24 घंटे का काम पकड़ा है मज़बूरी में, अभी 5 दिन ही हुए है पर डर सा लगता है। कुछ हुआ नहीं है अब तक, पर घर के लोगों का व्यवहार अजीब सा है मेरे लिए। जैसे मैं कोई इंसान नहीं हूं, मैं बस उनके घर में काम करने वाली नौकरानी हूं।
दुर्गा देवी, 40 वर्ष
घरेलू कामगारों के लिए असुरक्षा अलग-अलग रूप में सामने उभर के आती है। असुरक्षा का एक रूप नौकरी खोने का डर है, तो एक रूप नौकरी में रहते-रहते ज़िल्लत को झेलने का भी है। घर से काम तक आने में और वापस जाने तक का सफर भी बेहद असुरक्षित होता है।
हाल ही में मार्था फॉरेल फॉउंडेशन द्वारा किए गए एक अध्ययन में, जिसमें 146 घरेलू कामगारों ने हिस्सा लिया था, उसमें 125 महिला घरेलू कामगारों ने कहा कि वे काम तक जाने के रास्ते में असुरक्षित महसूस करती हैं।
बसंती, एक घरेलू कामगार हैं। वो सुबह दो घरों में काम करती हैं। शाम को वे अपनी एक समोसे की ठेली लगाती हैं। हमारी बातचीत के दौरान बसंती ने बताया कि मेरी छोटी सी ठेले की दुकान पर अक्सर कई पुरुष भीड़ लगाते हैं, वो शराब के नशे में मेरे साथ बदतमीज़ी भी करते हैं। एक बार मैंने उन्हें पुलिस की धमकी दी, तो वो दो दिन नहीं आए पर तीसरी सुबह जब मैं काम पर गई, तो उन्होंने मेरा पीछा किया। उस समय मैं स्वयं को बेहद असुरक्षित एवं डरी हुई महसूस कर रही थी।
सार्वजानिक रास्तों के अलावा घरेलू कामगारों के लिए ना, तो उनका कार्यस्थल सुरक्षित है और ना ही उनका घर। कई महिला घरेलू कामगारों ने मार्था फॉरेल फॉउंडेशन को अपने साथ कार्यस्थल पर हुए यौन उत्पीड़न की वारदातों को साझा किया है। इन वारदातों में शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न भी शामिल है।
“मेरी मालकिन के पति मेरा हाथ और कमर पकड़ने की कोशिश करते थे। वे मुझे बच्ची बोलकर बार-बार पीठ सहलाते थे। मेरी मालकिन को समझ नहीं आता था कि उनके पति मेरा यौन शोषण करते थे।”
रीता (बदला हुआ नाम), 19 वर्ष
अगर हम कार्यस्थल पर घरेलू कामगारों के साथ गरिमापूर्ण व्यवहार की बात करें, तो हमारे तथाकथित सभ्य समाज के आदर्श भी हाशिए पर हैं। हम जहां काम करने जाते हैं, वहां आए दिन हम पर चोरी का झूठा इल्ज़ाम लगाया जाता है, हमारे साथ जाति के आधार पर भेदभाव किया जाता है। शहर हो या गांव, हमारे बर्तनों पर चिन्ह लगाकर हमेशा हमें यह एहसास कराया जाता है कि इस समाज में तुम्हारी कोई गरिमा नहीं है।
“मैं तो अपनी मालकिन के सभी बर्तनों को धोती हूं, पर फिर भी मेरे चाय के कप पर लाल रंग की नेल पॉलिश का चिन्ह लगा हुआ है।”
लाजवन्ती, ओखला हट (दिल्ली)
यह सब होने के बाद भी इन घरेलू कामगारों की समस्याओं का अंत नहीं होता है, उनकी असुरक्षा का दायरा लगातार बढ़ता ही जाता है, क्योंकि घरेलू कामगार होने के साथ-साथ वे महिला भी तो हैं। बाहर की लड़ाई अभी जारी ही है कि घर के अंदर भी एक जंग चलती रहती है।
कईयों की ज़िंदगी में घरेलू हिंसा रोज़मर्रा की प्रकिया का एक अहम हिस्सा हो गई है। क्या आपका पति आपको पीटता है? पूछने के बाद कई बार ऐसे जवाब भी सुनने को आते है कि “हां, मियां-बीवी में तो यह सब होता ही रहता है। कई बार कुछ महिलाएं अपनी कहानियां सुनाती हैं कि वे कैसे अपने ससुराल को छोड़कर हिंसा के चक्र से बाहर आईं।
घरेलू हिंसा हमारे समाज में महिलाओं को शोषित करने के लिए एवं उन्हें नियंत्रित करने के लिए एक सामाजिक यंत्र बन गया है। इसकी वजह सदियों से चली आ रही हमारी समाजीकरण की प्रक्रिया और पितृसत्ता है। इस पितृसत्तात्मक समाज ने यह स्थापित कर दिया है कि घरों और समाज में महिलाओं का दर्ज़ा हमेशा पुरूषों से नीचे ही है। ये बात महिलाएं खुद भी सोचती हैं। इसको बदलने के लिए एक निरंतर प्रयास जारी हैं।
लेकिन सबसे अधिक चिंता का विषय, तो यह है कि घरेलू कामगार महिलाएं अपनी नौकरी को अपने जीवन की मज़बूरी ना समझ बैठें और कार्यस्थल पर होने वाले तमाम भेदभाव और उत्पीड़न को अपनी ज़िन्दगी की दैनिक प्रक्रिया का एक हिस्सा ना समझ लें।
मियां-बीबी में यह सब चलता है’ कहीं इस बात तक ना आ जाए कि मालिक नौकरों से ऐसे ही व्यवहार करते हैं। ऐसे में यह बेहद ज़रूरी हो जाता है कि हम उनकी आवाज़ को अनसुना ना करें, उनके संघर्षो को अनदेखा ना करें। घरेलू कामगार महिलाओं को हमें यह समझाने की ज़रूरत है कि ना तो घरेलू हिंसा सामान्य है और ना ही कार्यस्थल पर किसी भी प्रकार का यौन उत्पीड़न।
इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि इन घरेलू कामगार महिलाओं के साथ होने वाले उत्पीड़न को समाज की चारदीवारी में आम बात ना बनने दिया जाए और उनके अधिकारों को एक कानूनी ढांचे में ढाला जाए। गरीबी और मज़बूरी के वजह से ये और मज़बूर ना हो जाएं।
नोट- समीक्षा झा, मार्था फॉरेल फॉउंडेशन से वहां के प्रोग्राम ऑफिसर के रूप में जुडी हुई हैं।