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ग्रामीण क्षेत्रों में फैले अंधविश्वास और सामाजिक रूढ़ियों को दूर करने के लिए हमें शिक्षा पर अधिक बल देना होगा

ग्रामीण क्षेत्रों में फैले अंधविश्वास और सामाजिक रूढ़ियों को दूर करने के लिए हमें शिक्षा पर अधिक बल देना होगा

भारतीय समाज के केंद्र में जब-जब महामारी आती है, तो सिर्फ महामारी ही नहीं आती, बल्कि उसके साथ आती है बहुत सारी भ्रांतियां, अंधविश्वास और ऊटपटांग आडंबर। भारत में जब 19वीं सदी में चेचक जैसी महामारी ने पैर पसारा, तो ज़्यादातर ग्रामीण इलाको में इसे देवी या माता का नाम देकर कई प्रकार के अंधविश्वासों से जोड़ा गया। तब से लेकर आज तक, यदि किसी को ऐसा कुछ भी होता है, तो ज़्यादातर लोगों के मुंह से निकलता है कि-माता आ गई है।

ऐसी ही स्थिति के बहुत से उदाहरण हमें 1961 की हैजा महामारी में भी नज़र आए और पोलियो महामारी के दौरान भी दिखाई दिए थे। आज भी पूर्वी उत्तर प्रदेश में झगड़े या गुस्से की स्थिति में महिलाएं गुस्से में श्राप के तौर पर तुम्हें हैजा माई उठा ले जाए जैसे वाक्यों का आसानी से प्रयोग करती दिखाई दे जाती हैं।

इन उदाहरणों से पता चलता है कि हैजे जैसी महामारी को आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में दैवीय प्रकोप के रूप में देखा जाता है। ऐसे में जहां एक तरफ ग्रामीण इलाकों की स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत खराब हो और दूसरी तरफ जनता महामारी को वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बजाय उसे दैवीय या चमत्कारी घटना से जोड़कर देखती हो, ऐसे में सरकार और प्रशासन को दोबारा से पलट कर पीछे मुड़ना चाहिए और देखना चाहिए कि आज़ादी के इतने साल बाद भी व्यवस्था में क्या छूट रहा है?

ग्रामीण क्षेत्र आज भी सामाजिक रूढ़िवादिता एवं कुरीतियों में जकड़े हुए हैं 

क्या है जो एक तरफ गाँव-गाँव में वीडियो कॉलिंग और फाइव जी के सहारे गाँवों को आगे बढा कर चमका देने के दावे किए जा रहे हों। वहीं दूसरी तरफ उसी फाइव जी के टावर के नीचे अंधविश्वासी कहानियां जन्म लेती हैं? केंद्र और प्रदेश की सरकारें महिला शिक्षा पर पूरा जोर लगाए हुए हैं, फिर कहां से समाज और विशेषकर महिला समाज में अंधविश्वास और भ्रामक कहानियां जन्म ले लेती हैं? 

सवाल यह भी उठ रहा है कि ऐसी कहानियों से बने समाज के बीच जो महिलाएं अपने घरों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से निर्णय लेती हैं। वह कोरोना महामारी में दवा और वैक्सीन को लेकर क्या मज़बूत निर्णय ले पाएंगी? हम इसकी पड़ताल करते हैं उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर ज़िले में, जहां हमने बात की नमिता द्विवेदी से, जो नंन्दौली गाँव में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं।

इन दिनों बड़ी शिद्दत से ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना महामारी के लिए जागरूकता जगाने में जुटी हुई हैं। हमारे सवाल पूछे जाने पर कि महिलाएं वैक्सीन के बारे में क्या सोचती हैं? वे बताती हैं कि महिला हो या पुरुष, वैक्सीन को लेकर लोगों की राय बटी हुई है। कुछ लोग कहते हैं कि वैक्सीन लगवा लेनी चाहिए, लेकिन अब भी बहुत से लोग वैक्सीन से घबरा रहे हैं।

 मुझे लगता है कि अभी भी लोग बहुत डरे हुए हैं। एक, तो इस महामारी से और दूसरा वैक्सीन की अलग-अलग कहानियों से। जब तक लोगों को वैक्सीन के बारे में ठीक से समझाया नहीं जाएगा, उन्हें इस पर पूरी तरह से भरोसा नहीं आएगा। विशेषकर ग्रामीण महिलाएं, जो सबसे अधिक अशिक्षित हैं, उनमें वैक्सीन को लेकर सबसे अधिक भ्रम और अंधविश्वास अपनी जड़ें जमा चुका है। जिसे समाप्त करना बहुत आवश्यक और एक बहुत बड़ी चुनौती है।

हमने उनसे जानना चाहा कि ऐसी स्थिति में जो पढ़ी लिखी जागरुक महिलाएं या पुरुष अपने घरो का प्रतिनिधित्व करते हैं, उनका वैक्सीन को लेकर घर के बाकी लोगों के साथ मतभेद हो रहा है?

इस पर वह कहती हैं कि मेरे निजी अनुभव से मैं बता सकती हूं कि हमारे गाँव में ही ऐसे बहुत से घर हैं, जहां वैक्सीन को लेकर लगभग टकराव की स्थिति है। घर के आधे सदस्य वैक्सीन लगवाने के लिए तैयार हैं और आधे लोग लगवाने से मना कर चुके हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में हमें वैक्सीन के प्रति आम जनमानस को जागरूक करना चाहिए  

दरअसल, लोगों को यह सही ढंग से बताने वाला कोई नहीं है कि वैक्सीन लगा कर बुखार क्यों आ जाता है? उन्हें इस सवाल का संतुष्टिपूर्वक जवाब नहीं मिल रहा है कि आखिर कोई दवा आराम के लिए बनी है, तो उससे बुखार क्यों आ रहा है? ऐसे में लोगों में मौत का डर बहुत है। कुछ लोग वैक्सीन की दूसरी डोज की समय अवधि बढ़ाए जाने में भी शंका की स्थिति बनाए हुए हैं।

नमिता जी के पास वैक्सीन को लेकर बहुत सी कहानियां हैं। वह कहना यही चाहती थीं कि ऐसी स्थिति में जब घरों के मत दो हिस्सों में बंटे हों, ऐसी परिस्थिति में किसी महिला का घर के लिए निर्णय लेना मतलब हर आने वाली स्थिति की ज़िम्मेदारी खुद पर डालने जैसा होगा। जो वह कभी करना नहीं चाहेगी।

इसी कड़ी में हमारी बात रायबरेली ज़िले के घाटमपुर गाँव के रहने वाले पप्पू से हुई। वह बल्दीराय ब्लाक में नेशनल रूरल लाइवलीहुड मिशन में प्रोजेक्ट मैनेजर के तौर पर काम करते हैं। जब हमने उनसे ग्रामीण परिवेश में महामारी को लेकर बात की और जानना चाहा कि ऐसा क्यों होता है, तो उन्होंने हमें बताया स्थिति काफी गंभीर है और गाँवों में भी इसे बड़ी गंभीरता से लिया जा रहा है।

हमें ग्रामीण क्षेत्रों को साक्षर बनाने पर अधिक जोर देना ज़रूरी है 

लेकिन, किसी भी महामारी के साथ हमें गांव की शिक्षा और जागरूकता पर भी विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है। पोलियो महामारी के दौरान जब दवा पिलाई जाती थी तब बहुत सी कहानियां कुछ इस तरह फैला दी गईं कि इसके पीछे प्रशासन जनसंख्या को नियंत्रित करना चाहता है और जिस बच्चे को दवा पिलाई जाएगी वह बच्चा भविष्य में पिता नहीं बन सकेगा। ऐसी स्थिति में ग्रामीण इलाकों से कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वह वैक्सीन पर इतनी ज़ल्दी  भरोसा दिखा सकेंगे?।

उनकी बातों से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि अभी प्रशासन के लिए ग्रामीण स्तर पर नई वैक्सीन के लिए विशेष जागरूकता की ज़रूरत पड़ेगी, क्योंकि पुराने तरीकों से स्थिति के गडबड बने रहने का पूरा अनुमान है।

इसी दौरान हमने रामपुर बबुआन गांव की पूजा से बात की, जिनकी उम्र लगभग 23 साल है। पूजा ने बताया कि वो बीएससी पास हैं।

उनकी दो साल पहले ही शादी हुई है। पति और जेठ दूसरे शहर में काम करते हैं। वह बीमारी को लेकर एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखती हैं, लेकिन घर में बाकी लोग परंपरावादी सोच वाले हैं।

इसलिए बात-बात पर उसकी अपनी सास और ससुर से ठन जाती है। पूजा कहती हैं कि मेरी एक साल तीन महीने की बेटी है। मैंने उसे सारे ज़रूरी टीके लगवा दिए हैं। अगर कोरोना का बच्चो के लिए टीका आया, तो वह भी लगवा दूंगी।

मेरे घर के बुजुर्ग थोड़े पुराने ख्यालों के हैं और वह मुझे बार-बार टोकते हैं, लेकिन मुझे मालूम है कि मैं जो कर रही हूं। वह मेरे बच्चे के भविष्य के लिए सही है।

बहरहाल, वैज्ञानिक नज़रियों और अंधविश्वासों का झगड़ा तब तक ऐसे ही चलता रहेगा, जब तक देश के हर ग्रामीण इलाकों तक शिक्षा और सही सूचना समय से नहीं पहुंच जाती है। जिस दिन ऐसा मुमकिन होगा, पूजा जैसी युवा गृहणी और नमिता जैसी ज़मीनी कार्यकर्ताओं के लिए समाज में निर्णय लेने की चुनौतियां समाप्त हो जाएंगी, लेकिन ऐसे परिवेश को तैयार करने के लिए हम सब को आगे आने की ज़रूरत है।

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यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2020 के तहत सुल्तानपुर, यूपी से राजेश निर्मल ने लिखा है।

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