फोबिया शब्द अक्सर हमारे दिनचर्या से जुड़ा होता पाया गया है। एक्रोफोबिया, हेमोफोबिया, कलॉस्ट्रोफोबिया आदि। किसी को ऊंचाई से डर लगता है, तो किसी को बंद दरवाज़ों से। किसी को उड़ान भरने से, तो किसी को खून देखते ही पसीने छूट जाते हैं।
विज्ञान कहता है ये सब प्राकृतिक है। संयुक्त राज्य अमेरिका में फोबिया सबसे आम मानसिक बीमारियों में से एक है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ का सुझाव है कि 8% अमेरिकी वयस्कों में किसी ना किसी प्रकार का फोबिया है।
यह, तो हुआ फोबिया जो किसी ना किसी वजह से होता है। वहीं उस फोबिया का क्या करें, जिसके जर्म्स बचपन से ही समाज में रहने वाले लोगों के दिमाग में बो दिए जाते हैं। मेरा यहां इशारा दुनिया भर में फैल रहे ‘इस्लामोफोबिया’ की तरफ है। किसी धर्म को लेकर डर? ये डर मानसिक नहीं, बिल्कुल नहीं। यह ब्रेनवॉश का नतीजा है। जो हम अपने बच्चों को परवरिश के दौरान थोड़ी-थोड़ी मात्रा में दवाई के तौर पर देते रहते हैं। ये उसी का नतीजा है।
इस्लामोफोबिया शब्द पहली बार 1991 की रननीमेड ट्रस्ट रिपोर्ट में एक अवधारणा के रूप में पेश किया गया था और इसे मुसलमानों के प्रति निराधार शत्रुता और मुसलमानों का डर या नापसंद के रूप में परिभाषित किया गया था। यह शब्द विशेष रूप से यूके में मुसलमानों के संदर्भ में और सामान्य रूप से यूरोप में गढ़ा गया था। यही शब्द आज पूरी दुनिया में मुसलमानों के लिए जी का जंजाल बना हुआ है। केवल मुसलमान ही नहीं, बल्कि मानवता और समानता के पथ पर चल रहे सैकड़ों लोगों के लिए भी एक विचारशील मुद्दा बना हुआ है।
इस्लामोफोबिया का प्रभाव कोई नया नहीं है। यह बहुत पुराना रिवाज़ है। समय के साथ-साथ विश्व में इस्लामोफोबिया सामान्य और मुख्यधारा बनता जा रहा है। वहीं अगर हम हमारे देश भारत की बात करें, तो यह समझना ज़रूरी हो गया है कि कैसे और क्यों, मुसलमान और उनका इस्लाम धर्म लगभग 80% हिंदुओं वाले देश में राष्ट्र के लिए एक बड़े खतरे के रूप में देखा जाता है।
भारत में इस्लामोफोबिया बहुआयामी, व्यापक, और मज़बूत गहरी जड़ों और खतरनाक रूप के साथ प्रबल है। भारत में मुसलमानों को नस्लवादी रूढ़िवादिता से जूझना पड़ता है। अपनी देशभक्ति साबित करनी होती है, बढ़ती शारीरिक और प्रतीकात्मक हिंसा का सामना करना पड़ता है और फिर भी उन्हें गुप्त पाकिस्तानी कठपुतली या संभावित गैर-नागरिक प्रवासियों या शरणार्थियों के रूप में देखा जाता है।
भारत के कई क्षेत्रों में जैसे, कश्मीर में भारत के नाम पर मुसलमानों को जो सामना करना पड़ता है, वह उनके मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन करता है और इसके साथ-साथ हिंसा में तेज़ी लाने का काम भी करता है। यह लड़ाई मनुष्य से मनुष्य की है।
इस्लामोफोबिया का अध्ययन 1995 में इंग्लैंड में शुरू हुआ था। कई अध्ययनों से पता चलता है कि विश्व में इस्लाम को एक खतरे के रूप में माना जाता है। अक्सर इस्लाम को नाजी और साम्यवादी के साथ समानता रखने और आक्रमण और घुसपैठ करने वाला माना जाता है।
लगातार कई पश्चिमी देशों में इस्लाम के खिलाफ नफरतों का खेल खेला जा रहा है। पिछले बीस वर्षों से, मुसलमानों के प्रति घृणा तीव्र गति से फैल रही है। 11 सितंबर, 2001 के बाद इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ कर रखने पर मुहर लगा दी गई है। इसके बाद कई धारणाओं का जन्म हुआ। जो इस प्रकार हैं:
1. इस्लाम धर्म एक अखंड संस्कृति को संबोधित करता है, जो उसे और धर्मों से अलग करती है।
2. इस्लाम धर्म में अन्य धर्मों और संस्कृतियों की तुलना में पूरी तरह से अलग मूल्य हैं।
3. इस्लाम को पश्चिम में हीन माना जाता है। उनको ऐसा लगता है कि मुसलमान बर्बर, पुरातन और कठोर और तर्कहीन नियमों का पालन करने वाले होते हैं।
4. इस्लाम धर्म आतंकवाद के विभिन्न कृत्यों का समर्थन करता है और समाज में हिंसा का हितैषी है।
(ऊपर की धारणाएं इस्लाम के निर्माण में संदेह प्रकट नहीं करतीं और ना ही किसी ऐसी मान्यता को यूथ की आवाज़ विश्वसनीय मानता है)
ऐसी धारणाओं और ईर्ष्या के भाव को हमारा समाज अपने बच्चों तक आसानी से पहुंचाने का काम कर रहा है। इसके परिणाम से अंजान मनुष्य अपनी नफरत और ईर्ष्या को समाज की हर इकाई में पनपने दे रहा है। स्कूल, ऑफिस, कार्यक्रम, कहीं भी देख लो आपको इस्लामोफोबिया का कोई ना कोई जीता-जागता उदाहरण देखने को मिल जाएगा। पूरा विश्व इस समय महामारी से जूझ रहा है और बहुत सारी सामाजिक इकाइयां अभी भी अन्य धर्मों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने का काम कर रही हैं, जो कि एक अमानवीय कृत्य है।
विश्व से ऐसे कृत्यों को हटाने के लिए हमको मानवाधिकार आयोग के नियमों का पालन करने के साथ-साथ कई मज़बूत और ठोस कदम उठाने होंगे, जो समाज में अनैतिकता और अमानवीय गतिविधियों पर रोक लगा सकें।इस्लामोफोबिया के प्रभाव को कम करने के लिए ऐसी कई अवधारणाएं हैं, जो व्यवहारिक और प्रभावशाली भी हैं।
1. किसी भी धर्म को लेकर उसकी अपने मन में नकारात्मक छवि बनाने से दूर रहें। धर्म कभी गलत नहीं होता, लोग गलत होते हैं। गलत और असभ्य काम कोई धर्म नहीं करता, बल्कि मनुष्य करता है।
2. धार्मिक पुस्तकों की ओर अपना रुख करें। किसी भी धर्म के बारे में गहराई से जानने के लिए हमें उसकी धर्मिक पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए।
3. स्थानीय मुस्लिम समुदाय के साथ संबंध बनाएं। कई बार ऐसा होता है कि किसी भी धर्म या समुदाय के लोगों पर अपनी सोच बनाने से पहले उनके साथ समय बिताना एक अच्छा और प्रभावशाली तरीका साबित हो सकता है। इससे आप उनकी संस्कृति और उनके रहन-सहन का तरीका जान सकते हैं।