प्रिय माँ-पापा,
दीदी और भैया से यह क्यों पूछा जाता रहा बचपन से कि कौन सी फ्रॉक लेनी है और कौन सी टीशर्ट? मुझे अपनी मर्ज़ी के कपड़े चुनने की आज़ादी आप लोगों ने मुझ से क्यों छीन रखी थी? अगर मेरा मन भी भाई की तरह जीन्स और टीशर्ट पहनने का था, तो मुझे फ्रॉक पर क्यों लटकाया जाता रहा? मुझे चूड़ियों से भरे हुए हाथ कभी पसंद नहीं आए, फिर मुझे इस बंधन में किस लिए जकड़ा गया?
माँ और पापा मुझे अपनी मर्ज़ी से चीज़े चुनने का हक क्यों नहीं था? इसके बदले मुझे पिटाई, डंडे, और झाड़ू का ऑफर दिया जाता था। इसके साथ के साथ भद्दी-भद्दी गालियां। मैं मेहंदी से दूर भागती थी और माँ आप मेरे हाथ बंधवा कर 4 साल की उम्र में छठ पूजा के दौरान ज़बरदस्ती मेहंदी लगवाती थीं? क्या हो जाता अगर मैं भैया की तरह खड़े होकर पेशाब करती थी?
मेरे नन्हें और कोमल पैरों को इसलिए तोड़ दिया गया था, ताकि मैं खड़े होकर नहीं लड़कों की तरह बैठ कर पेशाब करूं? मेरा शरीर ही बैठता था, माँ मगर उस दौरान मैं नहीं। सवा महीने बाद, मैं फिर खड़ी होने लगी। मैं ठीक हो गई थी, मगर दिल में दर्द की चुभन लिए हुए।
मैं अक्सर सुनती थी। इसको लड़कों के साथ मत उठने-बैठने दो, इसमें तो सारे चाल-चलन लड़कों वाले हो रहे हैं। मुझे, वो रात आज भी याद है माँ। मैं आज भी उस समय को नहीं भूली। हां, मेरा खेलना बिल्कुल बन्द हो गया था। मैं घर के अंदर एक कैदी की तरह बंद कर दी गई। आपने मेरे साथी और मेरे चाल-चलन को रोकने के लिए मुझे घर में बेशक कैद कर लिया था, मगर मेरी सोच और मेरी प्राथमिकता को आपने कांट-छांट कर और निखार दिया था।
मेरा सवाल आज आपसे और ऐसे सैकड़ों माँ-बाप से है, जो समाज की विषैली रूढ़िवादी सोच को ऐसे बच्चों पर थोपते हैं जिनका शरीर कुछ और उनकी आत्मा कुछ और ही कहती है। एक योनि से आपने यह कैसे साबित कर दिया कि मैं चूड़ी, फ्रॉक, मेहंदी के लिए ही बनी हूं? और एक लिंग ने इस बात का निर्धारण कैसे कर दिया कि मुझे गुलाबी रंग नहीं पहनना, मुझे लाली, बिंदियों से दूर रहना है, मैं बस जीन्स पहन सकता हूं या फिर छोटे बाल। शरीर के दो हिस्सों से आप पूरे जीवन का अंदाज़ा कैसे लगा सकते हैं?
बात यह मायने रखती है कि मैं किस शरीर और किस मानसिकता के ज़्यादा करीब हूं? मेरी योनि या मेरा लिंग इस बात की कभी पुष्टि नहीं कर सकता कि आप मुझे लड़के या लड़की के रूप में जानेंगे। वैसे, तो ये दोनों शब्द ही समाज के लिए अभिशापित हैं। क्या ऐसा हो सकता था, लोग इंसान को जानते उस लड़का या लड़की को नहीं।
आप जैसा सोचते हैं ज़रूरी नहीं सामने वाला भी यही सोचता हो। मेरी सेक्सुअलिटी, मेरी प्राथमिकता और मेरे जेंडर का निर्माण मैं खुद करूंगा। आप बिल्कुल नहीं। मैं अपने इस पत्र से अपने माता-पिता को समझाना चाह रही हूं कि वो समाज की दकियानूसी सोच को किनारे रखें और अपने बच्चों को वो माहौल दें, जिनके वो हकदार हैं। आपकी सोच से उनकी सोच का मेल हो ये ज़रूरी नहीं।
मैंने देखा है समलैंगिक युवाओं के हालात कोई खास अच्छे नहीं होते। बचपन कुढ़ने और पिसने में गुज़र जाता है, जिस समय बच्चों को माता-पिता की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, तो उस वक्त पेरेंट्स जजमेंटल हो जाते हैं। अपने बनाए हुए नियम और कानूनों को उन पर थोप देते हैं।
ऐसे में बच्चे खुद को अपराधी समझने लगते हैं और वही से उनकी बर्बादी शुरू हो जाती है। उनमें किसी भी तरह का कॉन्फिडेंस नहीं बन पाता और ना ही उनके दिमाग का सम्पूर्ण विकास हो पाता और आखिरी में ऐसे बच्चे कमज़ोर और अविकसित मानसिकता के शिकार बन जाते हैं। वहीं युवावस्था में आपका गालियों में और तानों से स्वागत किया जाता है।
हमको जानवर मत समझो, हमारे भी एहसास होते हैं। हमारा भी मन होता है कि हम भी अन्य इंसानों की तरह एक नार्मल ज़िन्दगी जिएं। मगर कैसे? इसमें आपकी बहुत बड़ी भूमिका है।
नोट- यह पत्र अमित द्वारा यूथ की आवाज़ तक पहुंचाया गया है, जिसका सीधा उद्देश्य समाज में समानता लाना है।