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“कविता : अब मैं अबला नहीं, सबला हूं”

"कविता : अब मैं अबला नहीं, सबला हूं"

हे नारी अब तुम अबला नहीं

सबला हो फिर भी तुम हमेशा क्यों ठगी जाती हो?

मुझे समझ नहीं आता

तुम जल्द ही किसी के प्रेमजाल में क्यों फंस जाती हो?

और समाज में हर बार तुम ही दोषी साबित होती हो

प्रेम करना बुरी बात नहीं है, लेकिन

प्रेम सोच समझकर करो,क्योंकि ज़माना बदल गया है

उसके साथ ही साथ लोग और उनकी सोच भी

वे आज भी तुम्हें भोग-विलास की वस्तु समझते हैं

फिर भी तुम सब कुछ जानते हुए भी अबला ही बनी रह जाती हो

क्यों? अब तुम ईंट का जवाब पत्थर से दो

लड़कों से कहो कि अब तुम सुधर जाओ

संभल जाओ और मुझ पर अत्याचार करना बंद करो

यदि तुम मेरा सम्मान नहीं करोगे तो

मैं भी तुम्हारा सम्मान नहीं करूंगी।

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