम्मू कश्मीर पुलिस ने घाटी में सोशल मीडिया का गलत तरीके से इस्तेमाल करने वाले लोगों पर यूएपीए लगाया था।
वहीं जब सब लोग कोरोना से जूझ रहे थे, लॉकडाउन में घरों के अंदर बंद थे, तब भी ये सिलसिला रुका नहीं था। एक्टिविस्ट्स को एक-एक करके जेल में बंद कर दिया गया फिर चाहें कोई प्रेगनेंट महिला ही क्यों ना हो, बच्चे को जन्म ही क्यों ना देने वाली हो, कोई फर्क नहीं पड़ता।
वहीं पिछले साल उमर खालिद पर भी यूएपीए लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया था, क्यों? क्योंकि एक लंबे से भाषण के कुछ सेकंड्स को काट कर उस क्लिपिंग को कई चैनलों पर चला कर एकदम हल्ला मचा दिया गया था और आरोप लगाया गया कि उमर खालिद ने लोगों से कहा कि डोनाल्ड ट्रंप के भारत दौरे के दौरान लोग सड़कों पर आ जाएं।
वही वाला दौरा जब भारत में गरीबी हटाई तो नहीं, पर छुपाई जाने के लिए बड़ी-बड़ी दीवारें बनवाई गईं थी। वहीं अगर इस साल की बात करें, तो गणतंत्र दिवस के दिन किसानों की ट्रैक्टर परेड के दौरान हुई हिंसा के मामले में भी यूएपीए के तहत बहुत से किसानों पर यह केस दर्ज़ कर लिया गया है।
इन सब बातों को लेकर एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या यूएपीए अब इतना नॉर्मल हो गया है कि लोगों को पहले से ही पता रहता है कि चलो देश के तो ठीक, पर सरकार के विरोध में भी कुछ बोल देंगे, तो उन पर यह कानून लगा दिया जाएगा।
पर, यह सब बातें बस सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकार जैसे लोगों के लिए ही हैं, क्योंकि कोई मिठाई, तो है नहीं, जो सबमें बंटेगी। कश्मीर में 2 आतंकवादियों के साथ पकड़े जाने के बाद दविंदर सिंह को ही देख लीजिए। यूएपीए तो छोड़िए, गिरफ्तार करने के बाद उनको बेल भी दे दी गई।
इन्हीं सब वजहों से इस कानून को लेकर सरकार पर अक्सर भेदभाव के आरोप लगते रहे हैं। बात चाहे संशोधित नागरिकता कानून को लेकर दिल्ली में हुए दंगों की हो, जम्मू-कश्मीर की हो या किसान आंदोलन के दौरान ट्रैक्टर रैली के नाम पर हुई हिंसा की हो, गिरफ्तारियों को लेकर सरकार पर सवाल उठते ही रहे हैं। अब इन सब उदाहरण के बाद शायद हमें यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि कैसे यह मुकदमे दर्ज़ होते हैं और किन लोगों पर इतनी संगीन धाराएं लगाकर कौन सी आवाज़ को दबाने का काम किया जा रहा है।