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कोविड से पहले की वो बारह गंभीर बीमारियां एवं उनकी वैक्सीन का सफर

पर्यावरण में हरियाली व वृक्षों पर कैनोपी की कमी, तेज़ी से कटते व उजड़ते हुए जंगल, जंगलों में बढ़ते हुए कंक्रीट के महल, वाहनों से निकलने वाले विषैले धुंए, उड़ते हुए धूल के कण व अन्य कारणों से पूरा वायुमंडल प्रदूषित हो चुका है। इसके कारण हमारे शरीर के भीतरी और बाहरी सतह पर अदृश्य रूप से कई अति सूक्ष्म जीवाणु एवं विषाणुु हमेशा मौजूद रहते हैं। जिन्हें सिर्फ माइक्रोस्कोप की मदद से ही देखा जा सकता है।

यह हमेशा संक्रमित रोगी द्वारा छुई हुई वस्तु, जल या हवा के संपर्क में आने से फैलते हैं और ज़रा सी लापरवाही पर किसी के भी स्वास्थ्य को पूरी तरह से प्रभावित करने में पूर्णतः सक्षम होते हैं। वैसे तो सन 2021 से पहले भी इंसानी लापरवाहियों की वजह से मानव व जीव-जंतुओं पर कई बार संकट के बादल मंडराए लेकिन वैज्ञानिकों ने दिखाई न देने वाले इन अदृश्य बैक्टीरिया और वायरसों के ज़रिए फैलने वाली गंभीर बीमारियों को वैक्सीन की मदद से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाकर समय रहते हुए काबू पा लिया।

दुनिया में सबसे पहले वैक्सीन की खोज ब्रिटिश डॉक्टर एडवर्ड जेनर ने स्मॉलपॉक्स बीमारी से लड़ने के लिए की थी। उसके बाद से अब तक निरंतर किए गए कई वैज्ञानिकों के गहन शोध का नतीजा है कि सन 2021 तक दो दर्जन से भी अधिक गंभीर बीमारियों के वैक्सीन तैयार किए जा चुके हैं।

तो आइए जानते हैं दुनिया के पहले वैक्सीन से लेकर कोरोना महामारी की वैक्सीन तैयार करने तक के सफर के साथ-साथ उससे जुड़ी हुई बीमारियों और कुछ रोचक व दिलचस्प जानकारियों के बारे में। तो आइये शुरू करते हैं वैक्सीन का सफर।

स्मॉलपॉक्स एवं उसके वैक्सीन की खोज

चेचक को शीतला, बड़ी माता, स्मॉलपॉक्स के नाम से भी जाना जाता है। यह मनुष्यों में फैलने वाला एक विषाणु जनित रोग है। इसके लिए वायरोला मेजर और वायरोला माइनर नाम के विषाणु को उत्तरदायी माना जाता है। इस रोग के विषाणु त्वचा की लघु रक्त वाहिका, मुंह और गले में असर दिखाते हैं। मेजर विषाणु की वजह से चेहरे पर दाग, अंधापन जैसी समस्याएं आती हैं।

टीके के आविष्कार से पूर्व इस रोग से बहुत अधिक मृत्यु हुआ करती थी। चेचक बहुत ही पुरानी बीमारी है जिसका आयुर्वेद के ग्रंथों में भी वर्णन मिलता है। लगभग 1,200 वर्ष पूर्व मिश्र में पाई गई एक ममी की त्वचा पर दाग पाए गए, जिसे वैज्ञानिकों ने चेचक माना। ईसा के कई शताब्दी पूर्व चीन में भी इस रोग का वर्णन पाया गया।

छठी शताब्दी में यूरोप और सोलहवीं शताब्दी में स्पेन के नागरिकों द्वारा यह रोग अमरीका में फैल गया। बढ़ते हुए संक्रमण की रोकथाम के लिए लेडी मेरी वोर्टले मौंटाग्यू ने 1718 में पहली बार यूरोप में इसकी सुई प्रचलित की और ब्रिटिश डॉक्टर एडवर्ड जेनर ने सन 1796 में स्मॉलपॉक्स बीमारी का वैक्सीन तैयार किया।

उसके बाद 1853 में पहली बार अमेरिका ने वैक्सीन को लेकर कानून बनाया और स्मॉलपॉक्स वैक्सीन सभी के लिए अनिवार्य करते हुए 1898 में बनाये गए कानून में संशोधन किया। दस हज़ार ईसा पूर्व से मानव जाति को पीड़ित करने वाले इस रोग से सिर्फ 18वीं सदी में यूरोप में ही हर साल 4 लाख लोग काल के गाल में समा जाया करते थे और बहुत से लोग अंधेपन का भी शिकार हो जाते थे।

बीसवीं सदी में भी इस रोग से 300 से 500 मिलियन मौतें हुईं। सन 1950 के प्रारंभ से ही इस रोग के 50 मिलियन मामले हुआ करते थे। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी माना कि इस बीमारी के कारण विश्व भर में प्रतिवर्ष 20 लाख मौतें हुआ करती थीं। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में टीकाकरण अभियानों के चलते दिसम्बर 1979 में इस संक्रामक रोग का उन्मूलन यानि कि अंत हो गया।

रेबीज एवं उसके वैक्सीन की खोज

फ्रैंच वैज्ञानिक लुई पाश्चर ने वर्ष 1885 में पशुओं के काटने से फैलने वाली बीमारी के लिए रेबीज वैक्सीन की खोज की थी। पशु चिकित्साधिकारी फिरोजाबाद डॉ. आदित्य कुमार ने बताया कि रेबीज पशुओं की एक बीमारी है। यह पशुओं की लार में रहने वाले रेबीज नाम के विषाणु से होती है। जब रेबीज से संक्रमित कोई पशु मनुष्य को काट लेता है तो यह विषाणु संक्रमित लार के साथ रक्त के माध्यम से मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर जाता है।

इसके अतिरिक्त यह आंख, मुंह या खुले घाव से भी संक्रमण फैल जाता है। मनुष्य में इस बीमारी के लक्षण कई महीनों से लेकर कई वर्षों तक दिखाई देते हैं। इस बीमारी का एक खास लक्षण यह भी है कि जहां पर पशु काटता है, उस जगह की मासपेशियों में सनसनाहट पैदा होने लगती है। शरीर में पहुंचने के बाद विषाणु नसों से मस्तिष्क तक पहुंच जाते हैं।

साधारणतः संक्रमित व्यक्ति को थकावट, बुखार, सिरदर्द, मांसपेशियों में जकड़न, स्वाभाव का उग्र होना, व्याकुल होना, अजीबो-गरीब विचार आना, कमज़ोरी होना, लकवा, लार व आंसुओं का ज़्यादा बनना, तेज रोशनी व आवाज़ से चिढ़ना, बोलने में तकलीफ या अन्य लक्षण एक से तीन महीनों में दिखाई देना शुरू हो जाते हैं।

जब संक्रमण अत्यधिक बढ़कर नसों तक पहुंच जाता है, तो संक्रमित व्यक्ति को समस्त वस्तुएं व प्राणी डबल दिखाई देने लगते हैं। मुंह की मांसपेशियों को घुमाने में परेशानी होने लगती है। लार, आंसू और मुंह में झाग बनने लगते है। भारत में प्रतिवर्ष लगभग हजारों लोग रेबीज वाले कुत्ते के काटने से मरते हैं। इसलिए अपने गाँव, कस्बे या शहर से बाहर जाते समय खासकर कुत्तों व बंदरों से सावधान रहें।

रेबीज संक्रमित किसी भी पशु द्वारा काट लिए जाने पर 72 घंटे के अंदर चिकित्सक के निर्देशानुसार निर्धारित समय पर एंटीरेबीज टीके अवश्य लगवा लें। एक एंटीरेबीज टीका लगवाने के बाद व्यक्ति को 3 वर्ष तक रेबीज संक्रमण का खतरा नहीं रहता है। ज़्यादातर सरकारी अस्पतालों में वैक्सीन उपलब्ध होने पर निःशुल्क टीकाकरण किया जाता है।

टीबी एवं उसके वैक्सीन की खोज

दुनिया भर में होने वाली सर्वाधिक मौतों की मुख्य वजहों में से एक है ट्यूबरक्लोसिस यानी कि टीबी। जिसे राजयक्ष्मा, दण्डाणु, क्षयरोग या तपेदिक के नाम से भी जाना जाता है। यूरोपीय देशों में 1200 साल से भी अधिक समय पहले से चली आ रही यह खतरनाक बीमारी 200 वर्ष बाद सन 1400 के आसपास तक पूरी दुनिया में फैल चुकी थी।

लंदन ग्लोबल यूनिवर्सिटी और नॉर्वे इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ के शोधकर्ताओं के मुताबिक टीबी का सबसे आम संक्रमण लिनेगे 4 बारह सौ साल पहले यूरोप में मिला था। तेरहवीं और चौदहवीं सदी में इसने महामारी का रूप लेते हुए अमेरिका, अफ्रीका, कोरिया सहित एशिया के कई देशों को भी चपेट में ले लिया।

इस महामारी से लड़ने के लिए शोधकर्ताओं को वर्षों तक कोई भी सफलता नहीं मिली लेकिन सन 1882 में रोशनी की एक किरण उस समय दिखाई दी, जब 24 मार्च को रॉर्बट कॉच ने टीबी के जीवाणु की खोज की। इस खोज की याद में हर वर्ष 24 मार्च को हम विश्व टीबी दिवस के रूप में मनाते चले आ रहे हैं। वर्ष 1921 में अल्बर्ट करमेटे ने बीसीजी के टीके की खोज की थी।

बाद में किए गए एक शोध में यह बात सामने आई कि बीसीजी का टीका बचपन में लगाया जाए तो यह टीबी से बचाने में सक्षम है। फेफड़े की टीबी को रोकने के लिए शोधकर्ताओं का प्रयास आज भी जारी है। जिसकी वजह से टीबी को समझने में शोधकर्ताओं को सहायता मिली और आज हमारे पास इस रोग से लड़ने के लिए जीवन रक्षक दवाएं और वैक्सीन मौजूद हैं।

वैक्समैन नामक वैज्ञानिक ने सन 1943 में टीबी की पहली दवा स्ट्रेप्टोमाइसिन की खोज की थी, उसके बाद अन्य दवाओं की खोज हुई। सन 1943 से पहले जब दुनिया में टीबी की कोई दवा नहीं थी तब, अच्छे भोजन, शुद्ध वायु और अच्छी चिकित्सकीय देखभाल द्वारा उपचार किया जाता था जिसे सेनेटोरियम इलाज कहा जाता है।

डब्ल्यूएचओ ने 1993 में लगातार टीबी की बढ़ती हुई संख्या को देखकर वैश्विक आपातकाल घोषित किया था। पीपीएम समन्वयक फिरोजाबाद मनीष कुमार यादव के अनुसार टीबी एक संक्रामक बीमारी है। इससे ग्रसित शारीरिक रूप से कमज़ोर व्यक्ति को कई गंभीर बीमारियां होने का भी खतरा रहता है। आमतौर पर किसी भी व्यक्ति को फेफड़ों की टीबी या शरीर के किसी भी भाग में टीबी हो सकती है।

ये दोनों ही टीबी शरीर को संक्रमित करती हैं। सिर्फ इनके इलाज ही नहीं, बल्कि कारण, पहचान और लक्षण भी भिन्न होते हैं। टीबी फेफड़ों के साथ-साथ रोगी के शरीर के अन्य हिस्सों को भी प्रभावित करती है। फेफड़ों की बलगम धनात्मक टीबी से ग्रसित रोगी के खांसने, छींकने और बोलने के साथ ही टीबी के कीटाणु किसी भी स्वस्थ व्यक्ति को संक्रमित कर सकते हैं।

जिला क्षयरोग अधिकारी फिरोज़ाबाद आर.एस. अत्येन्द्र के अनुसार, दुनिया में नए मरीजों की संख्या में हर साल दो फीसद कमी दर्ज की जा रही है। भारत में क्षय रोग को नियंत्रित करने के लिए लगभग पिछले 50 वर्षों से किए जा रहे हैं। प्रयासों के बाद भी यह आजतक गंभीर समस्या बनी हुई है। भारत सरकार ने टीबी को सन 2025 तक नियंत्रित करने का लक्ष्य निर्धारित किया है।

आज समस्त क्षयरोग नियंत्रण केंद्र से लेकर सरकारी केंद्रों पर टीबी रोगियों के लिए आधुनिक जांच, निःशुल्क सम्पूर्ण उपचार के साथ-साथ सरकार की महत्वाकांक्षी निःक्षय पोषण योजना के अंतर्गत सभी चिन्हित रोगियों को न्यूट्रीशियन सपोर्ट के लिए 500 रुपये प्रतिमाह उपचार जारी रहने तक भुगतान किये जाने एवं राष्ट्रीय टोल फ्री नंबर 1800 11 6666 व अन्य सुविधाएं निःशुल्क उपलब्ध कराई जा रही हैं।

टीबी मुक्त भारत के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए राज्य सरकारें शासन की सभी महत्वाकांक्षी योजनाओं व कार्यक्रमों को विभिन्न सामाजिक संगठनों के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने व जागरूक करने का कार्य कर रही हैं। जनपद में भी जनआधार कल्याण समिति, सेवापथ जनकल्याण समिति, इंडियन रेडक्रॉस सोसाईटी व अन्य सामाजिक संगठनों का कार्य अतिसराहनीय है।

डिप्थीरिया एवं उसके वैक्सीन की खोज

डिप्थीरिया एक संक्रामक रोग है, जो डिप्थीरी नामक जीवाणु के शक्तिशाली विष से होता है, जो रक्त को अशुद्ध कर देता है। इससे प्रभावित होने वाले सर्वाधिक 2 से 10 वर्ष तक के बच्चे होते हैं। वैसे यह सभी आयु वर्ग के लोगों को हो सकता है। इस रोग की अवधि विशेष रूप से लगभग दो से चार दिन की होती है। इस जहरीले बैक्टीरिया का विष हृदय, पेशियों, गुर्दों और यकृत तक पहुंच सकता है।

माइयोकार्डाइटिस (हृदय पेशियों की क्षति), न्यूराइटिस (तंत्रिकाओं की सूजन, जिससे तंत्रिका को नुकसान पहुंच सकता है), पक्षाघात, श्वसन की खराबी और न्युमोनिया), वायुमार्ग का बाधित होना और कान का संक्रमण हो सकता है। ज़्यादातर यह रोग गले में होता है। डिप्थीरिया के कारण कुछ रोगियों की हृदयगति रुक जाने से मृत्यु तक हो जाती है।

डिप्थीरिया टॉक्सॉयड एकल खुराक के रूप में नहीं दिया जाता है, बल्कि इसे टिटनस टॉक्सॉयड और कई बार कुकुर खांसी के टीके के साथ संयुक्त रूप से दिया जाता है। जिसे DT, DTaP, DTwP, Td, या Tdap कहा जाता है। कुछ मामलों में डिप्थीरिया का विष अन्य संयोजन टीकों में दिया जा सकता है।

डिप्थीरिया की बीमारी से बचने के लिए 1923 में डिप्थीरिया वैक्सीन की खोज के बाद से, इसके टीके का प्रयोग करने वाले देशों में डिप्थीरिया की दर में तेजी से कमी आई। वर्ष 1974 में डिप्थीरिया प्रतिरक्षण में तब विस्तार हुआ जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने विकासशील देशों के लिए चलाए जाने वाले प्रतिरक्षण के विस्तारित कार्यक्रम के लिए अपनी अनुशंसित प्रतिरक्षण सूची में डिप्थीरिया टॉक्सॉयड को शामिल किया।

टिटनेस एवं उसके वैक्सीन की खोज

टिटनस / डिप्थीरिया /पर्टुसिस शॉट (Tdap) वैक्सीन टॉक्सॉइड्स से बना होता है, इसलिए इसे टिटनस टॉक्सॉइड्स (टेटनस का टीका) के रूप में भी जाना जाता है।

प्रेग्नेंसी के समय टिटनेस का इंफेक्शन होने की संभावनाएं ज़्यादा रहती हैं। इसलिए जच्चा बच्चा को सुरक्षित रखने के लिए गर्भवती महिलाओं के लिए प्रेग्नेंसी के आखिरी तीन महीनों में टेटनस (Tdap) का टीका धनुस्तम्भ सबसे सुरक्षित माना जाता है। जर्मन वैज्ञानिकों के एक समूह ने एमिल वॉन बेह्रिंग के नेतृत्व में वर्ष -1890 में निष्क्रिय प्रतिरक्षा विज्ञान के लिए पहली बार टेटनस टॉक्साइड के टीके की खोज की।

इसका उपयोग द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सेना में टेटनस (टॉक्साइड) को रोकने के लिए किया गया। पहली बार डिप्थीरिया, टेटनस और पर्टुसिस/ गलसुआ (DTP) के लिए संयुक्त टीके का प्रयोग वर्ष – 1948 में किया गया।

डीटीपी वैक्सीन की वजह से कई लोगों को इंजेक्शन साइट के चारों ओर लालिमा, सूजन और दर्द की शिकायत रहती थी जिसकी वजह से वर्ष 1991 में इस पर रोक लगा दी गई। फिर वर्ष 1992 में सुधार करते हुए वैज्ञानिकों ने डिप्थीरिया को एकेलुलर पर्टुसिस (टीडीएपी या डीटीएपी) के साथ दो नए टीके लॉन्च किए जो किशोरों और वयस्कों को दिया जा सकता है। टिटनेस की बीमारी से बचने के लिए वैक्सीन की खोज 1926 में की गई थी।

पीत ज्वर एवं उसके वैक्सीन की खोज

पीत ज्वर वाइरस एक वायरल इंफेक्शन है जो कि, एक विशेष प्रकार के मच्छर से फैलता है। यह फ्लेविविरिडिया वायरस परिवार से संबंधित है। ज़्यादातर यह संक्रमण अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में पनपता है और यहां आने जाने वाले यात्रियों से भारत व अन्य देशों में फैलता है। सिर दर्द, जी मिचलाना, बुखार, मिचली, उल्टी, कंपकंपी, मांसपेशियों का दर्द, पीठ दर्द आदि इसके लक्षण हैं।

इस बीमारी के गंभीर होने से लिवर, दिल, गुर्दे की समस्या या खून बहने की समस्या भी हो सकती है। मच्छर निरोधी विधियां और टीकाकरण ही इस रोग से बचाव का एकमात्र बेहतरीन हथियार है। पीत ज्वर का टीका 30 वर्ष या इससे अधिक अवधि के लिए प्रतिरक्षा प्रदान करता है। सन्‌ 1900 में पीतज्वर महामारी बनकर आया।

हवाना के वरिष्ठ डाक्टर कार्लास फिनले ने इसका कारण मच्छर को माना, जिसके आधार पर अनुसंधान में जेम्स कैरोल, अग्रामांटी और जे.सी. लेजियर व अन्य साथियों ने पशुओं पर अभूतपूर्व प्रयोग किए। जेम्स कैरोल ने अपनी जान की भी परवाह न करते हुए पीतज्वर से पीड़ित रोगी का रक्तपान करने वाले मच्छरों से खुद को कटवाया जिससे वह स्वयं पीतज्वर से पीड़ित हो गए, जिन्हें बड़ी मुश्किल से बचाया जा सका लेकिन कुछ दिनों बाद उनकी मृत्यु हो गई।

पीत ज्वर रोग का संक्रमण कैसे होता है, इसका सही पता लगाने के लिए अनेक सैनिक और नागरिक गिनिपिग बने। अंत में सन्‌ 1901 में यह सिद्ध हो पाया कि पीतज्वर किसी अदृष्ट जीवाणु के कारण होता है और उसके संवाहक मच्छर होते हैं। सन्‌ 1927 में पश्चिमी अफ्रीकी पीतज्वर आयोग ने बताया कि रीसस बंदर मकाका मुलाटा को यह रोग हो सकता है।

फिर पीतज्वर का विषाणु भी पहचाना गया जो 17 से 28 मिलीमाइक्रान के आकार का होता है। यलो फीवर (पीत ज्वर) से बचने के लिए मैक्स थैलर और उनके सहयोगी ने 1936 में टीके की खोज की।

जापानी इनसेफेलाइटिस बुखार एवं उसके वैक्सीन की खोज

जापानी इंसेफेलाइटिस एक ऐसी बीमारी है, जो फ्लेविवायरस संक्रमित मच्छरों के काटने से होती है। यह संक्रामक बुखार नहीं है और न ही एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलती है। इसका सीधा असर रोगी के दिमाग पर पड़ता है। जापानी इनसेफेलाइटिस बुखार में मरीज दौरा पड़ने के बाद कोमा में जा सकता है।

यह एक प्रकार का दिमागी बुखार है जो मच्छर, सूअर और गंदगी में रहने वाले एक खास किस्म के वायरस की वजह से फैलता है। अमरीका के विस्कॉन्सिन राज्य के ला क्रोसे शहर के नाम पर इस वायरस का नाम पड़ा। पहली बार सन 1963 में इसका पता चला। तेज बुखार, सिरदर्द, गर्दन में जकड़न, कमजोरी, उल्टी होना, हमेशा सुस्त रहना, भूख कम लगना इस बीमारी के मुख्य लक्षण हैं।

गंभीर होने पर कब्ज, बेहोशी, कोमा और लकवे के साथ यह लिंफटिक फाइलेरिया या हाथीपांव जैसी बीमारियां भी हो सकती हैं। इस वायरस से ज़्यादातर 1 से 14 साल के बच्चे और 65 वर्ष से अधिक उम्र वाले लोग ही चपेट में आते हैं, जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है। अगस्त, सितंबर और अक्टूबर माह में इस बीमारी का प्रकोप सबसे ज़्यादा बना रहता है।

इससे बचने के लिए हमेशा अपने घर के आस-पास गन्दगी व जल भराव न होने दें और न ही गंदे पानी के संपर्क में आएं। बारिश के मौसम में खान-पान का विशेष ध्यान दें। पूरे कपड़े पहनें ताकि शरीर का हर हिस्सा ढका रहे। इन्सेफेलाइटिस से बचाव के लिए टीके भी लगाए जाते हैं।

इन्फ्लुएंजा (फ्लू) एवं उसके वैक्सीन की खोज

इन्फ्लुएंजा एक संक्रामक रोग है, जो इन्फ्लुएंजा (फ्लू) वायरस के कारण होता है। साधारणतः यह दो प्रकार के होते हैं। पहला इन्फ्लूएंजा A और दूसरा इन्फ्लुएंजा B। इसमें एक वायरस और भी होता है वह A और B की तरह आम नहीं होता है, वह है इन्फ्लूएंजा C। जिसके कारण युवाओं में ऊपरी श्वसन नली का संक्रमण होता है और प्रत्येक प्रकार के इन्फ्लुएंजा वायरस के अनेक भिन्न-भिन्न स्ट्रेन होते हैं।

कुछ स्थितियों में इसके कारण न्यूमोनिया भी हो सकता है। यहां तक कि रोगी की मृत्यु भी हो जाती है। इन वायरस के द्वारा होने वाली बीमारियों को प्रायः “फ्लू” कहते हैं। इन्फ्लुएंजा से होने वाली बीमारियां अनेक कारकों पर निर्भर करती हैं। जिसमें वायरल स्ट्रेन, रोगी की आयु और रोगी का स्वास्थ्य भी शामिल है। इन्फ्लूएंजा फ्लू में बुखार, कंपकंपी, खांसी, गले की खराश, दर्द महसूस होना, सिर का दर्द और थकावट होती है।

उल्टी और दस्त भी हो सकते हैं। इन्फ्लुएंजा मुख्य रूप से हवा में संक्रमित श्वसन बूदों व संदिग्ध रोगियों के जरिए फैलता है। इन्फ्लुएंजा A स्ट्रेन में एंटीजेनिक शिफ्ट के कारण बीसवीं शताब्दी में तीन महामारियां फैली थीं। सन 1918-1919 में वायरस से होने वाली इस बीमारी से शहर के शहर मिट गए। स्पैनिश इन्फ्लुएंजा के कारण दुनिया भर में लगभग 40 मिलियन लोगों की मृत्यु हुई थी।

इस महामारी के लिए ज़िम्मेदार वायरस को वैज्ञानिकों ने H1N1 इन्फ्लुएंजा के रूप में वर्गीकृत किया। फ्लू वैक्सीन कैम्पेन की पहली बार शुरुआत सन 1945 में की गई। सन 1918 की महामारी के बाद फिर से इन्फ्लुएंजा सन 1957-58 में फैला जिसे वैज्ञानिकों ने एशियन इन्फ्लुएंजा नाम दिया जो H2N2 प्रकार था।

सन 1968-1969 में भी हॉन्ग कॉन्ग फ्लू वायरस दुनिया भर में फैल गया जिसे वैज्ञानिकों ने H3N2 वायरस का नाम दिया, जिसमें इस महामारी के कारण 1 से 4 मिलियन तक लोगों की मौत हुई। सन 1997 में फिर से एक बार पक्षियों से होता हुआ मनुष्यों में एवियन इन्फ्लुएंजा (H5N1) संक्रमण फैलने लगा। इस वायरस के कारण भी अनेक लोग बीमार होकर काल के गाल में समा गए।

विशेषकर 2003-2004 में जब फ्लू के कारण लाखों मुर्गों और जलपक्षियों की मौत हो गई। हालांकि, वायरस का प्रसार व्यक्ति से व्यक्ति में नहीं हुआ। इन्फ्लुएंजा मध्य मार्च 2009 में मैक्सिको से अमेरिका होते हुए दुनियां के अन्य देशों में सूअरों से फैलने वाले फैलने वाले स्वाइन फ्लू को वैज्ञानिकों ने वायरस को इन्फ्लुएंजा A H1N1 के रूप में पहचाना।

WHO ने महामारी के दौरान केवल लगभग 18,000 प्रयोगशाला-पुष्टि H1N1 मौतों की सूचना दी, जो इस बात की तरफ इशारा करता है कि 1950 से पहले जन्मे कई लोगों में वायरस के खिलाफ प्रतिरक्षण पहले से ही मौजूद था।

पोलियो एवं उसके वैक्सीन की खोज

पोलियो या ‘पोलियोमेलाइटिस’ जिसे A80., B91. बहुतृषा भी कहा जाता है, विषाणु जनित एक संक्रामक रोग है जो आमतौर पर बच्चों में फैलता है। यह बीमारी किसी भी बच्चे को ज़िन्दगी भर के लिए अपंग बना देती है। पोलियो को जड़ से खत्म करने वाली वैक्सीन की खोज और मनुष्य पर पहली बार विकसित की गई। वैक्सीन का प्रयोग वैज्ञानिक हिलैरी कोप्रोव्स्की ने किया था।

पीने वाली पोलियो वैक्सीन की खोज करने के दो वर्ष बाद वैज्ञानिक जोनास सॉल्क ने पोलियो वैक्सीन के इंजेक्शन की खोज की थी। 12 अप्रैल 1955 को सॉल्क ने दुनिया को बताया कि निष्क्रिय (मरे हुए) पोलियो वायरस इंजेक्शन की खुराक होते हैं। अल्बर्ट साबिन द्वारा एक मौखिक टीका तनु (कमज़ोर किए गए) पोलियो वायरस का उपयोग करके विकसित किया गया।

वर्ष 1960 में अल्बर्ट साबिन ने अमेरिका से लाइसेंस लेने के बाद वर्ष 1963 के टीकाकरण अभियान में टाइप-1, टाइप-2 व टाइप-3 को भी शामिल किया गया और इस वैक्सीन से पोलियो वायरस से सुरक्षा मिली।

खसरा एवं उसके वैक्सीन की खोज

सिर्फ इंसानों में फैलने वाला खसरा एक संक्रामक रोग है, जो ज़्यादातर बच्चों में इसका वायरस छींकने, खांसने या संक्रमित व्यक्ति के नज़दीक खड़ा होकर बात करने के दौरान हवा में लार, बलगम और मुंह से निकलने वाले डॉट्स से फैलता है। यदि समय पर इस रोग से ग्रसित बच्चे का उपचार समय से न हो तो वह सम्पर्क में रहने वाले प्रत्येक स्वस्थ व्यक्तियों को संक्रमित कर सकता है।

1963 में खसरा के टीके का लाइसेंस प्राप्त कर जॉन एंडर्स और उनके सहकर्मियों ने इसका प्रयोग सर्वप्रथम बंदरों और उसके बाद मनुष्यों पर किया। सफलता मिलने के बाद 1969 में रुबेला वायरस के टीके को भी मान्यता दे दी गई। पहली बार वर्ष 1971 में खसरा-कंठमाला-रूबेला (एमएमआर) का संयुक्त टीका देना शुरू किया गया जो खसरा, गलसुआ, और रुबेला तीनों रोगों की रोकथाम में बहुत प्रभावी रहा। वर्ष 2005 में छोटी माता (छोटी चेचक) का टीका भी इसमें जोड़ा गया जिसे एमएमआरवी टीका कहा जाता है।

न्यूमोकोकल संक्रमण एवं उसके वैक्सीन की खोज

पेंसिल्वेनिया युनिवर्सिटी के एमडी रॉबर्ट अस्ट्रिअन ने कई वर्षों के गहन अध्ययन के बाद 1916 में न्यूमोकोकल वैक्सीन तैयार किया था, जिसे सन 1977 मेंमंज़ूरी दे दी गई। इस टीके के साथ ही स्वाइन फ्लू के टीके को लेकर भी अमेरिका में काम शुरू किया गया। न्यूमोकोकल रोग एक तरफ का फेफड़ों का संक्रमण (निमोनिया) है, जो बच्चों में स्ट्रेप्टोकोकस बैक्टीरिया के कारण फैलता है।

इसे न्युमोकोकस बैक्टीरिया भी कहा जाता है और इसके 90 से भी ज़्यादा प्रकार होते हैं। यह रोग बच्चों में होना तो एक आम बात है लेकिन बड़ों में भी इसके गम्भीर परिणाम और मृत्यु होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। जिससे बचने के लिए बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक सभी को न्युकोकल वैक्सिनेशन किया जाता है।

न्युमोकोकस बैक्टीरिया से संक्रमित कुछ संदिग्ध मरीज़ बैक्टीरिया होने के बावजूद बीमार नहीं दिखाई देते। ऐसे संदिग्ध रोगियों द्वारा सांस छोड़ते, छींकते और खांसते समय उत्सर्जित की गई अति सूक्ष्म छोटी-छोटी बूंदों के सम्पर्क में आने वाले कई स्वस्थ व्यक्तियों के संक्रमित होने का खतरा बना रहता है।

न्यूमोकोकल रोग के कारण किसी भी स्वस्थ व्यक्ति को निमोनिया (फेंफड़ों का संक्रमण), मेनिनजाइटिस (दिमाग और रीढ़ की हड्डी की परत में सूजन आना), खून में संक्रमण (बैक्टीरीमिया) जैसे गम्भीर लक्षण हो सकते हैं। निमोनिया होने पर रोगी को बुखार, बलगम युक्त खांसी और सांस लेने में परेशानी होती है, जबकि मेनिनजाइटिस में व्यक्ति को सिरदर्द, बुखार, गर्दन में अकड़न, रोशनी से संवेदनशीलता, मानसिक भ्रम और उल्टी होती है तो खून के संक्रमण में रोगी को ठंड लगकर बुखार आता है।

न्यूमोकोकल की वजह से कान में संक्रमण हो सकता है जिसके कारण कान में दर्द या स्राव हो सकता है। न्यूमोकोकल रोग बच्चों से लेकर बुजुर्गों की उम्र तक प्राणघातक हो सकता है। इसलिए इस रोग से बचाव एवं उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए आवश्यकतानुसार न्यूमोकोकल पीसीवी 13 वैक्सीन या पीपीएसवी 23 वैक्सीन के टीके लगाए जाते हैं।

हेपेटाइटिस B एवं उसके वैक्सीन की खोज

हेपेटाइटिस बी से बचने के लिए शोधकर्ताओं ने रिकम्बिनेन्ट डीएनए विधियों से तैयार पहला मानव टीका है, जिसे सन 1986 में रिकम्बिनेन्ट वैक्सीन का लाइसेंस दिया गया। इसके बाद सन 1995 में हेपेटाइटिस ए और चिकनपॉक्स के भी टीके तैयार किए गए। हेपेटाइटिस बी बैक्टीरिया के कारण होने वाली एचआईवी से अधिक गम्भीर बीमारी है, क्योंकि हेपेटाइटिस बी का बैक्टीरिया शरीर की बाहरी त्वचा पर कम से कम सात दिन तक जीवित रहता है जो किसी भी स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य को पलभर में प्रभावित कर सकता है।

इस बीमारी के कारण लीवर में जलन व सूजन पैदा होती है। लीवर संक्रमित होकर सूज जाता है और कार्य प्रणाली भी शिथिल हो जाती है। गर्भावस्था में यह संक्रमण महिला को हो जाता है तो इसका असर नवजात शिशु के स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। हेपेटाइटिस के सभी वायरसों में “हेपेटाइटिस बी” एचआईवी से 10 गुना अधिक संक्रामक होता है।

यह वायरस संक्रमित व्यक्ति द्वारा प्रयोग किये गए सर्जिकल उपकरण, टैटू की सुई, सैलून या ब्यूटी पार्लर में इस्तेमाल किये गए रेज़र, ब्रश, असुरक्षित यौन संबंध, सीमन, संक्रमित सुई, रक्त या शरीर के अन्य तरल पदार्थों के माध्यम से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलता है। हेपेटाइटिस बी का संक्रमण सिर्फ कंट्रोल किया जा सकता है, पूरी तरह से समाप्त नहीं।

हेपेटाइटिस बी से संक्रमित होने वाले व्यक्ति को जोड़ों में दर्द, पेट में दर्द, उल्टी, शारिरिक शिथिलता, त्वचा का रंग और आंखों का सफेद हिस्सा पीला पड़ जाना, बुखार आ जाना, यूरिन का रंग भी गाढ़ा हो जाना और भूख न लगना जैसी समस्याएं होने लगती हैं। सिर्फ हेपेटाइटिस के तीन टीके ही इस खतरनाक बीमारी को कंट्रोल करता है।

20 से 25 वर्ष तक इन लक्षणों के सामने आने के बाद संक्रमित व्यक्ति के सम्पूर्ण परिवार को भी एहतियात के तौर पर एक बार स्वास्थ्य का परीक्षण अवश्य करा लेना चाहिए, क्योंकि हो सकता है कि यह वायरस संक्रमित व्यक्ति में माता पिता या परिवार के अन्य किसी सदस्य से आया हो।

हेपेटाइटिस बी के मरीज को अपनी डाइट पर विशेष ध्यान देते हुए खाने को एक से अधिक बार में थोड़ा-थोड़ा कर खाना चाहिए। अधिक से अधिक पानी एवं दो से तीन बार कॉफी पीना चाहिए। फल और सब्जियों के साथ-साथ प्रोटीन युक्त आहार शामिल करना चाहिए तथा फास्ट फूड, कार्बोहाइड्रेट वाली चीज़ों एवं मीठे पदार्थ के सेवन से बचना चाहिए।

कोविड – 19 एवं उसके वैक्सीन की खोज

वैश्विक महामारी घोषित होने के बाद कोविड – 19 के खिलाफ विश्व के 100 से भी अधिक देशों के वैज्ञानिक कई महीनों तक दवा और वैक्सीन विकसित करने में जुटे रहे। शोधकर्ताओं के दिन रात की अथक मेहनत के बाद ब्रिटेन, रूस, चीन सहित कई देशों ने कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए वैक्सीन खोज लिए जाने का दावा किया।

अमेरिका की प्रमुख दवा कंपनी फाइज़र इंक ने 18 नवंबर 2020 को 43 हज़ार वॉलिंटि‍यर्स पर परीक्षण के बाद कोरोना वायरस की वैक्‍सीन बनाने एवं उसके 95 फीसदी कारगर सिद्ध होने का दावा किया। कोरोना के खिलाफ इस जंग में हमारा देश भारत भी किसी से पीछे नहीं रहा। वैक्सिनेशन के लिए जानी पहचानी कम्पनी भारत बायोटेक ने कोवैक्सीन एवं सीरम इंस्टिट्यूट ने कोविशील्ड वैक्सीन तैयार कर विश्व में तहलका मचा दिया।

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 16 जनवरी, शनिवार को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए भव्य टीकाकरण कार्यक्रम का शुभारंभ किया और सभी राज्यों को कोविशील्ड वैक्सीन एवं 12 राज्यों को कोवैक्सीन उपलब्ध कराते हुए पहले दिन ही सम्पूर्ण भारत में 1,91,181 लोगों को कोविड वैक्सीन लगवाया।

विशेषज्ञों का कहना है कि कोवैक्सीन एवं कोविशील्ड के दो डोज़ 28 दिन के अंतर से लगवाना चाहिए ताकि कुछ ही दिन में इम्युनिटी पॉवर को कोरोना संक्रमण से लड़ने के लिए तैयार किया जा सके और कोरोना के खिलाफ इलाज पूरा हो। इसके बाद रूसी वैक्सीन स्पूतनिक वी को भी मंज़ूरी मिली और फाइज़र, जाइड्स कैडिला जैसी दवा कम्पनियों को भी ट्रायल के बाद मंज़ूरी मिलने की उम्मीद है।

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