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आधुनिकता की चकाचौंध में विस्मृत होती लालटेन की संस्कृति

आधुनिकता की चकाचौंध में विस्मृत होती लालटेन की संस्कृति

“लालटेन, लालटेन जरा के धरब रानी तोहके पजरिया”, गाँव-गिरोह से लेकर नगरों तक में रात के अंधेरे का आसरा लालटेन की पहचान और इसका उपयोग अब शायद केवल भोजपुरी के अश्लील गानों तक ही सिमट कर रह गया है। एक समय लालटेन हर घर में बहुत ही सामान्य और ज़रूरी वस्तु थी, लेकिन अब धीरे-धीरे जैसे यह महज़ एक इतिहास का हिस्सा बनकर रह गई है। 

लालटेन शब्द अंग्रेजी भाषा के लॅन्टर्न शब्द का अपभ्रंश है। लालटेन को ढ़िबरी का अपडेटेड और आधुनिक वर्जन कहा जा सकता है। दरअसल, ढ़िबरी अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत प्रचलन में रही है। घर में खाली पड़ी किसी कांच की बोतल या टीन के डिब्बे से ढ़िबरी बना ली जाती थी, जिसके ढ़क्कन में छेद करके एक लम्बा सूती कपड़ा डाल दिया जाता था और डिब्बे/कांच के बोतल में केरोसीन तेल भर दिया जाता था, ऐसे ढ़िबरी तैयार की जाती थी। 

ढ़िबरी

इसके बाद लालटेन उस समय के अनुसार थोड़ा खर्चीला, लेकिन बेहतर विकल्प होता था। लालटेन में एक खास तरह की बत्ती (मोटे कपड़े का एक फीता) पड़ती है और इसे भी केरोसीन तेल के माध्यम से जलाया जाता है, जिसे कुछ जगहों पर घासलेट और मिट्टी का तेल भी कहा जाता है। अधिकतर परिवार लालटेन जलाने के लिए हर महीने  सरकारी गल्ले से मिलने वाले केरोसीन तेल पर निर्भर होते थे।

कुछ साल पहले तक लालटेन की महत्ता घर-घर तक थी, लेकिन बदलते समय और शहरीकरण के साथ-साथ रोशनी देने वाली यह लालटेन खुद घर के किसी कोने में अंधेरे की गिरफ्त में समा गई है या तो कूड़ेदान में विसर्जित कर दी गई है।

आज भी यह कहीं-कहीं किसी सुदूर व बेहद पिछड़े इलाकों में उपयोग में ली जाती है, लेकिन अधिकतर या हम कह सकते हैं कि लगभग हर जगह अब लालटेन की जगह चार्जेबल लैम्प या इनवर्टर ने ले ली है। शहरी क्षेत्रों से लालटेन पूरी तरह से नदारद हो चुकी है, क्योंकि अब इनवर्टर हर मध्यमवर्गीय व निम्न मध्यमवर्गीय घरों में सामान्य हो चुका है।

ग्रामीण क्षेत्रों में पहले लालटेन सामाजिक सौहार्दता की परिचायक थी 

लालटेन केवल घरों में उजाला फैलाने भर का माध्यम नही था, बल्कि परिवार के बीच खुशियों और निकटता फैलाने और माहौल को प्रकाशित करने का भी एक माध्यम होता था। रोज़ शाम होते ही हर घर में किसी एक सदस्य की ज़िम्मेदारी बनती / होती थी, उस लालटेन के शीशे को साफ करने की, उसकी बत्ती को साफ करने की और उसमें तेल भरने की। यदि कोई ना हुआ, तो घर के बुजुर्ग शाम ढलने से पहले ही लालटेन की तैयारी और सफाई को लेकर परिवार के सदस्यों को फटकार लगाना शुरू कर देते या खुद ही लेकर बैठ जाते हैं।

ग्रामीण संस्कृति की परिचायक लालटेन

सामान्य तौर पर हर घर में दो या तीन लालटेन होते थे, यदि रात में बिजली समय से और पर्याप्त रहती हो, तो एक से भी काम चलाया जाता था। घर में जहां कहीं भी लालटेन रखा जाता था, उसके इर्द-गिर्द ही घर के सारे बच्चे इकठ्ठा होकर साथ पढ़ाई करते थे, वहीं पास दादा या दादी बैठ गए, तो उसी समय उनके द्वारा हमारी पढ़ाई का आकलन भी किया जाता था, बहुत अच्छा मूड होता, तो उनसे हमें कहानियां भी सुनने को मिलती थीं।

वहीं गाँव-चौपाटी पर लालटेन की रोशनी देख लोग एक साथ बैठ पूरे गाँव की खोज-खबर रख लिया करते थे। चारों तरफ पसरे अंधेरों के बीच कहीं रोशनी के बहाने सभी एक-दूसरे के करीब होते थे, दुःख-सुख बांटते या एक-दूसरे की खोज खबर रखते थे।

हमारी आधुनिक ज़रूरतों ने हमारी ग्रामीण संस्कृति को तज दिया है 

लेकिन, बदलते समय और ज़रूरतों के अनुसार घर के आंगन या किसी एक कमरे में पड़ा लालटेन अदृश्य होता गया और चार्जेबल एलईडी बल्बों और इनवर्टर ने लोगों को अलग-अलग कमरों में बंद कर दिया। अब सभी अपने-अपने अनुसार अपने जीवन में रोशनी भर रहे हैं। कमरें, छत या बालकनी में एकांतवास में जी रहे हैं, लेकिन आंगन व घर के चबूतरें वीरान पड़े हैं।

आज लालटेन हमारे सुखद अतीत का हिस्सा बनने की कगार पर है, हमारी आने वाली पीढ़ी शायद किताबों में ही पढ़ पाए और शायद उनके लिए लालटेन जलते हुए देखना एक अजूबा लगे। मौजूदा समय में भी कई शहरी क्षेत्रों के बच्चें, खास तौर पर अपर क्लास फैमिली के बच्चे इससे अनभिज्ञ हैं।

हां, भोजपुरी इंडस्ट्री के कुछ स्वघोषित महान गायकों ने ज़रूर इसे अपने अश्लील गानों में ज़िंदा रखा है, जिनके अनुसार लालटेन का उपयोग केवल गोरी के पतरी कमरिया पकड़ने और लहंगा में जलाने के लिए रह गया है। 

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