कुछ हफ्ते पहले, मैं अपनी छत पर दोपहर की धूप के मज़े ले रहा था। तभी मेरा 5 साल का पड़ोसी कनक मेरे पास आया। वह बेचारा अकेला था और मेरे साथ बैठना चाहता था। मैंने उसे कहा कि वह उसी छत पर खेल रही लड़कियों के साथ जाकर खेले। देखो, वो तुम्हारी उम्र की हैं, मैं नहीं! मैंने कहा। नहीं, माँ ने लड़कियों के साथ बात करने या उनके साथ खेलने से मना किया है, उसने जवाब दिया।
लेकिन, अभी तुम्हारे पास और कोई ऑप्शन नहीं है, है ना। चाहे उसे जितना भी कठोर लगा हो, मैंने उस दिन उसके साथ खेलने से मना कर दिया। वो मेरा इंतज़ार करता रहा, अकेले और आखिर में अपनी माँ के बुलाने पर नीचे चला गया। मैं सोचने लगा, क्या बड़े होने पर कनक अपनी माँ के सिखाए सारे सबक भूल जाएगा? या जैसे आज सिर झुकाकर सारी बातें मान लेता है, वैसे ही मानता रहेगा? कल को औरतों के साथ उसका रिश्ता कैसा रहेगा? अपनी प्रेमिका या पत्नी के साथ उसके संबंध कैसे होंगे? क्या वो एक खुशहाल, भरा-पूरा रिश्ता बनाने में सफल होगा?
मेरी परवरिश एक निम्न-मध्यम वर्गीय परिवार में हुई है। पूर्वी भारत के कई छोटे-बड़े शहरों में पला बढ़ा हूं। ऐसे कहने को, तो हम बिल्कुल शहरी कॉलोनी में रहते थे, लेकिन दिल से समझो तो, गाँव में ही थे। मेरे पिता की तरह, वहां अधिकांश लोग अपने गाँव से बाहर निकलने वाले पहली या दूसरी पीढ़ी के ही लोग थे। मुझे भी कनक के जैसे ही सबक मिले थे। लड़के और लड़कियों को क्लास में अलग-अलग बिठाया जाता था, असेम्बली में अलग-अलग लाइन होती थी और खेल के मैदान में भी दोनों(लड़के-लड़कियां) अलग-अलग खेलते थे।
उन दिनों, ये सब आम था। एक लड़की या दीदी या बहन आपकी क्लासमेट हो सकती थी, लेकिन दोस्त नहीं। मैं क्लास 6 में था, जब पहली बार मेरे मन ने सेक्सुअल इच्छा से प्रभावित होकर एक पूरी फंतासी रच डाली थी।
यह वो टाइम था, जब पीछे की बेंच पर बैठने वाले बदमाश टाइप लड़के, कई तरह की डींग हांकते थे जैसे कि उन्होंने कैसे किसी लड़की को छुआ या कैसे किसी लड़की को अपनी गर्लफ्रैंड बनाया।
उनके बीच कभी-कभी, तो ब्लू फिल्म की कहानी पर चर्चा भी शुरू हो जाती थी। कभी-कभी मुझे भी शर्मिंदगी महसूस होती थी। पर कभी-कभी मैं उनकी बातें कान लगाकर, बड़े गौर से सुन भी लेता था। फिर मैं सोचता था- छी! बहुत गंदे लड़के हैं। ये अच्छे-बुरे का फर्क, कुछ वजहों से, मेरे अंदर घर कर गया था। पहली वजह यह थी कि मुझे मेरे घर में बार-बार कहा जाता था कि उन लड़कों से दूर रहना है।
दूसरी कि मुझे खुद पता था, कि मैं उनमें से एक नहीं था। मुझे उनकी बातें सुनकर घृणा भी महसूस होती थी, क्योंकि मैं अपनी उम्र की लड़कियों की दूसरी समस्याओं के बारे में भी सोचता था। हां, मैं उस छोटी उम्र में काफी संवेदनशील था, दूसरों के दर्द को फील करता था और जब भी लड़के किसी लड़की के बारे में गंदी बातें करते थे, मुझे बहुत बुरा लगता था। उदाहरण के लिए, जब मैं क्लास 7 में था, एक लड़की, जो मेरी क्लासमेट थी।
उससे मिलने मैं उसके घर गया लेकिन, हम बस थोड़ी देर के लिए ही बात कर सके। उसके चेहरे से साफ था कि वो मुझे घर के अंदर बुलाने में हिचकिचा रही थी और घर के बाहर ज़्यादा देर तक खड़े होकर बात करने का मतलब था, उसके अपने चरित्र पर उंगली उठवाना।
मुझे अपने आप पर थोड़ा गर्व, तो है कि तब अपनी उम्र के बाकी बच्चों से मैं कुछ ज़्यादा समझदार था। हा-हा! हालांकि, जब मैंने सेक्सुअल आकर्षण महसूस करना शुरू किया, तब मुझे ऐसा कोई नहीं मिला, जिसके पास जाकर मैं ये बातें कर सकता था। उस वक्त मुझे मेरे ख्याल बड़े डरावने, पेचीदा और बेवकूफी भरे लगे थे। वो 2G के दिन थे, जब इंटरनेट, तो भूल जाओ, मोबाइल फोन होना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि होती थी। उसी दौरान, एक बार, मुझे एक रंगीन मैगज़ीन का विज्ञापन मिला।
उसमें एक कम कपड़े पहनी मॉडल अपने सुंदर पैर दिखा रही थी। उफ! मैं अपने आप को रोक ही नहीं पा रहा था। मैं गौर से उसके पैर देख रहा था, जब मेरे एक दोस्त ने पकड़ लिया। उसने धमकी दी, कि वह मेरी माँ को सब बता देगा। इस बात से मैं बहुत डर गया था। मुझे सही में लगा, जैसे मैंने कोई गुनाह कर दिया हो।
स्कूल का आखिरी साल आने तक, प्यार, सेक्स, रिश्तों की उम्मीदें काफी हद तक दिमाग में कोई ना कोई आकार, तो ले ही चुकी थीं, लेकिन दरअसल हम में से लगभग किसी ने भी हकीकत में कुछ भी अनुभव नहीं किया था। एक लड़की कितनी लायक है, ये उसकी सुंदरता से आंका जाता था और एक लड़के को उसकी बात के अनुसार आंका जाता था कि उसे कितनी लायक लड़कियां पसंद करती थीं। पढ़ाई में हासिल किए गए बढ़िया नम्बरों से आपको खूब शाबाशी तो मिल सकती थी, लेकिन अगर लड़कियां आपके बारे में पागल नहीं थीं, तो जनाब, आप एक बुरी तरह हारे हुए इंसान थे।
जब मैं ग्रेजुएशन के लिए यूनिवर्सिटी गया, तब मेरी यह सोच और गहरी होती गई। मेरी ज़िंदगी ने इसमें कौन सा साथ दिया। वो तो ऊंच नीच, असंवेदनशीलता, कठोरता और मुकाबलों का जाल डाल के आपको फंसाने में लग जाती है।
आदमियों की भी कुछ ख़ास मुश्किलें होती हैं। आप चाहे जहां जाओ, वहां मर्द ज़्यादा मिलेंगे फिर चाहे वो यूनिवर्सिटी हो, आपके काम करने की जगह हो या कि डेटिंग वेबसाइट। पितृसत्तता की रूढ़िवाद सोच आदमियों के फायदे में होती है, लेकिन यह फायदा सिर्फ उनको होता है, जिन्होंने समाज के कुछ पुराने नियमों के हिसाब से ही अपने को सफल बनाया है।
खासकर वो नियम जो विषमलैंगिकता को ही नार्मल मानता है। मैं तो खुद एक हारे हुए इंसान की तरह महसूस करने लगा था, क्योंकि जिस लड़की को मैं प्यार करता था, वो मुझे भाव ही नहीं दे रही थी। लड़की के इनकार का दर्द इतना था, कि उसके आगे पढ़ाई में गिरते नंबरों का कोई मोल ही नहीं था, लेकिन हम मर्दों में परिपक्वता के बीज इतनी आसानी से कहां पनपने वाले थे।
दूसरी तरफ, औरतों को भी कुछ और टेड़े-मेढ़े सबक सिखाए जाते हैं और वो भी कहीं ना कहीं, उनको ही मान के चलती हैं जैसे कि यह आईडिया कि आदमी ही पालनकर्ता होता है। जाने अनजाने में, औरतें ऐसे रूढ़िवादी रीति-रिवाज़ों को प्रोत्साहित करती हैं।
इस सब के साथ-साथ, मेरा खुद के ऊपर से उठता भरोसा, खुद में कम कॉन्फिडेंस होना यानी यूं समझो कि इन सबको मिलाकर मेरे पास मुसीबत को दावत देने वाला नुस्खा था ! तो बस, यहीं से मेरी चिंताएं बढ़ने लगीं और खुद के अंदर एक बोझ सा महसूस होने लगा।
जबकि शायद मैं हमेशा से ही एक शर्मीला, अंतर्मुखी, पढ़ाकू किस्म का आदमी रहा था, जो क्रिकेट खेलने के बजाय पुरानी किताबों और कॉमिक्स के बीच अपनी गर्मियों की छुट्टियां बिताता था। स्वयं के ऊपर से भरोसा उठ जाना, ये प्रॉब्लम मेरे साथ किशोरावस्था के आखिरी चरण के साथ शुरू हुई।
अगर मैं किसी की तरफ आकर्षित होता था, तो बस, उसे इम्प्रेस करने का बोझ लेकर घूमने लगता था। मेरा मानना था कि अगर मेरी कोई गर्लफ्रेंड होगी, तो इससे और सारे लोग मुझे ज़्यादा आकर्षक मानेंगे। हारने और इस दौड़ से बाहर हो जाने का डर, मेरे दिमाग में हमेशा घूमता रहता था। इसका मतलब यह नहीं है कि कोई लड़की मेरी अच्छी और सच्ची दोस्त नहीं थी, बल्कि तब भी थी और आज भी हैं।
लेकिन, मेरा मन अक्सर बेचैन सा घूमता रहता था। उसे मान्यता चाहिए थी, किसी के मन में अपनी अभिलाषा चाहिए थी और इस सब से, एक जीत का एहसास चाहिए था। ये बेचैनी तब भी खत्म नहीं हुई, जब मुझे एक बहुत सुंदर, बहुत ही समझदार प्रेमिका मिली। वो, जिसे मैंने बहुत प्यार किया था और जो मेरी सबसे अच्छी दोस्त भी थी!
प्रतीकात्मक तस्वीर
जब मैं दिल्ली शिफ्ट हुआ, तो मुझे हमेशा ऊंचे वर्ग की दिल्ली की लड़कियों से पहचान बनाने को जी करता था। मुझे लगता था कि उससे मैं अपनी ज़िन्दगी में और लायक हो जाऊंगा, मुझे मेरी ‘असली औकात’’ का पता चलेगा लेकिन, सच तो यह है कि मेरा खुद के ऊपर से विश्वास उठ चुका था, मेरा कॉन्फिडेंस बहुत कम था। उसकी वजह से, मैं हमेशा इस बड़े शहर का होने में लगा रहता था।
उन लोगों द्वारा अपनाए जाने में, जिनसे मैं दरअसल रश्क खाता था और लगभग हमेशा ही साधारण से साधारण चीज़, जैसे कि नए लोगों से मिलना, नए शहर को समझना, लड़कियों से पहचान बनाना, सब एक जंग जैसा लगता था।
एक ऐसी लड़ाई, जो मुझे हर कीमत पर जीतनी ही थी। ये सारे उथल-पुथल ख्याल, ये नई लालसाएं, मैं इनको लेकर कुछ खास हासिल नहीं कर पा रहा था, ना ही इन पर काबू पा रहा था। ऐसी ही एक रात, मैंने अपनी एक एक्स गर्लफ्रैंड, जिसके साथ मेरा महीने भर का रिश्ता रहा था, उसे मैसेज किया और उसे कहा कि मैं आज भी उसे पसंद करता हूं और अगर हम मिल सके, तो मैं उसे किस करना और उसके साथ सेक्स करना चाहता हूं।
उस समय, मैं पहले से ही एक ऐसे रिश्ते में था, जहां मैं खुश था। फिर भी मैंने ऐसे मैसेज अपनी पुरानी गर्लफ्रैंड को भेजे, क्यों? हम दोनों काफी महीनों के बाद बात कर रहे थे और मुझे काफी बेचैनी और हीनता सी महसूस हो रही थी। मैं जिससे बात कर रहा था, उसे मैं कुछ समय पहले प्यार करता था। मैं उसके साथ रिश्ते में था, पर उसने कभी मेरे लिए अपनी चाहत ज़ाहिर ही नहीं की। मुझे इसी बात से तकलीफ थी।
एक साल बाद, मुझे एम.ए. के लिए एक नामी इंस्टीट्यूट में दाखिला मिला, जहां मुझे कुछ अनोखे लोगों से मिलने का मौका मिला। मुझे साथ पढ़ने वाली कुछ लड़कियां पसंद भी आईं। मैंने उनसे बात करने, उनको दोस्त बनाने की सोची, ताकि देखूं अगर मुझे उनमें से कोई स्पेशल तरीके से पसंद आती है या नहीं और बस, फिर से वही चिंता, वही दबाव महसूस होने लगा।
मैं, कई बार, इम्प्रेस करने के लिए, ज़्यादा मज़ाकिया, ज़्यादा हाज़िर जवाब या ज़्यादा ही बुद्धिमान बनने की कोशिश करता था। ऐसा नहीं था कि ये सब एक नाटक था फिर भी मैं हमेशा अपना आकर्षक, कूल, आत्मविश्वास से भरा हुआ रूप ही सबके सामने रखना चाहता था। कभी-कभी मुझमें वो सब करने की एनर्जी भी नहीं थी, मेरा मन सच में ये सब नहीं करना चाहता था यानी फिर से पानी मेरे सिर से ऊपर जाने लगा था।
उसी दौरान मैंने ऑनलाइन की गई बातों को ऑफलाइन से अलग समझना बंद कर दिया। हर समझने वाली चीज़ को नज़रअंदाज़ कर दिया। जैसे कि ये कि हर किसी को एडल्ट मज़ाक पसंद नहीं आता है या यह कि किसी को फ़्लर्ट वाले मैसेज भेजने से पहले, उन लोगों के साथ एक बातचीत वाला रिश्ता होना ज़रूरी है। इसका नतीजा यह हुआ कि कुछ लड़कियों को मुझसे बात करना असहज लगने लगा और कुछ शायद बुरा मान गईं। मुझे अफ़सोस हुआ, क्योंकि मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था।
लेकिन, मुझे पता था कि इसका ज़िम्मेदार भी मैं ही था। इन अनुभवों के बाद, मैंने खुद पर भरोसा करना छोड़ ही दिया। एक लड़का, जो बचपन से ही इतना संवेदनशील था कि उसने कभी किसी को चोट नहीं पहुंचाई, वो आज एक ऐसा आदमी बन गया था, जिससे हर किसी को परेशानी हो रही थी और सबसे ज़्यादा दर्द, तो मैंने अपनी प्रेमिका को दिया, जो कि सचमुच मुझसे प्यार करती थी।
उसे पता था कि मुझमें आत्मविश्वास की कमी थी, लेकिन फिर भी उसे उम्मीद थी, कि मैं कम से कम उसके साथ ईमानदार रहूंगा लेकिन उसे खोने के डर से, मैंने ईमानदारी से भी समझौता कर लिया और इस तरह उसे, पूरी तरह से ही खो दिया। वो फिर कभी मेरे पास नहीं लौटी।
ये लायक आदमी बनने के प्रेशर के साथ-साथ, जो मन में उथल-पुथल, बेचैनी, हीन होने की फीलिंग आती है, वो हर वक्त धूमधाम से नहीं आती है। अक्सर, इस लायक होने वाले आईडिया का असर, बड़ा बारीक सा होता है, जैसे किसी ने सुई लगा दी हो। मेरी एक प्रेमिका थी, हमारे बीच बहुत खूबसूरत रिश्ता था। ऐसा जिसमें आप पहले दोस्त बनते हैं, फिर सबसे अच्छे दोस्त और फिर साथी/पार्टनर्स बनते हैं।
मैं दिल्ली में था और वो वाराणसी में पढाई कर रही थी। हमारे बीच एक मज़बूत सा रिश्ता बन गया था। हम रात-रात भर एक-दूसरे से बातें किया करते थे, बिना ये सोचे कि अगले दिन ऑफिस और कॉलेज भी जाना होगा। हमने एक-दूसरे के साथ अपनी वो यादें साझा की थीं, जो कोई अपने सबसे करीबी दोस्तों या भाई-बहनों से भी नहीं बांटते हैं।
हम एक-दूसरे के मूड को समझ सकते थे और जब कोई किसी बात को लेकर परेशान हो, तो उसकी मदद भी करते थे। कई बार तो हम बच्चों जैसी हरकतें भी करते थे, हा हा! लेकिन कभी-कभी, जब मैं थका हुआ होता था या मेरा दिमाग दूसरी चीज़ों में उलझा होता था, तो मैं उसे ये बता भी नहीं पाता था। अगर मुझे उसकी कोई बात बुरी लगती थी, तो मैं उसे बताने से डरता था। हमेशा ये डर रहता था, कि मैं कुछ गलत कर दूंगा और वो मुझे छोड़ देगी। ये सोच बार-बार मेरे दिमाग में घूमती रहती थी।
ऐसा नहीं था कि वो मुझे सुनती या समझती नहीं थी, लेकिन मेरी हिम्मत ही मानो लड़खड़ा गई थी। इसलिए भले ही मेरे पास एक इतनी अच्छी लड़की थी, फिर भी मैं पूरी तरह से खुश नहीं था। प्यार ने, मेरे गिरते आत्मविश्वास को या खुद पर कम होते हुए भरोसे को वापस लाने में मदद नहीं की। मेरी बेचैनी बनी रही और मैं हमारे लॉन्ग डिस्टेंस/ दूरी वाले रिश्ते से निराश और असंतुष्ट होने लगा। उस वक्त मैं ये भूल गया या इस बात को नज़रअंदाज़ कर गया, कि ये दूरियां हमेशा थोड़े ही रहने वाली थीं।
प्रतीकात्मक तस्वीर
अब जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं, तो मुझे मेरी इन फीलिंग्स का मतलब समझ में आता है। आपको पता है, अच्छा प्यार, जो आपके मन की गहराईयों में जा बसे, कामोन्माद/ ओर्गास्म जैसे होता है। भले आपने इसका स्वाद कभी ना चखा हो, लेकिन फिर भी आपको पता होता है कि आपको वो ही चाहिए। आप उसके लिए तरसते रहते हैं और फिर अगर वो आपको मिल जाता है, तो आप उछल पड़ते हैं।
आपको वो बहुत अच्छा लगता है, आप उसे हमेशा अपने पास रखना चाहते हैं पर वो रुकता नहीं! एक दिन, आपको तड़पता छोड़ कर, वो चला जाता है। आप पागल हो जाते हैं, उसके पीछे जाना चाहते हैं, लेकिन वो आपसे बच निकलता है।
रात में अगर आकाश को देखो, तो पूरा अंधेरा रहता है, वहां बस गिने-चुने तारे यहां-वहां बिखरे होते हैं पर सबका ध्यान उन्हीं तारों की तरफ जाता है। बस उसी तरह, प्यार भी सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है। आनंद के कुछ सेकंड, राहत के कुछ पल, हमें ऐसी गहराई तक छू लेते हैं, जिस गहराई को हम कभी जानते भी नहीं थे। जिस तरह फिल्म ओम शांति ओम में अभिनेता शाहरुख खान अभिनेत्री दीपिका पादुकोण की एक झलक देखकर ही मंत्रमुग्ध हो गया था।
इसी को, तो मैं प्यार का अत्याचार या प्यार का सितम कहता हूं। कितनी दिलचस्प सी बात है कि दोनों का मतलब एक ही है, लेकिन अत्याचार सुनकर ऐसा लगता है जैसे मैं उस प्यार के खिलाफ क्रांति रचने वाला हूं। वहीं सितम कहने से ऐसा लगता है जैसे मैं 60 के दशक का बॉलीवुड शायर बन गया हूं, जो कोई क्लासिक लिखने निकला हो।
खैर, प्यार का सितम का मतलब यह है कि प्यार हमारी ज़िंदगी में खालीपन भरने का दावा, तो करता है, लेकिन असल में चाहे वो कितना भी चाशनी में डूबा, पागलपन से भरा प्यार हो, वो हमारे अंदर का बस एक छोटा सा हिस्सा ही भर पाता है।
हम ओम शांति ओम फिल्म के अभिनेता शाहरुख खान नहीं हैं। एक बार जब दीपिका घूमकर अंदर चली जाएगी, तो आप सपने से बाहर निकलेंगे फिर देखेंगे कि आप बस रेड कार्पेट पर खड़े एक फैनबॉय हैं, जिसे बॉडीगार्ड घसीटकर बाहर निकाल रहा है और ये शोर, भीड़ का शोर है, ना केवल कविता कृष्णमूर्ति का सुरीला स्वर।
सबसे अजीब बात यह है कि प्यार की इस लिमिटेशन को समझ कर, मेरी बेचैनी बढ़ी नहीं, बल्कि कम हो गई और ये बदलाव ना ही आसानी से हुआ, ना अचानक। मैं सच कहूं? मैं ये लेख उस दिन के डेढ़ साल बाद लिख पा रहा हूं, जिस दिन मैंने ईमानदारी से यह मान लिया था कि मुझे खुद को सुधारने की ज़रूरत है।
मैं बस यह चाहता था कि लोग मुझे चाहें, मेरी तरफ आकर्षित हों। एक किशोर और एक युवा एडल्ट के रूप में, मैं इस तरह की सोच को बनाने-मिटाने की उधेड़बुन में फंसा हुआ था। कभी, तो मैं इस सब के प्रति बिल्कुल लापरवाह रहता, तो कभी बहुत हताशा महसूस करने लगता था। मैं सोचता था कि मेरा कोई ऐसा रिश्ता हो, जहां मैं सच में किसी को प्यार करूं और मेरा पार्टनर भी मुझे सचमुच चाहे।
यूं लगता कि ऐसा प्यार मिलने से मुझे खुद पर कॉन्फिडेंस आने लगेगा, लेकिन दरअसल जब मैं ऐसे रिश्ते में था, वो सब कुछ होते हुए भी मेरी ज़िंदगी में बदलाव नहीं हुए और ना ही मेरी ज़िन्दगी बदली थी। मेरी ज़िन्दगी उस के बाद भी वही सामान्य, सांसारिक, अंधकार से भरी रही, बल्कि जब मैंने अपने हालात और अपनी मनोस्थिति को समझने की कोशिश शुरू की, तब कहीं जाकर मैं अपने बारे में बेहतर महसूस करने लगा और उसके बाद मेरा आत्मविश्वास बढ़ा।
मैं अभी भी चाहता हूं कि लोग मुझे चाहें, मुझसे आकर्षित हों, लेकिन अब मैंने इसके पीछे भागना बंद कर दिया है। मैं पहले की तरह स्वयं पर एक अलग तरह का दबाव, तो महसूस करता हूं, लेकिन उसमें अपने को फंसा हुआ महसूस नहीं करता हूं।
अपने इस सफर में मुझे कुछ ऐसी चीज़ें मिलीं, जो मेरे बहुत काम आईं जैसे कि अपने आपको संजीदा रूप से परखना, ज़रूरी बातें लिखना, अपनी परेशानियों के बारे में बात करना, काउंसलिंग लेना, खुद की मदद करने वाली अच्छी किताबें पढ़ना, नए लोगों से मिलना और अपनी कमज़ोरियों या पिछली गलतियों को किसी के साथ बांटने में संकोच नहीं करना। ये सब संवेदनशील काम करते हुए, शायद आप अपनी वो आकर्षक मरदाना इमेज से थोड़ा दूर चले जाएंगे, लेकिन कम से कम बेकार की चिंता -परेशानी से मुक्ति पा लेंगे।
अगर कोई लड़की तब भी आपको पसंद करे, तो मेरे शाहरुख खान, आपको आपकी काजोल मिल गई है। अब अगर उसके पापा अमरीश पुरी भी हों, तो तुम्हें पता ही है, कि इस मुश्किल का हल कैसे करना है!
आनंद किसी गाने को बार-बार सुनते हैं, फिर वो गाना खत्म हो जाता है और वो उस गाने का नाम भूल जाते हैं। फिर रोते हैं कि उसे सेव (save) क्यों नहीं किया। वो उम्मीद करते हैं कि मरने से पहले वो एक समझदार, दूसरों का ख्याल रखने वाले, एक बेहतर और एक संजीदा इंसान बन पाएंगे।
लेख- आनंद यादव द्वारा
चित्रण- पूर्णता
अनुवाद- नेहा मिश्रा