ये शाहराहें इसी वास्ते बनी थीं क्या
कि इन पे देस की जनता सिसक-सिसक के मरे?
ज़मीं ने क्या इसी कारण अनाज उगला था
कि नस्ल- ए बिलक बिलक के मरे?
मिलें इसी लिए रेशम के ढेर बुनती हैं
कि दुख़तरान-ए तार-तार को तरसें
चमन को इसलिए माली ने ख़ूँ से सींचा था
कि उस की अपनी निगाहें बहार को तरसें
कितनी दूरदर्शी थे साहिर लुधियानवी ।
इन पंक्तियों को लिखते वक्त उन्होंने 2021 के उस भारत की कल्पना कर ली थी, एक ऐसा भारत जिसका निज़ाम महाभारत के धृतराष्ट्र के समान हो जाएगा। एक ऐसा भारत जिसकी जनता एक महामारी के समय ऑक्सीजन की कमी के कारण दम तोड़ने पर मजबूर हो जाएगी। एक ऐसा भारत देश जो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दंभ भरते हुए अपने ही देश के नागरिकों की जान को लोकतंत्र के नाम पर सूली पर चढ़ा देगा। एक ऐसा देश जिसकी स्वास्थ्य व्यवस्था की चारपाई के चारों पाए चरमरा जाएंगे। यकीनन साहिर बड़े दूरदर्शी थे।
कोरोना, एक ऐसी बीमारी जिसके बारे में हम 2020 में यह कहते थे कि ना जाने चीन ने ये कैसी बला पूरी दुनिया को दे दी है। वुहान से जन्म होने के दावे के बीच इस वायरस ने बीते एक साल में वैश्विक मानचित्र पर जितनी तबाही मचाई है, निश्चित तौर पर तीसरा विश्व युद्ध भी अगर हो जाए, तो वो इस संख्या में लोगों को प्रभावित नहीं कर सकता।
एक माइक्रोब सा वायरस विश्व के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका के शक्तिशाली होने के गुरुर को खंड- खंड करने में कामयाब रहा और असर इतना हुआ की एक राष्ट्रपति को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ गई। वहीं विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश ने साबित कर दिया कि हम भारत के लोग देख कर भी नहीं सीखते-सुधरते हैं। हम आज से पहले हमेशा सुनते आए थे कि काल का चक्र घूम कर वापस उसी स्थान पर ज़रूर आता है कोरोना ने दुर्भाग्यवश हमें यह दिखा भी दिया।
हमने हमारी पूर्व की गलतियों से कुछ भी नहीं सीखा
हमने हमारी पूर्व की गलतियों से कुछ भी नहीं सीखा ठीक एक साल के बाद हम उसी स्थान पर खड़े हैं, जहां एक वर्ष पूर्व थे। हम वैसी ही खबरें सुन रहे हैं जैसे एक वर्ष पूर्व सुन रहे थे। श्मशान में चिताओं की धधकती हुई वैसी ही तस्वीरें देख रहे हैं जैसे एक वर्ष पूर्व देख रहे थे। अस्पताल के बाहर दम तोड़ते मरीज़ो और उनके परिजनों के आंसू भी ठीक वैसे ही हैं जैसे एक वर्ष पूर्व थे। ऑक्सीजन, वेंटिलेटर्स ,बेड की कमी की वैसी ही खबरें हैं जैसी एक साल पूर्व थी। इतना सब कुछ वैसे ही होने की इन तस्वीरों में अगर कुछ बदला है, तो हाहाकार और तांडव का स्तर बदला है। बदला है, तो मौतों का आंकड़ा बदला है, जो बढ़ा है।
बदला है, तो ऑक्सीजन, वेंटिलेटर्स ,बेड की कमी की संख्या बदली है, बदला है, तो देश के निज़ाम का रवैया बदला है और हां आवाम का भी बदला है जिसे कहने में गुरेज़ नहीं होना चाहिए।
आपदा प्रबंधन इस देश में कक्षा नौवीं में सीबीएसई स्कूल के पाठ्यक्रम में पढाई जाती है। एक सुझाव है की इस आपदा प्रबंधन को इस देश के नेताओं को सरकारी बाबुओं को और उन सभी को जिनके हाथों इस देश की बागडोर है, उनके लिए अनिवार्य कर दिया जाए। उन्हें बच्चों के साथ कक्षा में बैठा कर पढ़ाया जाए कि आपदा में अवसर” से पहले “आपदा से निपटने की तैयारी ज़रूरी है। आपदा में अवसर से पहले आपदा दोबारा ना हो उससे बचने की तैयारी अनिवार्य है।
काश की हमारे देश के नेताओं, देश के अधिकारियों ने यह पाठ पढ़ा होता तो शायद आज एक साल बाद हम ठीक उसी जगह पर खड़े ना होते, जहां पहले थे। वही चीख-पुकार ना सुन रहे होते, जो एक साल पहले सुन रहे थे। कहते हैं कि इंसान अपनी गलतियों से सीखता है, अगर इस लॉजिक से इंसान होने का पैमाना तय किया जाए तो शायद ही हम में से कोई इंसान हो।
सरकार आम जनमानस के हितों की चिंता छोड़ सत्ता में व्यस्त है
आज एक साल बाद देश की जनता सत्ता के आगोश में समाए सत्ताधीशों से कुछ बड़े और कड़े सवाल पूछ रही है। आखिर क्यों एक साल में देश को कोरोना से लड़ने के लिए तैयार नहीं किया जा सका? आखिर क्यों देश इस वक्त ऑक्सीजन की कमी से जूझ रहा है? आखिर क्यों कोरोना की वैक्सीन बाहर भेजी गई? क्या पहली प्राथमिकता देश के सभी लोग नहीं होने चाहिए थे? आखिर क्यों देश में कोरोना के बीच बिहार चुनाव करवाए गए? आखिर क्यों कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए भी असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी में चुनाव करवाए गए?
आखिर कहां गए प्रधानमंत्री कोरोना फंड में दिये गए पैसे? आखिर क्यों? ऐसे अनगिनत आखिर क्यों? हर उस परिवार के मन में हैं, जो कोरोना की इस लहर में अपने परिजनों को खो चुके हैं। सवाल बड़े हैं और सवाल अहम हैं पर सब सवालों में सबसे बड़ा सवाल है कि देश की इस स्थिति के लिए कौन ज़िम्मेदार है? कुछ लोगों के लिए इसके ज़िम्मेदार प्रधानमंत्री होंगे, तो कुछ लोगों के लिए राज्यों के मुख्यमंत्री, तो कुछ लोगों के लिए राजनीतिक दल होंगे।
देश में हुई इस भयावहता की स्थिति के लिए हम भी ज़िम्मेदार हैं
सच्चाई को हमेशा से कड़वा कहा जाता है और क्या यह एक कड़वी सच्चाई नहीं है कि आज की इस भयावह परिस्थिति के लिए कुछ ज़िम्मेदार हम और आप भी हैं। हम भी तो भूल ही गए थे कि कोरोना हमारे बीच है और निकल पड़े थे भरे बाज़ारो में दिवाली, क्रिसमस, होली जैसे त्योहारों में मौज़-मस्ती करने के लिए। सोशल डिस्टेंसिंग से ही हमने डिस्टेंसिंग कर ली थी। क्या हमें नहीं पता था कि हमारे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था कैसी है?
क्या हम इस बात से अनजान थे कि हमारे नेता कैसे हैं? क्या हमें नहीं अंदाजा होना चाहिए था कि आज भी इस देश में 1456 लोगों पर एक डॉक्टर का अनुपात है? क्या हमने पहली की त्रासदियों में अस्पताल के बाहर मरते लोग नहीं देखे थे? हम भी तो सब कुछ जानते हुए गान्धारी बन गए थे, आँखों पर धर्म, जात, चुनाव, अमीरी- गरीबी, जैसे अनेक आडम्बरों की पट्टियां लगाकर घूमने लग गए थे।
समय की सबसे खूबसूरत बात यह होती है की वह बदलता ज़रूर है और हम भारतीय हैं। उस देश के नागरिक जिनके लिए उम्मीद पर दुनिया कायम है। ये दिन हमारे लिए कठिन हैं,एक बार फिर समय हमारी परीक्षा ले रहा है, पर इस बार हम इस परीक्षा में केवल क्षणभर के लिए पास नहीं होंगे बल्कि, अपने द्वारा की गई गलतियों से सीखेंगे। हर बार की तरह अंधेरा छटेगा और सूरज निकलेगा और एक बार फिर चीज़े सामान्य होंगी बस इस बार ज़रूरी यह है कि हम हमारी गलतियों से सीखें, क्योंकि सीखने का भी मौका बार-बार नहीं मिलता है।