जब से प्रधानमंत्री मोदी ने देश के प्रधानसेवक का पद संभाला है, तब से लेकर अब तक सरकार ने मोदी को एक मज़बूत नेता के रूप में प्रस्तुत करने मे कोई कमी नहीं छोड़ी है। सवाल यह है कि क्या हम यह भी समझते हैं कि राजनीति का मतलब क्या है और राजनेताओं का काम क्या होता है? जिस तरह मोदी का गुणगान पिछले लगभग पांच-सात साल से किया जा रहा है, उससे लगता है कि आज हम यह बुनियादी चीज़ ही भूल गए हैं कि राजनेता करता क्या है?
पहले, तो हमें यह समझ लेना होगा कि कोई भी राजनेता लोगों पर राज नहीं करता, वह एक तंत्र पर राज करता है। कोई भी सरकार लोगों पर राज नहीं करती, सरकार तंत्र पर राज करती है। सरकार का काम है कि उस तंत्र को, उस प्रणाली को जिससे लोग जुड़े रहते हैं, अपनी रोजमर्रा की ज़िन्दगी में जैसे अस्पताल, आवागमन के साधन, अर्थव्यवस्था के साधन, इत्यादि इन तमाम सब तंत्र और प्रणालियों पर राज करें, राज का मतलब देखें कि यह सुचारू रूप से चलते हैं कि नहीं।
इनकी बराबर मरम्मत पानी होता है या नहीं होता है। कोई भी सरकार लोगों पर राज नहीं करती और अगर उस सरकार को भ्रम हो गया है कि उन्होंने लोगों पर प्रभुत्व कायम कर लिया है। किसी एक नेता को भगवान के रूप में प्रस्तुत करके, तो वह अपने को मूर्ख और अपने देश के लोगों को जोखिम में डाल रहे हैं।
क्योंकि, जब राजनेता यह भूल जाता है कि उसको तंत्र पर राज करना है लोगों पर नहीं, तो उससे तमाम तंत्र और प्रणाली कमज़ोर होने लगती है, क्योंकि जो उस तंत्र-प्रणाली की देखभाल के लिए नियुक्त किया गया था, वह अपना काम ठीक से नहीं कर पा रहा है। इससे प्रणाली और तंत्र कमज़ोर होगा, तो आप इतने बड़े देश में आम लोगों तक राहत नहीं पहुंचा सकते। कोई ऐसा तंत्र बना ही नहीं है, जिससे आप लोगों पर राज कर सकें और लोगों के दिलों- दिमाग पर, उनके विचारों पर राज कर सकें। प्रशांत किशोर ने इस बात को ठीक कहा है कि बीजेपी सरकार और मोदी केवल लोगों का वोट नहीं चाहते, बल्कि वह उनके दिमाग पर प्रभुत्व चाहते हैं कि वह क्या सोचते हैं? क्या सोचेंगे और क्या सोच सकते हैं? इन सब पर भी कब्जा चाहते हैं।
बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी की यह सबसे बड़ी गलतफहमी और कमज़ोरी है कि वह यह सोच रहे हैं कि राजनीति का अर्थ लोगों के दिल और दिमाग पर कब्जा होता है, नियंत्रण होता है। राजनीति का अर्थ लोगों पर नहीं तंत्र पर कब्जा होता है। आप कितने मज़बूत लीडर हैं, यह इस बात से साबित कभी नहीं होगा कि आप लोगों के दिमाग पर कितना मज़बूती से छाए हैं। वह हमेशा इस बात से तय होगा कि आप देश के तंत्र और प्रणाली पर कितनी मज़बूत पकड़ बनाए रखे हैं।
इसे आप सीधे-सीधे समझें, तो जिस तरीके से शरीर में खून है, तमाम अंग हैं, उन पर आप दवा-दारू से नियंत्रण करने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन अगर आपको यही नहीं पता है कि मर्ज़ क्या है? तो यह दवा-दारू सदा के लिए काम नहीं आएगा। आप सोशल मीडिया को और प्रचार-प्रणाली को किसी ड्रग्स की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं ताकि जनता के दिमाग में भ्रम पैदा हो कि वह ठीक हो रहे हैं, लेकिन भ्रम पैदा होने से या मस्तिष्क को ड्रग्स से बरगलाने से अंगों के सड़ने को नहीं रोक सकते और यह अंग ही एक देश के तंत्र प्रणाली होते हैं।
जिनसे आपका ध्यान उठ चुका है और इस बात को स्वीकार करने में ही आपकी भलाई है। यह इसी तंत्र पर अनियंत्रण का कारण है कि ना, तो आप इस देश में धन-दौलत होने के बावजूद भी अपने लोगों के लिए समय रहते टीका नहीं मुहैया करा पाए और ना ही आप घर के भीतर होती कालाबाज़ारी, दवाइयों की कमी, अस्पतालों में ज़रूरी साधनों की कमी को ही पूरा कर पाए, क्योंकि आपका तंत्र पर नियंत्रण उतना नहीं है जितना आप अपनी छवि बनाने में दिखाते हैं।
अप्रैल की शुरुआत में इस महामारी से जब देश में हाहाकार मचना शुरू हुआ और तमाम अस्पतालों में ऑक्सीजन खत्म हो गया, लोगों की जानें जाने लगी, तो सवाल बना कि क्या तंत्र सुचारू रूप से चल रहा है या नहीं? उस समय हमारे प्रधानमंत्री तंत्र को छोड़कर अपने चुनावी मंत्रों में लगे हुए थे। उनका यह बयान कोरोना जब देश को जकड़े हुए हैं कि “मुझे इतने लोगों को देख कर खुशी हो रही है, मेरी रैली में इतने लोग कभी नहीं आए” इससे साफ पता लगता है कि प्रधानमंत्री के दिमाग में तंत्र की सुचारिता का ख्याल पीछे छूट गया है। लगभग एक महीना गुज़र जाने के बाद जब कुछ चुनिंदा न्यूज़ चैनलों ने ज़मीन से आती खबरों को एकत्रित करके राष्ट्रीय तौर पर चलाया तब जाकर हमारे प्रधानमंत्री की नींद में खलल पड़ा है।
तब वह वेंटिलेटर का ऑडिट मांग रहे हैं। हाहाकार मच जाने के बाद, लोगों की जानें जाने के बाद आप ऑडिट मांग रहे हैं, जिस ऑडिट को आप को वेंटिलेटर के डिलीवरी के कुछ समय पश्चात करना चाहिए था कि वह सही व्यवस्था में चल भी रहे हैं या नहीं? उनका ऑडिट आप अब मांग रहे हैं और अगर आपको नहीं पता चला कि आपके फंड से दिए गए वेंटिलेटरो की क्या हालत है? तो इसका सीधा-सीधा मतलब यह है कि आप को यही नहीं पता कि आपके नाक के नीचे चल क्या रहा है? किसको आपने वेंटिलेटर बांटने की ज़िम्मेदारी दी थी? किसको आपने नियुक्त किया था, कौन सी कमेटी आपने बनाई थी, जो इन सब चीज़ों का हिसाब रखती और अगर उन्होंने इन सब चीज़ों का हिसाब नहीं रखा, तो आपने उन्हें इस चीज़ के लिए ज़िम्मेदार समय रहते क्यों नहीं ठहराया?
हर एक चीज़ केवल जीतने और हारने की नहीं होती। आप लोगों को बरगला कर जीने में माहिर हो सकते हैं। ऐसे लोगों को हम बहरूपिया कहते हैं, उनका काम लोगों को बरगलाना और अपनी रोजी-रोटी कमाना ही होता है, लेकिन वह बहरूपिया कभी मज़बूत नेता नहीं बनेंगे। आपकी कमियों और खामियों की वजह से होते नुकसान से ग्रस्त लोगों को और देश के तंत्र को कैसे बचाएंगे? आपको एक चीज़ का पता है भारत में जनसंख्या कितनी है? लाखों लोग भी बीमारी से मर जाए फिर भी आप कोई ना कोई एजेंडा और पैसे के बल पर लोगों को बरगला सकते हैं, लेकिन यह रवैया ज़्यादा दिनों तक नहीं चलेगा और आपके इस तानाशाही रवैये से तंत्र पूर्ण रूप से सड़ जाएगा और जिस करप्शन की बात करके आप राज में आए हैं, आप के राज में वही करप्शन आप को खा जाएगा।
अगर राजनेता का काम तंत्र को सुचारू रखना है, उसी तरह डॉक्टर का काम मरीज़ की देखभाल करना है। अगर डॉक्टर मरीज़ की देखभाल ना करके बयानबाजी से ऑक्सीजन लेने दौड़े, तो वह अपना काम कैसे कर पाएगा? इसी तरह से जब सरकार का काम तंत्र को सुचारू रखना था, तो उन्होंने क्या कदम लिए इसकी कोई ज़िम्मेदारी तो बने, कोई पूछताछ तो हो। अगर देश के प्रधानमंत्री और राज्यमंत्री इस ज़िम्मेदारी को संभालने में असक्षम हैं, तो वह कभी तंत्र पर राज नहीं कर पाएंगे, क्योंकि अगर वो तंत्र से कट गए, तो वह उन लोगों से भी कट जाएंगे जो इन तंत्रों से जुड़े होते हैं और आज के नेताओं को यह समझने की ज़रूरत है कि केवल सोशल मीडिया लोगों से जुड़ने का तरीका नहीं है। लोगों से जुड़ने का अहम और मूल्य तरीका आज भी देश और राज्यों की तंत्र-प्रणाली है।
सकारात्मकता का ढिंढोरा क्यों पीटा जा रहा है? सकारात्मकता का ढिंढोरा पीटने से जिन लोगों ने तंत्र की हानि की है, करोड़ों रुपए गबन करके खाली बेकार वेंटिलेटर सप्लाई कर दिए हैं, आपकी लापरवाही से जन्मी कालाबाज़ारी जो आपकी नाक के नीचे पनपती रही, उस पर क्या कार्यवाही होगी? क्या इस सकारात्मकता से इसका हल होगा? आरएसएस के महासचिव का इस देश की तंत्र प्रणाली से क्या रिश्ता है? आप सरकार को ज़िम्मेदार ठहराने के बजाय उनसे उनके तंत्र की देखभाल और कार्यप्रणाली पर सवाल करने की बजाय किसको सकारात्कमता की घुट्टी पिला रहे हैं? किस को ज़रूरत है इस समय सकारात्मकता के गाने की?
मनुष्य अपना दुख-दर्द समझता है, और वह दुख-दर्द से जूझना भी समझता है। अगर वह कुछ नहीं समझता, तो वह है उसकी तंत्र की समझ। आम आदमी नहीं समझता कि तंत्र किस तरह से मदद कर सकता है, उसको यह समझ नहीं आएगा कि अगर उसकी जांच पहले हो जाती, तो उसके घरवालों की जान बच सकती थी। जांच करने में तंत्र का क्या योगदान है? यह उसे समझ नहीं आएगा, लोगों को तंत्र से जोड़ने की और तंत्र को बचाने की बजाय आप सकारात्मकता का ढिंढोरा केवल सरकार को बचाने के लिए पीट रहे हैं।
खतरे में सरकार नहीं है, खतरे में तंत्र है, क्योंकि तंत्र का नियंत्रण एक कमज़ोर सरकार के पास है। इसको पहचानिए और अपनी मूर्खता, अनगढ़ता से छुटकारा पाइए ।
इस समय सकारात्मकता से ज़्यादा लोगों को राजनीतिक तंत्र की मदद चाहिए। कोरोनावायरस के चलते जिन अनाथ बच्चों के मां-बाप गुज़र गए, उनको क्या सकारात्मकता खिलाएंगे? उनके लिए एक तंत्र क्या करेगा? इस पर कोई विचार है, तो अपनी बात रखिए वरना इस समय एक लापरवाह सरकार की पैरवी करते हुए सकारात्मकता की बात करना लोगों के तंत्र से अधिकारों का हनन करने के बराबर है।
भारत के लोगों को इस समय एक मज़बूत राज्य प्रणाली चाहिए, उस राज्य प्रणाली को नियंत्रण करने के लिए एक ज़िम्मेदार पारदर्शी और जवाबदेह सरकार चाहिए। नुकसान की भरपाई चाहिए, उनके आने वाले कल के लिए सुविधाओं का इंतजाम चाहिए। अगर आप यह सब दे देंगे, तो सकारात्मकता अपने आप आ जाएगी। खतरे में सरकार नहीं है, खतरे में लोग और इस देश की तंत्र-प्रणाली है।