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अश्लील सिनेमा बन चुका है भोजपुरी संस्कृति का पर्याय, संवैधानिक दर्ज़ा नहीं दे रही सरकार

अश्लील सिनेमा बन चुका है भोजपुरी संस्कृति का पर्याय, संवैधानिक दर्ज़ा नहीं दे रही सरकार

सिनेमा और संगीत किसी भी समाज व संस्कृति को एक विशेष पहचान दिलाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। किसी भी भाषा / बोली का सिनेमा और संगीत उस क्षेत्र / समाज के रहन-सहन, खान-पान, पहनावा और सामाजिक पृष्ठभूमि को खुद में समेटे हुए होता है, जिसका अलग-अलग माध्यमों की सहायता से देश-विदेश की विभिन्न जगहों पर प्रदर्शन होता है।

उन फिल्मों के संवाद और गीत-संगीत आम जनमानस के मन-मस्तिष्क पर अपना एक विशेष प्रभाव / छाप छोड़ते हैं, जिसके आधार पर ही दर्शक उस निश्चित समाज के प्रति अपनी धारणा बना लेता है। भारत में कई अलग-अलग भाषाओं में सिनेमा और संगीत एल्बम का निर्माण होता है, जिसमें से भोजपुरी एक है।

पिछले कुछ दिनों से भोजपुरी शब्द चर्चा का विषय बना हुआ है, इसका कारण है कि भोजपुरी इंडस्ट्री के तथाकथित स्टार माने जाने वाले खेसारी लाल यादव का एक गाना चाची तोहर बाची, सपनवे में आती है। इस गाने के बाद सोशल मीडिया पर खेसारी लाल यादव के प्रति कुछ लोगों में आक्रोश पैदा हुआ।

वहीं पंकज सिंह नामक एक उभरते गायक ने खेसारी की बेटी शीर्षक से एक गाना बना दिया और जिसके बाद खेसारी लाल यादव उखड़ पड़े और लाइव आकर उस गायक को धमकी तक दे डाली। इसके बाद भोजपुरी जगत और दर्शकों ने भोजपुरी में अश्लीलता पर सवाल उठाना शुरू कर दिया और एक बार फिर भोजपुरी को अपने गाने और सिनेमा के माध्यम से अश्लील बनाने वाले खेसारी और ऐसे अन्य गायकों और तथाकथित अभिनेताओं के खिलाफ सोशल मीडिया पर एक मोर्चा खडा हो गया और भोजपुरी सिनेमा और गायकी पर सेंसर की मांग उठने लगी, जिससे भोजपुरी भाषा बदनाम ना हो।

लेकिन, सवाल यह उठता है कि जिस अश्लील गायकी और सिनेमा के चलते भोजपुरी को बदनाम होने की बात की जा रही है, उसका अपना खुद का क्या अस्तित्व है? एक विशाल जनसमूह, जो समय-समय पर भोजपुरी को बचाने और अपनी संस्कृति को संरक्षित करने की बात करता है। क्या वह भोजपुरी को वह सम्मान दिला पाया है, जो अन्य भाषाओं को है? भोजपुरी सिनेमा पर सेंसर लगाने और भाषागत सुधार में अपेक्षा रखने से पहले हमें भोजपुरी को संवैधानिक अधिकार दिलाने की ज़रूरत है, जिससे उसका एक उचित मानक तैयार हो सके और उसे उचित सम्मान मिल सके।

 भोजपुरी भाषा का इतिहास समृद्धशाली था 

ऐसा माना जाता है कि भोजपुरी भाषा का इतिहास सातवीं सदी से शुरू होता है। भोजपुरी साहित्यकारों के अनुसार, सातवीं  शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के समय के संस्कृत कवि बाणभट्ट के विवरणों में ईसानचंद्र और बेनीभारत का उल्लेख है, जो भोजपुरी कवि थे। वहीं नवीं शताब्दी में पूरन भगत ने भोजपुरी साहित्य को आगे बढाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। बाबा किनाराम और भीखमराम की रचना में भी भोजपुरी की झलक देखने को मिलती है।

भोजपुरी केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी बोली जाती है। मारीशस सहित ऐसे कई देश हैं, जहां भोजपुरी को प्रमुखता से बोला जाता है। भोजपुरी भारत में बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश में मुख्य रूप से बोली जाती है, साथ ही पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश में भी बोली जाती है।

यदि देखा जाए, तो भारत के अधिकतर राज्यों में भोजपुरी बोलने वाले सामान्य तौर पर मिल जाएंगे, लेकिन एक कड़वा सच यह भी है कि अधिकतर बाहरी राज्यों में रहने वाले प्रवासी खुद सार्वजनिक रूप से भोजपुरी बोलने से कतराते हैं, वही मराठी, तेलगु, तमिल, बांग्ला ऐसे अनेक भाषा बोलने वाले अपनी भाषा में ही बोलने में सहज होते हैं।

अपने देश के साथ ही विश्व के अन्य देशों में भोजपुरी प्रमुखता से बोली जाती है 

श्रम एवं रोजगार मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश के अधिकतर या लगभग सभी हिस्सों में भोजपुरी बोलने वाले मिल जाएंगे। पूरी दुनिया भर में लगभग 8 देश ऐसे हैं, जहा भोजपुरी धड़ल्ले से बोली जाती है। यहां तक कि भारत के ही कई ढेर सारे गैर भोजपुरी राज्यों में भोजपुरी सिनेमा और गानों को बड़े ही उत्साह के साथ देखा व सुना जाता है अर्थात् एक भोजपुरी का एक बड़ा दर्शक वर्ग है। 

करोड़ों भोजपुरी भाषी भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता दिलाने हेतु कई बार अपनी आवाज़ उठा चुके हैं। पिछले लगभग पांच दशक से करोड़ों भोजपुरी भाषी उम्मीद लगाए बैठे हैं कि भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए, लेकिन आज भी लोगों की वह आस पूरी ना हो सकी है।

जबकि देश के तमाम नेतागण समय-समय पर भोजपुरी को लेकर वादे करते आए हैं। वहीं देखा जाए, तो दूसरे देशों में भोजपुरी को मान्यता मिल चुकी है, लेकिन अपने ही देश में अब तक भोजपुरी उपेक्षित है। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी यह एक मुद्दा था, करोड़ों भोजपुरी भाषियों से इसे संवैधानिक दर्ज़ा दिलाने को लेकर वादे किए गए थे।

यहां तक कि बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान भी इस मुद्दे को उठाया गया था, लेकिन सच यह है कि आज तक राज्य सरकार खुद इसे प्राथमिक राजभाषा का दर्ज़ा नहीं दिला सकी है। भोजपुरी भाषा को संवैधानिक दर्ज़ा दिलाए जाने के लिए पिछले पांच दशक से आंदोलन चल रहा है। कई बार सरकारों ने इसको लेकर आश्वासन भी दिया है, संसद में बहसें भी हुई, लेकिन इन सब का नतीजा कुछ नहीं निकला। 

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से भाजपा सांसद रविकिशन (जो भोजपुरी इंडस्ट्री के एक बड़े नाम हैं ) के संसद पहुंचने  पर भोजपुरी वासियों को एक उम्मीद ज़रूर बनी थी कि शायद अब कोई अपनी आवाज़ उठाने वाला हो, लेकिन सभी केवल कोशिश ही करते रह गए या कोशिश करने का नाटक करते रहे और आज तक भोजपुरी को संवैधानिक दर्ज़ा दिलाने में नाकाम रहे।

भोजपुरी भाषा को अब तक संवैधानिक दर्ज़ा नहीं दिया गया है 

यदि देखा जाए, तो पुरी दुनिया में नहीं, बल्कि अकेले भारत में ही भोजपुरी बोलने वालों की संख्या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से अधिक है, लेकिन भोजपुरी भाषियों से कम संख्या बल वाले मैथिली और नेपाली भाषा तक को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर दिया गया, लेकिन भोजपुरी आज भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है।

जब कभी बहुत ही गंभीरता से बात उठी, तो भी कभी बोली-भाषा का भेद बताकर तो कभी नियमों की अस्पष्टता का हवाला देते हुए इस मांग को दरकिनार कर दिया गया। ऐसे में भोजपुरी इंडस्ट्री में अश्लीलता के खिलाफ खड़े होने और भोजपुरी पहचान की गिरती साख को बचाने हेतु पहले हमें अपनी भाषा को एक संवैधानिक पहचान दिलाने और एक साहित्यिक मानक तैयार करने की ज़रूरत है।  

भोजपुरी को लेकर आज सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसे संरक्षित करने की दुहाई देने वाले अधिकतर नेतागण व प्रतिनिधियों ने खुद इसे एक मुद्दा बनाकर छोड़ दिया है, जबकि इसको लेकर लगातार लड़ाई नहीं लड़ी है। खेसारीलाल के गाने के बाद से छिड़ा विवाद आज एक खबर मात्र बनकर रह गई है।

 अधिकतर लोग भोजपुरी गानों और फिल्मों में फ़ैली अश्लीलता के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं, लेकिन आज भी यूट्यूब से लेकर अनेकों सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर अश्लीलता और द्विअर्थी भाव से भरे सैकड़ों गाने हर महीने रिलीज हो रहे हैं, जिसमें लहंगा, चोली, ढोडी, भौजाई और अन्य कामुक शब्द या भाव से संगीतकार ऊपर ही नही उठ पा रहा है।

अफसोस की बात यह है कि इन गानों के मिलियन में व्यूज हैं। ऐसे में समझ आता है कि यदि इन कंटेंट पर आपत्ति दर्ज़ कराने वालों की संख्या 5 है, तो इनको पसंद करने वालों की संख्या 100 है। हाल ही में लोकसभा सांसद रविकिशन ने खुद भोजपुरी में अश्लीलता पर रोक की मांग का समर्थन किया है और भोजपुरी गीत-संगीत और संस्कृति के प्रति अपनी चिंता जाहिर की है लेकिन यदि रविकिशन के भोजपुरी गानों का जखीरा खंगाला जाए, तो इसमें “तोहर लहंगा उठा देब रिमोट से” जैसे तमाम आपत्तिजनक कंटेंट मिल जाएंगे, जिन्हें एक सामान्य इंसान द्वारा या सार्वजनिक रूप से सुनना गवारा ना हो।

वर्तमान में भोजपुरी भाषा अश्लीलता का पर्याय बन चुकी है 

कुल मिलाकर देखा व समझा जाए, तो आज देश के अधिकतर हिस्सों में भोजपुरी की पहचान उसके अश्लील गानों व फिल्मों भर से रह गई है, जो सोशल मीडिया पर भारी मात्रा में उपलब्ध हैं। यदि कोइ गैर भोजपुरीवासी इंटरनेट पर भोजपुरी शब्द भी सर्च कर ले, तो इन अश्लील और बेतुके एल्बम के कवर ही दिखाए देंगे। 

एक निश्चित वर्ग, भोजपुरी प्रेमियों व या क्षेत्रवासियों द्वारा इसके खिलाफ आवाज़ लगातार उठाई जा रही है, लेकिन इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता दिखाई दे रहा है। वहीं भोजपुरी बेल्ट से ताल्लुक रखने वाले नेता और सेलिब्रिटी, जो आज भोजपुरी को अश्लीलता से दूर रखने की बात कर रहे हैं, वह खुद उसमें लिप्त हैं।

सही मायने में देखा जाए, तो उससे ही वह अपने खर्चे निकाल रहे हैं। इनके भोजपुरी गानों व सिनेमा में दिखाया जाने वाला समाज, संवाद, व्यवहार या गानों के बोल सही मायने में भोजपुरी समाज की झलक व यथार्थ नहीं, बल्कि उनके दिमाग की बेतुकी उपज है।

हमें अपनी भोजपुरी भाषा का संरक्षण करना होगा 

क्योंकि, वास्तविक रूप में आज भी भोजपुरी भाषा व संस्कृति की पहचान हीरा डोम, बुलाकी दास, दूधनाथ उपाध्याय, रघुवीर नारायण, महेंद्र मिश्र और भिखारी ठाकुर जैसे बड़े कलाकारों और कवियों से है, जिन्होंने अपनी रचना, नाटकों, कला-विधा और संगीत से भोजपुरी को एक नई दशा व दिशा दी है। इसके साथ ही भोजपुरी समाज को एक नई उंचाईयों तक लेकर गए। भिखारी ठाकुर एक कवि, गीतकार, नाटककार, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। उनकी कृति बिदेसिया, भाई-बिरोध, बेटी-बेचवा, कलयुग प्रेम उल्लेखनीय हैं।

मौजूदा दौर के अश्लील व द्विअर्थी भोजपुरी गानों और सिनेमा को दरकिनार करते हुए, भोजपुरी की पहचान को एक बार फिर एक नई ऊंचाईयों तक ले जाने के लिए और मूल भोजपुरी संस्कृति को स्थापित करने के लिए हमें  भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिश्र जैसे भोजपुरी नायकों को एक बार फिर समझने, पढ़ने और उनको बड़े पर्दे पर स्थापित करने की ज़रूरत है, जिससे लोगों के मन में भोजपुरी के प्रति फैले भ्रम को दूर किया जा सके और एक आदर्श भोजपुरी समाज और सिनेमा की छवि के साथ भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता दिलाने की मांग को तेज़ किया जा सके। 

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