पश्चिमी राजस्थान के बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर और जोधपुर ज़िलों के गाँवों में रेगिस्तान की विलुप्त हो रही जैव- विविधता के अवषेष देखने को मिलते हैं। वास्तव में थार की वनस्पतियां और जीव-जंतु लुप्त होने की स्थिति में हैं। इसका नकारात्मक प्रभाव यहां के पर्यावरण, समुदाय की आजीविका, कृषि, पशुपालन, खान-पान, स्वास्थ्य और पोषण पर पड़ रहा है।
प्रकृति के साथ समन्वय से चलने वाला जीवन अब पूरी तरह से यांत्रिक हो गया है। लेकिन, आधुनिकता के बाहुपाश में बंधा इन्सान इससे बाहर निकल कर सोचता ही नहीं है। कृषि के बदले तौर-तरीकों, औद्योगीकरण, ढांचागत विकास, बाजारवाद के हस्तक्षेप से बदलती जीवनशैली के कारण जैव विविधता संकट में है। पिछले चालीस-पचास वर्षों में प्राकृतिक संसाधनों का अतिदोहन, सार्वजनिक संसाधनों का बेजा इस्तेमाल और व्यक्तिगत विकास के लालच के कारण हुए प्रकृति के बिगाड़ने का प्रभाव दिखने लगा है। रेगिस्तान का पारिस्थितिकी-तंत्र विचलित हो रहा है तथा जीवन का परिवेश खंडित हो रहा है।
लेकिन, अब कुदरत ने इसका बदला लेना प्रारंभ कर दिया है। पिछले दस-बारह वर्षों में बरसात और गर्मी का समय बदल गया है। वर्तमान में गर्मी एक महीने पहले आई तथा अब बेमौसम धूलभरी आंधियां उमड़ रही हैं। पेड़-पौधे समय से पहले फूल-फल निकाल रहे हैं। सिंचित क्षेत्र में खेजड़ी के पौधों पर सांगरी आनी बंद हो गई है। फसलें नष्ट हो रही हैं। मुआवजे से नुकसान की भरपाई हो सकती है, लेकिन प्रकृति की भरपाई नहीं हो सकती है। कुदरत को पुनः संतुलन में लाने के लिए मानव समाज को ही सोचना होगा। जैव विविधता संरक्षण का मुद्दा जितना वैधानिक, राजनैतिक है, उससे कहीं अधिक सामाजिक है।
उन्नति विकास शिक्षा संगठन द्वारा यूरोपीय संघ की थार की जैव- विविधता को सहेज़ने की पहल
उन्नति विकास शिक्षा संगठन द्वारा यूरोपीय संघ के सहयोग से एक वर्ष की समयावधि में पश्चिमी राजस्थान के चार जिलों क्रमशः नागौर, जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर के गाँवों में शामलात शोध यात्रा के माध्यम से किए गए सहभागी शोधकार्यों में सार्वजनिक संसाधनों के महत्व, उनकी उपयोगिता, वर्तमान स्थिति, क्षेत्रीय जैव विविधता का संरक्षण और जलवायु परिवर्तन के लक्षण एवं प्रभाव पर भी प्रकाश डाला गया तथा समुदाय द्वारा महत्वपूर्ण जानकारी साझा की गई है।
इस जानकारी से जो महत्वपूर्ण तथ्य सामने आए हैं, वह हमारे भावी-जीवन के लिए बेहद डरावने हैं। प्रकृति के मिजाज के साथ समन्वय और पोषण की भावना से संचालित हमारा जीवन अब तेजी से आधुनिकता की गिरफ्त में आ चुका है। हमारे बुजुर्ग प्रकृति को पोषित करने वाली परंपराओं को औपचारिक तौर पर मानते हैं, लेकिन आज के युवाओं को यह मात्र ढकोसला लगता है। रेगिस्तान में जैव-विविधता और जीवन पारंपरिक जल स्त्रोतों और ओरण, गौचर जैसे सामुदायिक संसाधनों की गोद में ही जैविकीय क्रियाओं को पूर्ण करने के लिए संरक्षित व सुरक्षित रहे हैं।
सार्वजनिक संसाधनों का निजी लाभ के लिए उपयोग बढ़ रहा है। सहभागी शामलात शोध यात्रा के दौरान कुछ क्षेत्रों में विलुप्त होती कुछ स्थानीय वनस्पतियों व जीव-जंतुओं की प्रजातियों को भी देखा गया, जिनको संरक्षण नहीं मिला, तो आने वाले समय में इनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
हमारे पारिस्थितिकी तंत्र एवं प्रकृति के साथ संतुलन करने वाले पक्षी तेजी से विलुप्त हो रहे हैं
श्रीडूंगरगढ़ व कुछ गाँवों में चील, गगू (इजिप्टियन वल्चर), गिद्ध (यूरेपियन ग्रिफोन वल्चर, सिनेरिआस वल्चर) कुरदांतली (रेड नेप्ड आइबिस) मृत पशुओं को डालने वाले स्थानों पर देखने को मिले। गाँव के लोगों से चर्चा की, तो उन्होंने बताया कि पहले सभी गाँवों में बड़ी संख्या में ये पक्षी पेड़ों पर व आकाश में मंडराते हुए दिख जाते थे। ये जहां भी मंडराते थे, हमें यह पता लग जाता था कि कोई पशु मरा है। लेकिन, धीरे-धीरे ये पक्षी कहां चले गए पता नहीें।
अधिकांश गांवों में लोगों की यही धारणा है कि विदेशी लोग इन्हें यहां से ले गए हैं। दूसरी ओर चारागाह व पारंपरिक जल-स्रोत भी समाप्त हो चुके हैं। पशुधन भी कम हुआ है। मृत पशुओं का भक्षण करने वाले यह पक्षी कुदरत के साथ तालमेल बनाकर जीते हैं और विपरीत वातावरण को जल्दी भांप लेते हैं तथा अनुकूलनता के अभाव में क्षेत्र छोड़ देते हैं या समाप्त हो जाते हैं।
थार क्षेत्र के ज़िलों में हमें कुछ अलग-अलग प्रकार के पक्षी देखने को मिले जिनकी संख्या बहुत कम है। इनमें सोन चिड़ी और सुगन चिड़ी (वैज्ञानिक नाम मोटासिला अल्बा) भी है, जो हमें श्रीडूंगरगढ़ के उदासर चारणान, जैसलमेर खुइयाला गांव में दिखी। लोगों ने बताया कि पहले वे इसके उड़ने-बैठने की दिशा और आवाज़ से आने वाले सीजन की बरसात और खेती का अंदाज़ा लगाते थे, लेकिन अब इनकी भी संख्या कम हो गई है। सुगन देखने वाले भी कम रह गए हैं। लोग अपने खेतों में जाकर इनका घंटों इन्तजार करते हैं, नहीं दिखते हैं तो वापस घर लौट आते हैं।
डेजर्ट के उल्लू (स्पोटेड उल्लू) जिसे स्थानीय भाषा में कोचरी कहते हैं, तालाबों के किनारे खेजड़े के खोखले तनों पर देखे गए। रात में इसकी आवाज़ सुनकर बुज़ुर्ग शकुन-अपशकुन का अंदाजा लगाते थे। यह अधिकांशतः उन्हीं तालाबों के किनारे मिले जहां पानी तथा सघन खेजड़ी के वृक्ष हैं। नीलकंठ (इंडियन रोल्लर व यूरोपियन रोल्लर) नागौर, बाप व जैसलमेर में तालाबों के किनारे, खेतों में देखे गए जबकि, श्रीडूंगरगढ़ में सिचिंत कृषि के बावजूद देखने को नहीं मिले।
परपल सनबर्ड, बुलबुल, काॅमन वेबलर, तोता, मोर, कमेड़ी (डाॅव) लाल कमेड़ी (स्पोटेड डाॅव) आमतौर पर सभी गांवों व रोही में देखने को मिले। सामान्य कौए दिखे, लेकिन जंगली कौआ (कागडोड) नहीं दिखे। इसी प्रकार कठफोड़वा (वूडपेकर) जिसे स्थानीय भाषा में खातीचिड़ा भी कहते थे, पहले बहुतायत में दिखते थे। वे पेड़ों के तनों को काट कर अपना घोंसला बनाते थे। इनके पेड़ को काटने की आवाज़ दूर तक सुनाई देती थी। अब यह लुप्त हो रहे हैं।
पारंपरिक जल स्रोत एवं चारागाह हैं, इसलिए थार की शुष्क जलवायु में किंगफिशर पक्षी भी है। नदियों, झीलों, बांधों व समुद्र के किनारे मछलियों का शिकार करने वाला नीला रंग वाला किंगफिशर रेगिस्तान के तालाबों किनारे भी देखा गया, लेकिन इनकी संख्या भी गिनी-चुनी रह गई है। फसलों, फलों का परागण करने वाली तितलियां, शहद मक्खियों के छत्ते नहीं दिखे। स्थानीय वनस्पतियों की हो रही कमी के कारण यह कम हो रहे हैं।
जंगली जानवरों में हिरण, नील गाय के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखा। एक चर्चा के दौरान लोगों ने बताया कि पहले भेड़िया जिसे गादड़ा भी कहते थे, नाहरिया (भेड़िये की एक प्रजाति) लोमड़ी, खरगोश नहीं दिखे। भेड़ियों की संख्या में कमी के कारण गत 20-25 वर्षों में नील गाय और सूअरों की संख्या ज्यादा हो गई है। इसका मुख्य कारण जैव-विविधता का असंतुलित होना है।
कृत्रिम पेस्टीसाइड हमारे पर्यावरण के पारिस्थितिकी-तंत्र के लिए हानिकारक
कुछ लोगों का कहना है कि फसलों में पेस्टीसाइड के छिड़काव के कारण ज़मीन के अंदर व ज़मीन पर रेंगने वाले जीव समाप्त हो रहे हैं। 40-50 वर्ष पहले तक सरिसृप प्रजाति के जीव-जंतु बहुत संख्या में दिखते थे। लेकिन, अब इनकी संख्या कम हुई है। आधुनिक विकास, प्रकृति के साथ अलगाव, धन कमाने का लालच, जल, वन और खनिज संसाधनों का अत्यधिक दोहन, जीवन जीने के तरीकों में आया बदलाव प्रकृति को पोषित नहीं करता है, जिससे प्रकृति बदल रही है।
हमारा पारिस्थितिक तंत्र (इको सिस्टम) टूट रहा है। तेजी से बदलते प्राकृतिक परिवेश में क्षेत्रीय जीव रह नहीं पाते हैं। वह या तो अनुकूल वातावरण वाले स्थानों पर चले जाते हैं या पूरी तरह से समाप्त हो जाते हैं। थार का रेगिस्तान भी इससे अछूता नहीं है। प्रकृति के साथ सीमा से अधिक छेड़-छाड़ हुई है तथा उसने अब बदला लेना प्रारंभ कर दिया है। अब भी मानव नहीं चेता तो भावी पीढ़ियों का जीवन-यापन मुश्किल हो जाएगा।
दरअसल, जैव विविधता के बने रहने के लिए बहुत सारी समाजिक परंपराएं रही हैं, जिनमें टूटन आई है। इसके लिए सरकार से उम्मीद या भरोसा करना उचित नहीं होगा। बाज़ार और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के हितों को साधने वाली सरकारें जैव-विविधता की नीतियां, कानून आदि बनाती हैं, लेकिन उनके क्रियान्वयन को लेकर गंभीर नहीं हैं। यही कारण है कि सरकारें जैव-विविधता संरक्षण कानून, जैव-विविधता बोर्ड का गठन होने के बावजूद उनको क्रियाशील बनाने में रुचि नहीं ले रही हैं।
जब तक समाज इस मुद्दे पर गंभीर नहीं होगा, तब तक सरकारी प्रावधान कागजों तक ही सीमित रहेंगे। धीरे-धीरे जैव-विविधता पनपने वाले सार्वजनिक संसाधनों का उपयोग निजी हित में होने लगा है। पूर्वजों द्वारा बनाए गये इन संसाधनों के कारण ही रेगिस्तान में विविध प्रकार की जैव-विविधता और जीवन का परिवेश बना था, जो अब छिन्न-भिन्न हो रहा है।
जब से जैव-विविधता संरक्षण की सामाजिक संस्कृति विघटित हुई है, तब से हमारी जैव-विविधता समाप्त होने की स्थिति में आ गई है। समाज को यह सोचना होगा कि वह अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए जीवन का परिवेश छोड़ कर जाना चाहते हैं या नहीं?
नोट- यह आलेख बीकानेर, राजस्थान से दिलीप बीदावत ने चरखा फीचर के लिए लिखा है।