मेरे प्रिय किसान नेताओं,
आप सभी पिछले 8 महीनों से पंजाब में व 6 महीनों से ज़्यादा दिल्ली की सरहदों पर ऐतिहासिक किसान आंदोलन फासीवादी सत्ता के खिलाफ मज़बूती से चलाए हुए हो। इसके लिए आप सभी को मैं क्रांतिकारी सलाम करता हूं।
इन 6 महीनों में किसान आंदोलन ने बहुत से उतार-चढ़ाव, सर्दी-गर्मी, लाठी-गोली, जेल की यातनाएं सब देखी हैं। आपको इस दौरान सत्ता व गोदी मीडिया द्वारा आंतकवादी, खालिस्तानी, माओवादी, टुकडेखोर, दारूबाज, देशद्रोही क्या-क्या नहीं कहा गया।
लेकिन, आपकी रणनीति ने सत्ता के षड्यंत्र को दरकिनार करते हुए और आपके अथक प्रयासों के कारण इस आंदोलन ने दिल्ली की सरहदों पर 6 महीने सफलतापूर्वक पूरे कर लिए हैं। इन 6 महीनों में इस किसान आंदोलन ने बहुत उपलब्धियां अर्जित की हैं, पूरे विश्व में किसान आंदोलन ने अपनी एक अलग छाप छोड़ी है। पूरे विश्व को आपके आंदोलन ने दिखाया है कि भारत का किसान भी अन्याय के खिलाफ मज़बूती से लड़ सकता है।
आपके इस आंदोलन ने भारतीय सत्ता के उस अश्वमेघ यज्ञ के उस घोड़े को रोकने का काम किया, जो इस देश के संविधान को रौंदते हुए हिन्दू राष्ट्र बनाने की तरफ बढ़ रहा था। आज के इस आंदोलन ने कार्पोरेट को भी आम जनमानस के समक्ष नंगा करने का महत्वपूर्ण काम भी किया।
लेकिन, फिर भी जब हम इस आंदोलन के 6 महीने के सफर का मूल्यांकन करते हैं, तो बहुत सी कमियां हमको नज़र आती हैं। ऐसी कमियां जिन पर सयुंक्त किसान मोर्चे को काम करने की ज़रूरत थी। ऐसे मुद्दे, जो किसान मोर्चे के प्राथमिकता में होने चाहिए थे, लेकिन यह गलती जाने-अनजाने में हुई या जान बूझकर हुई यह आप सब बेहतर बता सकते हैं।
किसान मोर्चे की पहली गलती मज़दूरों की मुख्य मांग सरकारी जमीन का मज़दूरों में वितरण हो। यह मांग भूल कर भी संयुक्त मोर्चा अपनी जबान पर लेकर नहीं आया जबकि सयुंक्त मोर्चा स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की मांग करता रहा है।
यही स्वामीनाथन आयोग अपनी सिफारिशों में साफ-साफ कहता है कि प्रत्येक भूमिहीन को कम से कम 1 एकड़ ज़मीन ज़रूर दी जाए। हरियाणा जैसे छोटे से राज्य में 8,44,246 एकड़ ज़मीन पंचायतों के पास है। 2011 की जनगणना के अनुसार खेतिहर भूमिहीनों की संख्या 12 लाख है। पंचायतों की ज़मीन के वितरण से भूमिहीनों के बड़े हिस्से को तुरंत एक-एक एकड़ ज़मीन आसानी से दी जा सकती है।
इसके बाद मंदिर, मठों, डेरों के पास 2015-16 की कृषि गणना के अनुसार 3,79,982 एकड़ ज़मीन इन संस्थानों के पास है। इनकी ज़मीनों को भी खेतिहर भूमिहीनों में बांटा जा सकता है। इन ज़मीनों को भूमिहीनों में बांटने से किसी को नुकसान नहीं होता है, इसलिए किसी को कोई आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए और ना ही इस बात के लिए किसी को विरोध करना चाहिए।
वैसे, भी हरियाणा सरकार पंचायत की ज़मीन को कानून बना कर पूंजीपतियों को देने जा रही है। पूंजीपतियों को मिलने की बजाय भूमिहीनों को वो ज़मीन मिल जाए, तो किसी को क्यों आपत्ति हो? मज़दूरों की इस मुख्य मांग पर आपकी चुप्पी के कारण मज़दूर इस आंदोलन में शामिल नहीं हुए। खेतिहर भूमिहीनों को भी इस आंदोलन के मंचों, धरनों, प्रदर्शनों में बिना झिझक इस मांग को मज़बूती से उठाना चाहिए।
दूसरी सबसे बड़ी गलती महिलाओं की सुरक्षा के लिए इतने बड़े आंदोलन में कोई भी कमेटी नहीं बनाई गई। अगर किसी महिला को आंदोलन में कोई भी समस्या आ जाए, तो उसके पास कोई उचित प्लेटफार्म है ही नहीं, जहां वो अपनी शिकायत दर्ज़ करवा सके। शिकायत आने के बाद उस पर कोई जांच हो सके व समय रहते आरोपियों पर उचित कार्यवाही हो सके।
अगर किसान मोर्चे ने कोई उचित प्लेटफार्म बनाया होता, तो बंगाल की लड़की के साथ अमानवीय घटना नहीं घटती और ना ही खाप पंचायतें आरोपियों के पक्ष में पंचायत करने की हिम्मत करतीं।
तीसरी गलती नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) व NRC जैसे जन विरोधी, धर्मनिरपेक्षता विरोधी, मुस्लिम विरोधी कानूनों पर आपने कोई स्पष्ट रुख अख्तियार नहीं किया। आपके स्पष्ट रुख अख्तियार ना करने के चलते ही एक बहुत बड़ा वर्ग जो CAA/NRC आंदोलन में सत्ता के खिलाफ मज़बूती से लड़ रहा था, वो किसान आंदोलन का हिस्सा नहीं बन सका।
वैसे, होना तो यह चाहिए था कि आप मज़दूरों की मुख्य मांग उठा कर व CAA/NRC पर अपना पक्ष रखकर सत्ता के खिलाफ व्यापक जन लामबंदी कर सकते थे, लेकिन आपने यह सब नहीं किया। यह किसान आंदोलन की सबसे बड़ी रणनीतिक असफलता रही है।
राजनीतिक बंदियों की रिहाई की मांग आपने एक बार ज़रूर उठाई, लेकिन जैसे ही सत्ता व गोदी मीडिया ने आपके इस फैसले पर सवाल उठाना शुरू किया आप डर गए। आपके बहुत से नेता, तो राजनीतिक बंदियों के खिलाफ ही बयान देने लग गए। उसके बाद कभी मोर्चे ने सपने में भी राजनीतिक बंदियों की रिहाई की मांग नहीं उठाई।
अब मै आपका ध्यान दिलाना चाहता हूं, आदिवासियों के ऐतिहासिक आंदोलन की तरफ जो पिछले 28 दिन से चल रहा था। छतीसगढ़ के बस्तर ज़िले के सिलगेर में, भारतीय फासीवादी सत्ता ने सिलगेर में सी.आर.पी.एफ का कैम्प खोल दिया था। इस कैंप के लिए स्थानीय आदिवासियों से कोई बातचीत नहीं की गई, जबकि संविधान आदिवासियों को यह अधिकार देता है कि उनकी इजाज़त के बिना उनके इलाके में कोई भी ज़मीन अधिग्रहण नहीं की जा सकती है।
लेकिन, फासीवादी सत्ता जल-जंगल-ज़मीन को लुटेरे पूंजीपतियों को लूटने की खुली छूट देने व लूट का विरोध आदिवासी करें, तो उनका दमन करने के लिए, उनके विरोध की आवाज़ को कुचलने के लिए आदिवासी इलाकों में संविधान के सिद्धांतों की परवाह किए बिना जगह-जगह सी.आर.पी.एफ कैंप बना रही है। ऐसा ही एक सी.आर.पी.एफ कैंप सिलगेर में बनाया गया जिसका विरोध वहां के आदिवासियों ने एकजुट होकर किया।
आदिवासियों ने इस कैंप के खिलाफ 12 मई से आंदोलन शुरू किया। सत्ता के इशारे पर सी.आर.पी.एफ के जवानों ने 17 मई को निहत्थे आदिवासियों पर गोलियों की बौछार की जिसमें 3 आदिवासी शहीद हो गए व अनेकों घायल हुए। एक गर्भवती महिला भी भगदड़ में शहीद हुई। इस घटना के विरोध में पिछले 28 दिन से 40 हज़ार के आस-पास आदिवासी उस जगह पर धरना दिए हुए थे। इन 28 दिनों में लगातार बारिश भी आती रही।
लेकिन, किसान मोर्चा इस आंदोलन व सत्ता द्वारा कत्ल किए गए आदिवासियों पर चुप रहा। मोर्चे की चुप्पी से साफ-साफ गैर ईमानदारी दिखती है। किसान मोर्चा बंगाल में सत्ता का विरोध करने के लिए बड़ी-बड़ी रैलियां करने जा सकता है, लेकिन छतीसगढ़ में जाना, तो दूर उस तरफ मुंह करके भी नहीं सोता है। ऐसा क्यों?
आप मज़दूरों की मुख्य मांग पर चुप रहे, CAA/NRC पर चुप रहे, सत्ता के खिलाफ लड़ने वाले राजनीतिक बंदियों पर चुप रहे, आदिवासियों के आंदोलन पर चुप रहे। 26 जनवरी किसान परेड के दौरान लाल किले पर जाते हुए पुलिस की गोली से शहीद हुए नौजवान किसान को शहीद मानना, तो दूर उसका नाम लेने से किसान मोर्चा परहेज़ कर रहा है। आखिर ऐसा क्यों?
अगर आदिवासियों के 28 दिन के आंदोलन की तुलना आपके 6 महीने के आंदोलन से की जाए, तो आपका किसान आंदोलन आदिवासियों के आंदोलन के सामने बौना दिखाई देता है।
आपके 6 महीने के आंदोलन में 100 करोड़ से भी ज़्यादा पैसा आप खर्च कर चुके हो। आंदोलन के सभी धरना स्थलों पर आपके पास अच्छे टेंट हैं, कपड़े धोने की मशीन हैं, बड़े लंगरों में रोटी बनाने की मशीन हैं, खाने के लिए अच्छे से अच्छा खाना है, एक से बढ़कर एक मिठाई है। गर्मी से बचने के लिए कूलर से लेकर एयर कंडीश्नर है। आपके तम्बुओं में सभी सुविधाएं हैं। सरहद से घर आने-जाने के लिए ट्रैक्टर से लेकर लग्जरी गाड़ियां भी हैं। सरहद से घर तक बीच रास्ते में जगह-जगह खाने व ठहरने की उचित व्यवस्था है।
दूसरी तरफ अगर हम आदिवासियों के 28 दिन के इस आंदोलन की संसाधनों से समीक्षा करें, तो ज़मीन-आसमान का अंतर देखने को मिलेगा।
आदिवासियों के पास खाने के मुख्य तौर पर भोजन के रूप में चावल है, जिनमें कंकड़ की मात्रा चावल से ज़्यादा होती है। लक्जरी गाड़ी, तो उन्होंने सपनो में भी नहीं देखी होगी। उनके पास, तो साइकिल भी नहीं है। पांव में ना चप्पल है ना तन ढकने के लिए पूरा कपड़ा है।
आंदोलन की जगह पर बारिश व गर्मी से बचने के लिए उन्होंने पेड़ो के नीचे आसरा लिया हुआ था या अस्थाई पत्तों-टहनियों से सिर ढकने का प्रबंध किया हुआ था। उनके पास ना कूलर, ना एयर कंडीश्नर और ना ही पंखे हैं। उनके पास अगर कुछ है, तो वो है सत्ता के खिलाफ ईमानदारी से लड़ने का जज्बा, ईमानदारी, सच्चाई, साफगोई, एकता, सबको साथ लेकर चलने की नीति उनकी यही असली ताकत है। उनकी इसी एकता के कारण 40 गाँवों के मज़दूर व किसान उस आंदोलन में बराबर से शामिल हैं। महिलाओं की संख्या भी आधे से ज़्यादा ही है कम नहीं है।
इन सब विपरीत परिस्थितियों में बंदूकों की संगीनों के सामने वो लगातार 28 दिन मज़बूती से डटे रहे। सत्ता ने उस पूरे इलाके को ही सील कर दिया बाहर के किसी भी व्यक्ति को वहां जाने की इजाज़त नहीं दी गई है। 28 दिन के लंबे संघर्ष के बाद आदिवासी वापस लौट गए। वे जाते हुए, यह मज़बूत निर्णय लेकर साथ गए हैं कि वो फासीवादी सत्ता का, उसकी लुटेरी मण्डली का मुंह तोड़ जवाब देंगे। वो निर्णय लेकर गए हैं कि महान शहीद बिरसा मुंडा के सपनों का मुल्क बनाने के लिए वो आखिरी सांस व खून के आखिरी कतरे तक लड़ेंगे।
जिस तरह से सत्ता, विपक्षी पार्टियां, किसान आंदोलन ने आदिवासियों के इस महान आंदोलन पर चुप्पी बनाई है। अब आप कल को यह मत चिल्लाना कि आदिवासियों ने हथियार उठाए हुए हैं। यह आरोप भी आप मत लगा देना की आदिवासियों का शांति व लोकतंत्र में विश्वास नहीं है। छतीसगढ़ की सत्ता सलवा झडुम 2 की शुरुआत कर चुकी है।
वो आए थे, शांति से अपने अधिकारों के लिए लड़ने, लेकिन सत्ता ने उनको शांति से लड़ने का पुरस्कार उनके 4 साथियों को मार कर दिया। उसके बाद भी आदिवासियों ने धैर्य नहीं खोया, वो बैठे रहे गर्मी, बारिश, आंधी-तूफान में इंसाफ के लिए, लेकिन विपक्ष चुप रहा। छतीसगढ़ में जो विपक्ष है, वो केंद्र में सत्ता में है और जो केंद्र में विपक्ष है, वो छतीसगढ़ की सत्ता में है।
इसलिए वो देख रहे थे, किसान आंदोलन के अगुआ नेताओं की तरफ, सिविल सोसाइटी की तरफ, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, लेखकों, नाटककारों की तरफ की वो उनके आंदोलन के पक्ष में आवाज़ उठाएंगे। उनके आंदोलन को समर्थन देने के लिए पूरे मुल्क में लड़ने का एलान करेंगे लेकिन आपकी चुप्पी ने उनकी यह उम्मीद भी तोड़ दी है। सत्ता, विपक्ष व किसान आंदोलन ने उनके साथ ऐसा व्यवहार किया है, जैसे वो आपके मुल्क के नागरिक ही ना हों।
अब वो अपना भविष्य खुद चुनेगें, अपनी लड़ाई खुद लड़ेंगे जैसे महान क्रांतिकारी बिरसा मुंडा ने लड़ी थी। फासीवादी सत्ता, नकारा विपक्ष व ऐतिहासिक किसान आंदोलन ने आदिवासियों को अपनी सुरक्षा, अपने जल-जंगल-ज़मीन, पहाड़ की सुरक्षा के लिए शायद हथियार उठाने के लिए मज़बूर कर दिया है।
संयुक्त किसान मोर्चा के सभी नेताओं से मेरी अपील है कि आप लेट नहीं हुए हैं, अब भी आपके पास समय है। आपकी यह लड़ाई साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ है। ये ताकतें, जो आपकी ज़मीन, आपके गाँव, आपके मुल्क तक को हड़पना चाहती हैं।
यही ताकतें पिछले लंबे समय से मुल्क के जंगलों, पहाड़ों, खानों, ज़मीनों सब को हड़पने के लिए आदिवासियों का खून बहा रही हैं, उनके गाँव-के-गाँव को जला रही हैं। महिलाओं से बलात्कार कर रही हैं। बच्चों की तस्करी कर रही हैं।
आज वहां, जो सब हो रहा है कल आपके यहां भी वो सब होगा। आपकी ज़मीन व गाँव छीनने के लिए ऐसे ही सैनिक कैंप बनेंगे। इसलिए अब भी समय है, इस लड़ाई को मज़बूत करने के लिए मज़दूरों, आदिवासियों को अपने खेमे में लाने के लिए मोर्चे को ईमानदारी से प्रयास करना चाहिए। CAA/NRC जैसे जनविरोधी कानूनों के खिलाफ मज़बूत पक्ष लेकर मुल्क के बड़े तबके को साथ ले सकते हैं। यह लड़ाई बहुमत मेहनतकश जनता को साथ लेकर ही जीती जा सकती है।