देश में कोरोना संक्रमण की दर लगातार कम होने के बाद भले ही अर्थव्यवस्था के हालात सुधर रहे हों और राज्य धीरे-धीरे अनलॉक की तरफ बढ़ रहे हैं, लेकिन इस दौरान देश की अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान झेलना पड़ा है। हालांकि, मीडिया में उद्योग जगत के नुकसान की चर्चा हो रही है लेकिन इसका बहुत बड़ा नुकसान कृषि क्षेत्र को भी उठाना पड़ा है।
विशेषकर इस दौरान छोटे स्तर के किसानों की हालत और भी ज़्यादा ख़राब हो गई है। उनकी ना केवल फसलें बर्बाद हुई हैं, बल्कि वह साहूकारों के कर्ज़ में और भी अधिक डूब गए हैं। लागत तो दूर, उन्हें अपनी मेहनत का आधा फल भी नहीं मिल पाया है।
मध्य प्रदेश के सबसे बड़े शहर इंदौर से करीब सवा सौ किलोमीटर दूर देवास ज़िले के नर्मदा क्षेत्र के किसान सब्जी उत्पादन के लिए जाने जाते हैं। यहां के अशोक सिंह अपने खेत से ताजी सब्जियों का ट्रक लेकर इंदौर पहुंचे, तो पुलिस ने उन्हें शहर की सीमा पर ही रोक लिया।
उन्हें बताया गया कि शहर में लॉकडाउन है, मंडी बंद है और कोई भी व्यक्ति या वाहन शहर में प्रवेश नहीं कर सकता है। अशोक सिंह ट्रक की सारी सब्जी वहीं फेंककर वापस गाँव लौट गए, क्योंकि गाँव वापस ले जाने में ट्रक का किराया देना पड़ता। पिछले वर्ष अप्रैल की यह कहानी कई बार असंख्य किसानों के साथ दोहराई गई।
हालांकि, कोरोना और लॉकडाउन का उद्योग कृत व्यापार पर प्रभाव की चर्चा में सब्जी उत्पादकों पर पड़े इस भीषण प्रभाव की चर्चा कहीं सुनाई नहीं देती है। नर्मदा क्षेत्र के आदिवासी बहुल ज़िले बड़वानी के वीरेंद्र पटेल की आजीविका सब्जी की खेती पर निर्भर है। वह बताते हैं कि पिछले वर्ष बैंगन, टमाटर, लौकी की उपज में पचास हज़ार रुपये की लागत आई थी, लेकिन लॉकडाउन के कारण सारी फसल बर्बाद हो गई।
लॉकडाउन के कारण छोटे किसानों की आर्थिक व्यवस्था पूरी तरह से टूट गई है
शहरों के लोग सब्जी के लिए तरसते रहे और गांव में सब्जियां सड़ती रहीं। कर्ज और ब्याज के जाल में फंसे वीरेंद्र पटेल को उम्मीद थी कि इस वर्ष अच्छा दाम मिलेगा, लेकिन इस बार भी अप्रैल में इंदौर में तालाबंदी हो गई और बड़ी मुश्किल से आधे से भी कम दाम पर आसपास के कस्बों में सब्जी बेच पाए फिर भी पचास प्रतिशत उपज, तो खेतों में ही सड़ गई। अब उन पर कर्ज का बोझ और बढ़ गया है।
इस साल मई माह में इंदौर के समीप गौतमपुरा गाँव के किसान महेश भूत ने अपनी चार लाख की लौकी की फसल पर ट्रैक्टर चलाकर खत्म कर दिया। उनका कहना है कि लॉकडाउन के कारण फसल बिक नहीं रही है, शहरों में फसल ले जाने की अनुमति नहीं है और अगली फसल की बोहनी के लिए खेत तैयार करना है। महेश ने दो बार शहर जाकर फसल बेचने की कोशिश की,लेकिन वह बेच नहीं पाए। इसके बाद उन्होंने सब्जी गाँव में मुफ्त बांट दी और जो फसल शेष बची उसे नष्ट कर दिया।
उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश देश का प्रमुख सब्जी उत्पादक राज्य है, जहां 20 लाख हेक्टेयर से भी अधिक क्षेत्र में करीब 300 लाख मीट्रिक टन सब्जी का उत्पादन होता है। यहां के कुल बागवानी क्षेत्र के 44 प्रतिशत हिस्से में सब्जी, 35 प्रतिशत में मसाले, 18 प्रतिशत में फल, 2 प्रतिशत में फूलों और 2 प्रतिशत में औषधीय फसलों की खेती होती है।
इससे स्पष्ट है कि यहां के बागवानी इलाके में सब्जी की खेती सबसे ज़्यादा होती है जिसकी उपज को लम्बे समय तक सहेज कर नहीं रखा जा सकता है। लिहाजा उपज को समय पर मंडी ले जाना और बेचना होता है। यही कारण है कि पिछले वर्ष अप्रैल से लेकर इस वर्ष अब तक सब्जी और फल उत्पादक किसानों को अपनी उपज फेंकनी पड़ी।
मध्य प्रदेश में मालवा-निमाड़ में अन्य क्षेत्रों की तुलना में सबसे ज़्यादा फल और सब्जी का उत्पादन होता है। यहां नर्मदा और उसकी सहायक नदियों के कारण पानी की सुविधा उपलब्ध है और यहां की मिट्टी सब्जी एवं फलों की खेती के लिए बेहतर है, किन्तु खाद, बीज और कीटनाशक के कारण खेती की लागत बढ़ जाती है। ज़्यादातर किसान तीन से पांच एकड़ ज़मीन के मालिक हैं और खेती के लिए साहूकारी कर्ज पर निर्भर हैं, जो 24 से 36 प्रतिशत सालाना ब्याज पर उपलब्ध होता है।
पिछले एक वर्ष में लॉकडाउन के कारण मालवा-निमाड़ क्षेत्र के धार, झाबुआ, बड़वानी, खरगोन, खंडवा, देवास, उज्जैन, रतलाम, मन्दसौर, नीमच, शाजापुर, हरदा सहित कुल 12 ज़िलों के लाखों सब्जी उत्पादक किसान कर्ज के जाल में बुरी तरह फंस चुके हैं।
लॉकडाउन की कठोर पाबंदियों से किसान कर्ज़ के चक्र में फंस गया है
इंदौर स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट के आकलन के अनुसार, लॉकडाउन के कारण मध्यप्रदेश के कृषि क्षेत्र को 77 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। लॉकडाउन में फसल की बर्बादी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले वर्ष खंडवा ज़िले में 5 हज़ार हेक्टेयर में प्याज और 1500 हेक्टेयर में तरबूज की फसल पूरी तरह बर्बाद हो गई।
इसके साथ ही पपीता के भी खरीददार नहीं मिलने से, वे पेड़ों पर ही सूख गए। निमाड़ क्षेत्र के बुरहानपुर ज़िले में केले की बंपर फसल होती, जो आमतौर पर 1700 रुपये प्रति क्विंटल के कम दाम पर बिकती थी, किन्तु लॉकडाउन की वजह से किसानों को खरीददार नहीं मिले, जिससे मज़बूरन 900 से 1200 रुपये प्रति क्विंटल की कीमत पर बेचना पड़ा। इससे कई किसानों को, तो लागत भी नहीं मिल पाई।
ऐसा माना जाता है कि कोरोना काल में लॉकडाउन का कोई विकल्प नहीं था और अन्य उद्योग कृत व्यापार की तरह कृषि को भी नुकसान पहुंचना स्वाभाविक था। इस दशा में यह देखने की ज़रूरत है कि क्या कृषि के नुकसान को किसी तरह से रोका या कम किया जा सकता था?
दरअसल, इस बारे में शासन-प्रशासन द्वारा गंभीरता से सोचा ही नहीं गया जबकि सरकार 2000 रुपये की किसान सम्मान निधि की किश्त को ही बड़ी उपलब्धि मान रही थी, जो इन किसानों को हुए नुकसान की तुलना में ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है।
सरकार ने किसानों की आजीविका के लिए समय रहते कोई उपाय नहीं निकाला
पिछले वर्ष लॉकडाउन के दौरान इंदौर प्रशासन द्वारा सब्जी व्यापारियों को घर-घर सब्जी वितरण का ठेका दिया गया था। सैद्धांतिक रूप में यह एक अच्छी व्यवस्था थी, किन्तु इसका क्रियान्वयन शोषणपरक तरीके से हुआ, क्योंकि इसमें दो-तीन व्यापारियों को ही ठेका दिया गया, जिन्होंने पीड़ित किसानों से कम-से-कम दाम पर सब्जी खरीद कर शहरी ग्राहकों को महंगे दामों पर बेची। इस व्यवस्था से ना तो किसानों को लाभ मिला और ना ही ग्राहकों को।
फूड प्रोसेसिंग के ज़रिये भी सब्जी और फलों के नुकसान को कम किया जा सकता था, क्योंकि मालवा-निमाड़ क्षेत्र में पीथमपुर और रतलाम के औद्योगिक क्षेत्र में 150 से ज़्यादा छोटे-बड़े फूड प्रोसेसिंग उद्योग मौजूद हैं। इन उद्योगों द्वारा लॉकडाउन के दौरान कोरोना प्रोटोकॉल का पालन करते हुए उत्पादन जारी रखने की मांग की गई थी, किन्तु प्रशासन द्वारा इसकी इजाज़त नहीं दी गई थी।
यदि इन उद्योगों में काम जारी रहता, तो सब्जी एवं फलों की उपज का यहां उपयोग हो सकता था और कुछ श्रमिकों को रोज़गार भी मिल सकता था, लेकिन लॉकडाउन के दौरान शासन द्वारा कृषि क्षेत्र की पूरी तरह अनदेखी की गई। नतीजन शहरों के लोग सब्जी के लिए तरसते रहे और गाँवों में सड़ती हुई सब्जियां किसानों के लिए कर्ज का जाल बुनती रहीं, जिससे बाहर निकलने में किसानों को वर्षों इंतज़ार करना होगा।
नोट- यह आलेख इंदौर, म.प्र से राजेंद्र बंधु ने चरखा फीचर के लिए लिखा है।