हम अक्सर सरकारी स्कूलों में शिक्षण गुणवत्ता की बातें करते हैं और सारी सरकारी मशीनरी इन स्कूलों को बेहतर बनाने में लगी हुई है। इन स्कूलों में विद्यार्थी-संख्या बढ़ाने हेतु अधिकारियों द्वारा प्लान बनाए जाते हैं। पर विडंबना देखिए कि लगभग सभी शासकीय शिक्ष, बड़े-बड़े अधिकारियों और नेताओं के बच्चे इन स्कूलों में कभी नहीं पढ़ते हैं। अब जब सरकार द्वारा संचालित सरकारी स्कूलों के कर्ता-धर्ताओं को ही विश्वास नहीं इन स्कूलों में, तो शिक्षण गुणवत्ता कैसे बेहतर होगी? यह बात तो वो स्वयं ही बता सकते हैं.
हम लोग अपनी ईमानदारी का दावा करते हुए और उसका बैंड बजाते हुए, भ्रष्टाचार पर दूसरों को कोसते हैं। पर, हम लोग सबसे पहले अपना काम ज़ल्दी करवाने हेतु अंडर द टेबल लेन-देन से भी नहीं कतराते हैं।
किसी रेल में बिना टिकट के यात्रा करते हुए पकडे जाने पर, ईमानदार TTE साहब ने ज़ुर्माने के रूप में 1,000 की रसीद फाड़ दी, तो हम अपना बुरा सा मुहं बना लेते हैं। वहीं अगर TTE साहब ने 100 लेकर मामला रफा-दफा कर दिया। तो हम अपने मन में बहुत प्रसन्ता का अनुभव करते हैं।
हम कोरोना जैसी आपदाओं के समय अर्थशास्त्र के डिमांड सप्लाई नियम का अति-निष्ठा से पालन करते हुए, निर्धन और बेरोजगार जनता को दो रुपये की वस्तु को चार रुपये में बेचते हैं।
हमारे परिवार के महिला सदस्यों को कोई देखे, तो हम लोग क्रोधित हो जाते हैं और वहीं दूसरे परिवारों की महिला सदस्यों को अपनी बुरी नज़रों से घूरते रहते हैं।
हम लोग अनेकता में एकता का दावा करते हुए, हम एक हैं का नारा लगाते हैं और जाति, धर्म, क्षेत्र, नस्ल, लिंग आदि पर एक -दूसरे से लड़ते रहते हैं। क्या हम कभी सुधरेंगे?