जो लोग खुद को सामान्य कहते हैं, उनकी पत्नी या पति के साथ-साथ बच्चे भी होते हैं लेकिन हम कहां जाएं? हमारे केवल कुछ दोस्त थे और वो भी चले गए। इमरान ने लव मैटर्स को बताया कि कैसे कोरोना वायरस महामारी ने उन्हें और एल.जी.बी.टी समुदाय के और लोगों को प्रभावित किया है।
हमारे लिए समाज में हमेशा से ही लॉकडाउन रहा है
लॉकडाउन होना हमारी नज़र में कोई नई बात नहीं है। हमारे लिए समाज में यह लॉकडाउन हमेशा से मौजूद रहा है। समाज में हम स्वयं को स्थापित करने के लिए हमेशा से हम अपने लिए रोज़गार ढूंढते आ रहे हैं। मेरा सपना था कि मैं एक टीचर बनूं, जिसके लिए मैंने दिन-रात एक कर दिए थे। मेरी पढाई खत्म होने के बाद मैंने स्कूलों में जॉब के लिए अप्लाई करना शुरू किया।
ओखला के मशहूर स्कूल में मुझे 2016 में मेरी मनचाही टीचर की नौकरी मिली। प्रिंसिपल ने मेरा इंटरव्यू लिया और मुझे नौकरी पर रख लिया गया। तीन दिन तक मेरी ट्रेनिंग हुई और मैं अपने सीनियर टीचरों की उम्मीदों पर खरा उतरा। वहीं जब इंचार्ज साहब ने मुझे देखा, तो उन्होंने मुझसे छूटते ही बोला आप मेरे रूम में आइए।
मैं उनके रूम में गया और उनके किए गए प्रश्नों से मैं परेशान हो गया। उन्होंने मुझ पर सवालों की बौछार कर दी, ‘क्या आप गे हैं? आपकी बोली कुछ औरतों जैसी है। आप टीचर क्यों बने? आप फैशन डिज़ाइनर, मीडिया इन सब क्षेत्रों में जाते। आपके ऐसे बर्ताव से हमारे स्कूल के बच्चों पर गलत असर पड़ेगा।
मैंने उनसे कहा सर मैं तीन दिन तक ट्रेनिंग कर चुका हूं। मुझे मेरे सीनियर्स ने कंसीडर कर दिया है और मैं खुश हूं कि बच्चों को मेरा पढ़ाया हुआ समझ आ रहा है। इसके बाद आग बबूला होकर उन्होंने मुझे वहां जॉब करने से साफ इनकार कर दिया।
कॉल सेंटर की नाइट शिफ्ट की मानसिक रूप से परेशान करने वाली नौकरी
इन सब बातों से निराश और तंग आकर, मैंने एक कॉल सेंटर में नौकरी ले ली। वहां काम करने के मेरे अनुभव ने मुझे भावनात्मक और शारीरिक दोनों तरह से प्रभावित किया। मुझे अब भी नहीं पता है कि अन्य लोगों के लिए समलैंगिक होने का मतलब यह था कि मैं सेक्स का भूखा हूं। गार्ड से लेकर मेरे सहकर्मियों तक ने मेरा बहुत मज़ाक उड़ाया, मुझ पर गन्दी-गन्दी टिप्पणियां करीं। मैं समलैंगिक होने के लिए खुद से नफरत करने लगा।
हमारे काम को कम करके आंका जाता है, लोग हमारा मज़ाक उड़ाते हैं और उन्हें लगता है कि हम हमेशा सेक्स के लिए उपलब्ध हैं। मेरे जैसे और भी कई लोग हैं, जिन्होंने इसे अपनी किस्मत ही मान लिया है। उन्हें इस तरह से मज़बूर किया जाता है कि उन्हें कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझता है।
जब मैं इस मानसिक और शारीरिक दवाब को और नहीं ले सका, तो मैंने अपनी कॉल सेंटर वाली नौकरी छोड़ने और घर पर बैठने का फैसला किया। मैंने कुछ बच्चों को अपने ही घर पर ही ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया और इससे अपना खर्चा निकालना शुरू किया।
घर से काम करना एक तरह से मेरे लिए बाहर की दुनिया से बातचीत बंद करने का एक तरीका था, क्योंकि मैं अन्य लोगों की किसी भी अप्रिय टिप्पणी से बचना चाहता था। ट्यूशन लेते हुए मैंने अपने काम को इस तरह से प्लान किया कि मुझे बिल्कुल भी बाहर नहीं जाना पड़े। मैंने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया, जो लोगों के ताने सुनने से कहीं बेहतर था। इससे मुझे खाना और दवाओं के लिए पर्याप्त पैसा कमाने में मदद मिली।
फिलहाल कोरोना के बाद से मेरे हालात अच्छे नहीं रहे हैं। सभी बच्चों ने मेरे पास से अपने ट्यूशन छुड़वा लिए और मेरे पास अपने जीवनयापन हेतु आय का बस वही एक साधन था।
लॉकडाउन से मेरी बद से बदतर हालत हो गई है
मौजूदा हालात में हम सभी पर दोहरी मार पड़ी है। पहले हालात बदतर थे और अब और भी ज़्यादा बदतर हो गए हैं। पहले बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर कुछ पैसे कमा लेता था, अब लॉकडाउन के बाद वो सब भी बंद हो गया है। कई बार हालात ऐसे बन जाते हैं कि रात को भूखा सोना पड़ता है। दूध या दूध से बनी चीज़ों का इस्तेमाल मैंने आखिरी बार फरवरी 2020 में किया था। अब कहीं राशन बंट रहा होता है, तो वो ही मिल जाए तो बहुत गनीमत होती है।
मैं शारीरिक रूप से स्वयं को कमज़ोर महसूस करता हूं। मेरे पास जीवित रहने के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं। यही मेरे जीवन की असल हकीकत है।
मैं मानसिक और भावनात्मक रूप से संघर्ष कर रहा हूं। मेरी आर्थिक स्थिति खराब होने के बाद, मेरे मानसिक स्वास्थ्य पर भी बहुत बुरा असर पड़ा है। परिवार के बाहर के लोगों के साथ मेरे कुछ ही संबंध हैं। इनमें से कुछ ने दिल्ली छोड़ दिया है, जबकि अन्य जो आसपास थे, उन्होंने घर से बाहर निकलना बंद कर दिया है।
हर किसी के पास कोई ना कोई होता है। जो खुद को सामान्य कहते हैं, उनके साथ उनकी पत्नी या बच्चे भी होते हैं। उनका एक परिवार होता है, लेकिन मैं कहां जाऊं?
समाज के सामाजिक ढांचे में हमें शुरू से ही भेदभाव का सामना करना पड़ा है
बचपन से मैंने ताने सुनते-सुनते, वैसे ही खुद को चारदीवारी में समेट लिया था। इसके बाद यह कोरोना और लॉकडाउन ने मुझ को बेहद कमज़ोर कर दिया है। सभी अक्सर मेरे रोने और कमज़ोर पड़ने पर मुझे यही समझाते आए हैं कि इमरान खुद को मज़बूत बनाओ, स्ट्रांग बनो। इमोशनल मत रहो। मुझे मज़बूत होने के लिए मेरे बचपन में एक बेहतर परवरिश की ज़रूरत थी। मुझे इनमें से कुछ भी नहीं मिला।
मगर मुझे खुद के अंदर कोई कमी नज़र नहीं आती। कहीं ना कहीं माँ की गोद की और पापा के आगोश की ज़रूरत मुझे पड़ती है। हम चाहे जितने भी बड़े क्यों ना हो जाएं। जब हमारे पास ऐसा कोई मौजूद नहीं होता, तो हम दूसरों में अपना सहारा ढूंढने लगते हैं।
कोरोना काल ने मुझसे मेरा रोज़गार, तो छीना, इसके साथ ही ऐसे रिश्ते भी दूर कर दिए जिनके साथ होने से मुझे ताकत महसूस होती थी। कोई ऐसा कंधा होता था, जहां मैं सिर रख कर रो सकता था। फिलहाल मैं ज़िन्दगी जी नहीं रहा, काट रहा हूं।
यूं, तो 2018 में समलैंगिक संबंधों को भारत में वैध करार दे दिया गया है, लेकिन भारत के LGBTQIA + समुदाय की मुश्किलें अभी पूरी तरह से खत्म नहीं हुई हैं। अभी बहुत से ऐसे मुद्दे हैं, जहां उन्हें विषमलैंगिक और सिजेंडर लोगों के मुकाबले आए दिन भेदभाव और मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। उनके अधिकारों की प्राप्ति के लिए लड़ाई अभी भी जारी है।
भारत के LGBTQIA + समुदाय को अब भी विवाह, गोद लेने, बीमा, विरासत, सामाजिक स्वीकृति के साथ-साथ आजीविका जैसे मुद्दों पर समान अधिकारों के लिए संघर्ष करना पडता है। अंतर्राष्ट्रीय प्राइड मंथ 2021 को चिह्नित करने के लिए और उनके इस संघर्ष को उजागर करने के लिए, लव मैटर्स इंडिया जून में उनसे जुडी हुईं कहानियों की एक श्रृंखला प्रकाशित करेगा।
नोट- 30 साल के इमरान खान दिल्ली में रहते हैं, जो कि एक समलैंगिक हैं।
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