मानव विकास के इतिहास की बड़ी लड़ाइयों मे से एक लड़ाई निजता के अधिकार की भी रही है। एक लम्बे समय तक, तो इन्सान इसे पहचान ही नहीं सका कि निजता भी उसका एक अधिकार हो सकता है। अब यह चाहे मानसिक अवरोधों की वजह से रहा हो या सामाजिक परिस्थितियों की वजह से, लेकिन मानव विकास की गति में यह एक सबसे बड़ा रोड़ा बना हुआ था।
जैसे–जैसे बुद्धिजीवियों द्वारा इसे पहचाना गया और इस बात होनी शुरू हुई, तो इसके लिए संघर्ष भी करना पड़ा। आज देश के कई देशों मे निजता का अधिकार एक मूल अधिकार के तौर पर देखा जाने लगा है, लेकिन जैसे ही निजता के अधिकार को स्वीकार किया जाने लगा, इसके सामने एक बड़ी चुनौती यह आ खड़ी हुई कि क्या इसे समानता के अधिकारों के साथ देखा भी जाएगा या नहीं?
समाज मे क्या सभी वर्ग बिना किसी भेदभाव के निजता के अधिकार का वहन कर पाएंगे? कहीं सरकारें प्रतिबंधों का सहारा लेकर निजता के अधिकारों के समन्वय मे रोड़ा, तो नहीं डालेंगी? कहीं यह अधिकार सीमित कर दिया गया तो? ये प्रश्न अक्सर समलैंगिक समुदाय की निजता को लेकर अक्सर उठते रहे हैं।
भारत में निजता के अधिकार की लड़ाई का इतिहास
भारत के सन्दर्भ में बात करें, तो निजता के अधिकार की लड़ाई 1954 मे डालमिया ग्रुप के विवाद से शुरू हुई, जहां जांच के नाम पर कम्पनी के निजी दस्तावेजों से भी छेड़छाड़ की गई, लेकिन 64 साल चलने के बाद यह लड़ाई जब 24 अगस्त, 2017 में खत्म हुई, तो भारत के सभी नागरिकों के लिए निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्ज़ा दिया गया।
यह फैसला दिए जाने के 1 साल बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दण्ड सहिता की धारा 377 को निरस्त कर दिया। धारा 377 मे समलैंगिक सम्बन्धों को अपराध घोषित किया गया था। कोर्ट ने कहा कि दो वयस्क, चाहे वे किसी भी लिंग जाति के हों, वे आपसी सम्मति से एकांत मे सम्बन्ध बनाते हैं, तो इसे अपराध नहीं माना जा सकता है।
ये उनकी निजता का मामला है। एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों को भी संविधान मे उसी प्रकार बराबरी का अधिकार है, जैसे अन्य नागरिकों को है। इसके साथ ही इसे अपराध की श्रेणी मे रखने से समता और गरिमा के अधिकार पर चोट पहुंचती है।
न्यायालय ने पहली बार ट्रांसजेंडर समुदाय को सार्वजनिक रूप से संवैधानिक पहचान दी
चूंकि यह पहली बार था, जब देश मे समलैंगिकता को आधिकारिक रूप से स्वीकार किया गया था, इसलिए सामाजिक मापदण्डों पर आगे भी समलैंगिक समुदाय को बदनामी और बहिष्कार का सामना करना पड़ा। कोर्ट द्वारा इनके लिए कानूनी मान्यता तो मिल गई, लेकिन इस समुदाय के हितों की रक्षा के लिए कानून अभी तक ठीक ढंग से बनाए नहीं जा सके हैं।
अभी भी समलैंगिकों को कानूनी रूप से शादी करने का अधिकार नहीं है और ना ही बच्चे गोद लेने का। भूमि और सम्पत्ति के मामलों में भी तमाम कानूनी अड़चने हैं, जो समलैंगिक समुदाय को कहीं-ना-कहीं रोज़ अपनी ज़िन्दगी में झेलना पड़ता है।
ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों की स्वायत्तता के लिए मद्रास हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
7 जून को मद्रास हाईकोर्ट मे एक लेस्बियन जोड़े द्वारा पुलिस पर उत्पीड़न के आरोप मे दाखिल याचिका की सुनवाई करते हुए जस्टिस आनन्द वेंकटेश ने समलैंगिक समुदाय से जुड़ी कई अहम बाते कहीं, उन्होंने कहा कि यौन स्वायत्तता निजता के अधिकार का एक अहम अंग है।
इस समुदाय के लोगों को भी निजता और सम्मान के साथ अपना जीवनसाथी चुनने का पूरा हक है। अनुच्छेद 21 के तहत यह पूरी तरह संवैधानिक है और राज्य एवं केन्द्र सरकार को इसके क्रियान्वयन के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए।
न्यायिक सेवा से जुड़े अफसरों, पुलिस और जेलों के अफसरों के बीच इस विषय को लेकर जागरूकता के कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए। इसके साथ ही स्कूल और काॅलेजों के पाठ्यक्रमों मे भी बदलाव करते हुए एल.जी.बी.टी.आई.क्यू. समुदाय के प्रति समानता से जुड़ी बातें जोड़ी जानी चाहिए।
उनके इस फैसले का मान और तब बढ़ गया जब जस्टिस वेंकटेश ने कहा कि मुझे ये स्वीकार करते हुए कोई हिचक नहीं हैं कि वे खुद अभी तक समलैंगिकता को पूरी तरह से नही समझ पाए हैं, लेकिन अज्ञानता किसी भी तरह के भेदभाव के लिए कोई तर्क नही हो सकती।
उन्होंने एक मनोवैज्ञानिक की सहायता से मामले के आदेश लिखे और इसके साथ ही कहा कि देश में जितने भी डाक्टर्स या हकीम ये दावा करते हैं कि वे समलैंगिक का इलाज कर देंंगे, उन सभी के लाइसेन्स रद्द किए जाने चाहिए।
निश्चित रूप से समलैंगिक समुदाय के अलावा भी समाज मे समानता की लड़ाई लड़ने वाले कई वर्ग हैं लेकिन न्यायालयों द्वारा इस तरह के महत्वपूर्ण फैसले इस लड़ाई मे शोषित वर्ग को मज़बूती देने का काम करते हैं। सुखद और गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए संवैधानिक मान्यता के साथ-साथ सामाजिक मान्यता भी बहुत ज़रूरी है।
नोट- अभिषेक वर्मा, भारतीय जन संचार संस्थान के विद्यार्थी हैं।