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हमें हमारी शिक्षा प्रणाली के पाठ्यक्रम की पाठ्य-पुस्तकों की समय-समय पर समीक्षा करना आवश्यक है

हमें हमारी शिक्षा प्रणाली के पाठ्यक्रम की पाठ्य-पुस्तकों की समय-समय पर समीक्षा करना आवश्यक है

अभी हाल ही में सोशल मीडिया पर NCERT के कक्षा एक के हिंदी पाठ्य-पुस्तक की एक कविता ‘आम की टोकरी’ ने लोगों का ध्यान खींचा है। लोग इस बात की निंदा कर रहे हैं कि छोटे बच्चों को इस प्रकार की कहानी या कविताएं ना पढ़ाई जाएं। जिसमें ऐसे अपमानजनक शब्दों का प्रयोग हुआ हो और जिससे लड़कियों की गरिमा को ठेस पहुंचती हो या बालश्रम जैसी कुप्रथाओं को मज़बूती मिल रही हो।

सवाल यह है कि उत्तराखंड के एक कवि रामकृष्ण शर्मा की लिखी यह कविता आज सोशल मीडिया पर वायरल क्यों हुई? जबकि यह वर्ष 2006 से ही NCERT सिलेबस का हिस्सा है। दरअसल, छत्तीसगढ़ कैडर के एक  आईएएस अधिकारी के ट्वीट के बाद यह मामला चर्चा में आया। गनीमत है कि इतने दिनों बाद लोग इस पर आपत्ति जता रहे हैं। जबकि उनमें से कईयों ने पहले भी इस कविता को अपने बच्चों को पढ़ते हुए सुना होगा। इतना ही नहीं, गाकर याद कराने में बच्चों की मदद भी की होगी, क्योंकि संवाद के दौरान लगभग 90 फीसदी सम्प्रेषण नॉन-वर्बल होते हैं। कई बातें हो सकती हैं या तो प्रतिस्पर्धा वाली आज की दुनिया में अभिभावकों को केवल अपने बच्चों के अंकपत्र से मतलब है या तो फिर यह हो सकता है कि ऐसी बातों पर चर्चा के लिए कोई मंच उपलब्ध नहीं हैं।

NCERT ने भी अपना पक्ष रखते हुए स्पष्ट किया कि इस कविता में ऐसी कोई बात नहीं है, बल्कि पाठ के अंत में शिक्षक को कहा गया है कि वो बच्चों को बालश्रम के बारे में जागरूक करें। इस कविता पर सवाल उठा, तो NCERT का स्पष्टीकरण भी तैयार है, लेकिन यह तय है कि सोशल मीडिया पर दो-चार दिन ट्रेंड करने के बाद लोग अपने घर चुप बैठ जाएंगे और ऐसे विषय पाठ्यक्रम में रूप बदल-बदल कर शामिल होते रहेंगे। 

प्रारंभिक शिक्षा बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में मुख्य भूमिका निभाती है। रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने लेख ‘सिविलाइज़ेशन एन्ड प्रोग्रेस’ में लिखा है कि सीखने की प्रक्रिया के दौरान बच्चों में रचनात्मक भावना और उदार आनंद, दोनों अवयवों का पाया जाना ज़रूरी है।

औपचारिक पाठ्यक्रम को समृद्ध करने के लिए इसमें सामाजिक शिक्षा को एकीकृत करने का उपक्रम किया जाता रहा है, लेकिन अब तक किए गए प्रयास हमारी उस पारम्परिक सोच से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं, जहां अब भी माताएं रसोई में काम करती, वृद्धजनों और पशुओं की सेवा करती हुईं और पिता बाहर काम पर जाते हुए दिखाई देते हैं। ‘मेल कराओ’ अभ्यास में लड़कियों को गुड्डे-गुड़ियों और लड़कों को गेंद और बल्ले से मैच कराया जाता है, मानो जैसे कोई अलिखित घोषणा हो।

समाज में लैंगिक भेदभाव को मज़बूत करती पितृसत्ता

हमारी शिक्षा प्रणाली के पाठ्यक्रम में दी जाने वाली इस प्रकार की शिक्षा जेंडर भेदभाव सहित सामाजिक अलगाव को बढ़ाने और अन्य वर्गभेदों को कायम रखने और उन्हें व्यापक बनाने की ओर प्रवृत्त है। समय के साथ यह सोच इतनी बलवती हो जाती है कि महिला अधिकारों को लेकर बने हुए कानूनों का भय भी हमारे समाज में महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों को रोक नहीं पाते हैं। पितृसत्तात्मक मानसिकता, जिस तरह से हमारे समाज की जड़ों में व्याप्त है, बहुत स्वाभाविक है कि पाठ्यक्रम जेंडर न्यूट्रल नहीं हो सकता, क्योंकि उसे बनाने वाले व्यक्ति भी समाज के ही एक अंग हैं।

 लेकिन, यह भी आवश्यक नहीं है कि हमारी शिक्षा प्रणाली के पाठ्यक्रम बदले नहीं जा सकते हैं। इसलिए आवश्यक हो जाता है कि हमारी शिक्षा प्रणाली के पाठ्यक्रम की समय-समय पर समीक्षा की जाए। एक कमेटी का निर्माण हो, उसमे विभिन्न पृष्ठभूमि के लोग शामिल किए जाएं। इस कमेटी की अनुशंसा के आधार पर पाठ्यक्रम में व्यापक परिवर्तन किए जाएं ताकि बच्चों का बेहतर सामाजिककरण हो और वो आगे चलकर विकृत मानसिकता का शिकार ना बनें।

बचपन का सुना या सीखा हुआ बच्चों के लिए एक संदर्भ बन जाता है। इसलिए हमें हमारी शिक्षा प्रणाली के पाठ्यक्रम के एक व्यापक ढांचे के भीतर बहुलता के कई आयामों पर कुशलता से कार्य करना होगा ताकि  रचनात्मक तरीके,समता और समावेशीकरण के सिद्धांत पर बच्चों के ज्ञान में वृद्धि हो।

समाज में फैले असमानता एवं लैंगिक भेदभाव के चक्र को तोडना ज़रूरी है 

भारतीय संविधान सामाजिक न्याय और समानता के मूल्यों पर स्थापित एक धर्मनिरपेक्ष, समतावादी और बहुलवादी समाज के निर्माण हेतु शिक्षा के कुछ व्यापक उद्देश्यों को चिन्हित करने पर बल देता है। कोठारी आयोग ने भी विभिन्न सामाजिक वर्गों और समूहों को एक साथ लाने और एक समतावादी और एकीकृत समाज के निर्माण के लिए पाठ्यक्रम और शिक्षण प्रणाली को आवश्यक बताया था। शिक्षा के प्रसार और जेंडर संवेदी पाठ्यक्रम के निर्माण के दृष्टिकोण से देखें, तो अंतर्राष्ट्रीय कैलेंडर पर वर्ष 2005 एक ऐतिहासिक वर्ष रहा है।

 जब प्राथमिक और माध्यमिक स्कूली शिक्षा में लैंगिक समानता सुनिश्चित करना सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों में एक महत्वपूर्ण लक्ष्य के रूप में चिह्नित किया गया था। वहीं दूसरी ओर, सर्व शिक्षा अभियान जो सार्वभौमिक प्रारंभिक शिक्षा के लिए भारत सरकार के एक कार्यक्रम ने सभी बच्चों को स्कूल में लाने के लिए एक अधिक महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया था, लेकिन हमारे नीतिगत ढांचे के मज़बूत नहीं होने तथा राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के अभाव के कारण हमें इसमें सफलता नहीं मिली।

ऐसे ही 2005 आया और चला भी गया, 2021 भी कोरोना के कारण अपनी गति से बीत रहा है और प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में ना, तो हमारे पास लैंगिक समानता है और ना ही हम तय की गई उस निर्धारित संख्या के करीब हैं। जो बच्चों के प्राथमिक स्कूली शिक्षा के पांच साल पूरे होने के लिए तय की गई थी।

हमें हमारी शिक्षा प्रणाली की पाठ्य पुस्तकों के पाठ्यक्रम को जेंडर न्यूट्रल बनाना होगा   

2005 में ही, संशोधित राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा पर काम प्रारम्भ किया गया। अभिवंचित समूहों के दृष्टिकोण से सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों के अध्ययन के प्रतिमान में बदलाव की सिफारिश की गई। समाज से जुड़े विषय पढ़ाते समय जेंडर जस्टिस सहित अभिवंचित समुदायों से संबंधित मुद्दों के प्रति संवेदनशीलता बरतने पर बल दिया गया। इस पृष्भूमि में कक्षा एक के बच्चों को ‘आम की टोकरी’ जैसी कविता पढ़ाया जाना, क्या समाज के अभिवंचित तबकों से आने वाली लड़कियों के प्रति एक नकारात्मक छवि नहीं बनाएगा?

इसलिए ज़रूरी है कि पाठ्यक्रम को लेकर उठे इस चर्चा को और व्यापक किया जाए और जेंडर के आधार पर घर में श्रम के असमान विभाजन को जारी रखकर स्कूल में बालिकाओं की संभावित ‘दक्षता’ पर सवाल उठाना बंद किया जाए, क्योंकि लंबे समय तक घरेलू कामों के साथ-साथ कुपोषित होने से उनके शारीरिक एवं मानसिक प्रदर्शन पर भी प्रभाव पड़ता है।

यदि इस पर भी समान रूप से आवाज़ उठे और इसकी भूमिकाओं में बदलाव लाया जाए, तो अधिकांश लड़कियां स्कूलों में लड़कों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन कर सकती हैं। भारत ने पिछले दशक में प्रगति की है, लेकिन यह अपने सभी बच्चों को समान प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने का लक्ष्य अभी भी प्राप्त नहीं कर सका है।

लड़कियों का स्कूल ड्राप आउट दर जेंडर भेदभाव का एक परिणाम है, जो कहीं ना कहीं असंवेदनशील पाठ्यक्रमों से प्रभावित होता है। अगर इन जेंडर असंवेदी पाठ्यक्रमों का पुनरावलोकन नहीं किया गया, तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत समतामूलक समाज की स्थापना को लेकर अपने बच्चों से किए गए संवैधानिक वादे से मुकर गया है ।

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नोट- रश्मि झा, जो कि एक जेंडर एक्सपर्ट हैं।

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