आज प्राणवायु ही पूरे देश के आम जनमानस की आयु बन गई है। पूरा देश एक-एक सांस के लिए संघर्ष कर रहा है और 135 करोड़ लोगों का वह देश जिसने विश्व आर्थिक फोरम पर स्वयं घोषित किया कि हमने कोरोना को हरा दिया है। हम 150 देशों की मदद कर रहे हैं। उसी देश में सांसो का यह संकट किस ओर इशारा करता है? क्या किसी एक व्यक्ति को महाबली बनाने के लिए देश की पूरी व्यवस्था उसके फ्री होने का इंतजार करती रही या इसे ही सिस्टम कहा जा रहा है?
देश में और अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी किस ओर इशारा करती है?
रोल ऑन, रोल ऑफ के आधार पर विशाखापट्टनम से महाराष्ट्र और आंध्रा को ऑक्सीजन सप्लाई करने के लिए ऑक्सीजन एक्सप्रेस शुरू की गईं। इसमें फिर गुजरात भी जोड़ा गया और फिर मध्य प्रदेश। अब बोकारो स्टील प्लांट से लखनऊ के लिए ऑक्सीजन सप्लाई हेतु ऑक्सीजन एक्सप्रेस की मांग हो रही है, इन राज्यों में प्रदाय की परिस्थिति देखकर दिल्ली सरकार ने भी केन्द्र सरकार से ऑक्सीजन एक्सप्रेस सेवा की खुली मांग रखी है। यह गाड़ियां 65 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से चलती हैं और प्रति टैंकर 16 टन ऑक्सीजन भंडारण करती हैं।
अब सवाल यह उठता है कि यही रेल्वे और यही मंत्रिगण एक महीने पहले भी थे और अगर चुनावों में व्यस्त नेताओं का इंतजार करने की बजाय यह निर्णय पहले ही ले लिया गया होता, तो आज देश में हज़ारों निर्दोष आम जनमानस व्यक्तियों की जानें बचाईं जा सकतीं थीं। जो हमारे देश की लचर सरकार और निष्क्रिय सिस्टम की भेंट चढ़ गए।
सरकार ने आक्सीजन के अंतर्राज्यीय परिवहन पर से प्रतिबंध ही दो हफ्ते पहले हटाया है। क्या आज देश की यह अस्त-व्यस्त व्यवस्था सरकार की लापरवाही की ओर इशारा नहीं करती? क्या यह नहीं प्रतीत होता कि सरकार एक व्यक्ति के इशारे पर निर्भर है और मंत्रालय उस इशारे के बिना निर्णय लेने की स्वयं की स्वायत्तता उसके चरणों में समर्पित कर चुके हैं?
आक्सीजन की इस आपातकालिक अतिरंजित खपत को अवशोषण तकनीक ने चुनौती दी है। सामान्य हवा में 21 प्रतिशत ऑक्सीजन होती है जबकि चिकित्सकीय उपयोग के लिए 82% शुद्ध ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। नई तकनीकी में पीएसए मशीनों से ऑक्सीजन का अवशोषण किया जाता है। प्रेशर सर्विंग एड्जार्प्शन के माध्यम से पोर्टेबल मशीनें लगाई जा सकती हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत का कुल ऑक्सीजन उत्पादन 7220 टन प्रतिदिन है जबकि आज के मरीजों की हालत में 8000 टन ऑक्सीजन की आवश्यकता है, जो निरंतर बढ़ती जा रही है।
देश में आम जनमानस की जान पर गहराता ऑक्सीजन का संकट
अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि जब ऑक्सीजन के संभावित संकट के लिए नीति आयोग ने अक्टूबर में आगाह किया था, तब अक्टूबर माह में पीएसए तकनीकी पर आधारित 150 ऑक्सीजन प्लांट को आयात करने के लिए टेंडर किए गए थे। इसके लिए 201 करोड रुपए का प्रावधान भी किया गया था। अगर समय पर इन निविदाओं का निराकरण कर लिया जाता तो आज 80 हज़ार लीटर प्रति मिनट ऑक्सीजन का उत्पादन इन मशीनों से हो सकता था। तब इस समस्या से भी हम विश्व विजयी होकर निकल सकते थे। हालांकि, 33 मशीनें अब जाकर उत्पादन की स्थिति में हैं।
हज़ारों निर्दोष आम जनमानस की हत्या के लिए कौन ज़िम्मेदार है?
जबकि वे हज़ारों निर्दोष लोग अपनी जान गंवा चुके हैं जिन्हें संविधान ने जीवन रक्षा का मौलिक अधिकार दिया था। ऐसा नहीं है कि इस त्रासदी ने हमें शासन और प्रशासन व्यवस्था की ही असफलता का आइना दिखाया हो बल्कि, महामारी की पहली लहर में जिस तरह पूरा समाज उठ खड़ा हुआ था,उस सक्रियता में भी कमी आई है,क्योंकि समाज ने भी निर्णय लेने वाले संस्थानों को ढहते देखकर खुद में सिमटने का रास्ता चुन लिया।
यूपीएल कंपनी और बनासकांठा की बनास डेयरी मानवता की अद्भुत मिसाल हैं
ऐसा नहीं है कि देश का हर आदमी किसी महाबली के अवतरित होने का इंतजार कर रहा हो। मानवता अपना रास्ता खुद बनाती है ठीक उसी तरह जैसे नदी पहाड़ों को चीर कर अपना रास्ता बना लेती है। बनासकांठा डेयरी और यूपीएल दो ऐसे संगठन हैं जिनके उदाहरण से देश सीख सकता है और सिखा भी सकता है। यूपीएल कंपनी ने अपने नाइट्रोजन प्लांट में प्रक्रिया बदलकर ऑक्सीजन का उत्पादन शुरू किया ताकि वह देश की इन चीत्कारों को राहत की सांस दे सके।
बनासकांठा की बनास डेयरी ने अपने 125 मरीजों की जान बचाने के लिए अपने पैसे से ही 680 किलो प्रति दिन क्षमता का आक्सीजन उत्पादन का प्लांट 72 घंटे में लगा लिया। बनासकांठा मिल्क यूनियन के शंकर चौधरी की इस पहल ने डेयरी के 40 अति संक्रमित मरीजों की जान बचा ली। अब वे इतने ही मरीजों की रोज़ सहायता कर सकते हैं।
ये उदाहरण बताते हैं कि नदियां रुकतीं नहीं हैं, वे बहती रहती हैं, वैसे ही हमें बहना है ताकि एक बूंद दूसरी से मिलकर एक अविरल धारा बने।