छत्तीसगढ़ के जंगलों में तीन अप्रैल को माओवादियों व अर्धसैनिक बलों के बीच भीषण संघर्ष हुआ है। इस संघर्ष में अर्धसैनिक बलों व पुलिस के 23 सैनिकों के मरने की खबर आ रही है। एक सैनिक अभी भी माओवादियों के कब्जे में हैं। 23 सैनिकों की मौत ने एक बार फिर मुल्क में हलचल पैदा कर दी है। सोशल मीडिया पर सैनिकों के पक्ष में पोस्ट लिखी जा रही है। अखबार सैनिको की मौत की खबरों से भरे पड़े है। न्यूज चैनल लाल आतंक-लाल-आतंक चिल्ला रहे हैं।
लेकिन, सोशल मीडिया से लेकर अखबार, न्यूज़ चैनल कोई भी ईमानदारी से इस मुद्दे पर बहस नही कर रहा है, ना ही इस खबर को दिखा रहा है की लाखों की संख्या में अर्धसैनिक बलों व पुलिस को जंगलों में क्यों भेजा गया है? क्यों जंगलों को सत्ता द्वारा खुली जेल व आदिवासियों को कैदी बना दिया गया है। इस युद्ध की जड़ में क्या है? इस दुनिया की सबसे शांत कहे जाने वाले आदिवासियों ने क्यों हथियार उठाए हुए है? क्या कभी यह जानने की कोशिश की गई है या कोशिश की जाएगी? शायद नहीं।
23 सैनिकों की मौत पर जिनको दुःख होता है। उनको क्यों नही उस समय दुःख होता जब आदिवासियों के खून से रोजाना जंगल लाल होता है। क्योंकि, दोनो तरफ से मरने वाला आखिरकार इंसान ही तो है। इसलिए एक इंसान के मरने पर वो चाहे सेना का जवान हो या आदिवासी हो। एक संवेदनशील इंसान को बराबर ही दुःख होगा लेकिन, अगर आपको आदिवासी के मरने पर खुशी व फोर्स के जवान के मरने पर दुःख होता है तो आप मानसिक रोगी हैं।
गृहमंत्री अमित शाह ने माओवादियों से बदला लेने की बात कही है तो वहीं छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री जो कॉंग्रेस से हैं, ने अपना बयान दिया है कि जल्द बदला लिया जाएगा। उनका मतलब था कि जल्दी ही नक्सलियों का सफाया कर दिया जाएगा। UPA अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी ऐसा ही बयान दिया है। सभी पार्टियों के नेताओ के इस मुद्दे पर ऐसे ही मिले-जुले बयान आए हैं।
सत्ता द्वारा आदिवासियों की जल-जंगल-ज़मीन का हो रहा पूंजीकरण
आप उनके बयानों से समझ सकते हैं कि लुटेरे पूंजीपतियों की दलाली करने वाली पार्टियां एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। ये पार्टियां जनता की दुश्मन हैं। इनको शांति नहीं, बदला लेना है उन आदिवासियों से जो जल-जंगल-ज़मीन, प्राकृतिक संसाधन व पहाड़ों को इन लुटेरे पूंजीपतियों से बचाने के लिए लड़ रहे हैं। सभी राजनीतिक पार्टियां आज लुटेरों के साथ मजबूती से खड़ी हैं। क्यों? क्योंकि इन सबको इस लूट में अपना-अपना हिस्सा मिलता है।
जब केंद्र में कॉंग्रेस (UPA) थी, उस समय छत्तीसगढ़ में भाजपा (NDA) सत्ता में थी। अब ठीक इसके विपरीत भाजपा केंद्र में है तो कॉंग्रेस राज्य की सत्ता में विराजमान है। दोनों के शासन कालों में कॉर्पोरेट व साम्राज्यवादी पूंजीपतियों को जल-जंगल-ज़मीन, पहाड़, खान को लूटने की खुली छूट दी गई। जब इस लूट के खिलाफ जनता ने आवाज़ उठाई तो सत्ता ने पुलिस और गुंडों की मदद से जनता के खिलाफ दमन चक्र शुरू कर किया।
सलवा जुडूम जिसमें लोकल गुंडों के हाथों में सरकार ने हथियार थमा दिए। इन हथियार बंध गुंडों ने सैकंडो गाँवों को जला दिया, हज़ारों महिलाओं से बलात्कार किए गए। कत्लेआम का नंगा नाच किया गया। इन गुंडों को सरकार का सरकारी समर्थन मिला हुआ था। पुलिस गुंडों के साथ नंगे नाच में शामिल होती थी। इन सलवा जुडूम के गुंडों का काम कॉर्पोरेट के लिए ज़मीन खाली करवाना था।
मुल्क के बुद्विजीवियों की लंबी लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के सरकारी गुंडा गैंग को बंद तो करवा दिया। लेकिन, इस समय तक बहुत देर हो चुकी थी। लाखों आदिवासी उजाड़े जा चुके थे, हज़ारों को जेलों में डाला जा चुका था। आतंक की इबारतें लिखने वाले अफसरों, गुंडो, नेताओं को सत्ता द्वारा मान-सम्मान दिया जा चुका था।
वही दूसरी तरफ जल-जंगल-ज़मीन, पहाड़ को बचाने के लिए आदिवासियों ने संवैधानिक लड़ाई छोड़ हथियार उठा लिए थे। जब सत्ता आप के खिलाफ हथियार बंध युद्ध छेड़ चुकी हो उस समय युद्ध के मैदान में बन्दूक के खिलाफ आप बन्दूक से लड़ कर ही अपने आप को ज़िंदा रख सकते हो।
सत्ता द्वारा आदिवासियों पर हो रहे हैं अमानवीय अत्याचार
छत्तीसगढ़ के जंगलो में फोर्स रोजाना जो जुल्म की नई-नई इबारतें लिखती है। उन इबारतों को अगर साधारण इंसान को सुना दिया जाए तो वर्तमान व्यवस्था से उसको नफरत हो जाए। आदिवासी महिलाओं से बलात्कार करना तो जैसे फोर्स का जन्मसिद्ध अधिकार है।
फेक एनकाउंटर तो फोर्स वहां ऐसे करती है जैसे पुतले को मारने का अभ्यास कर रही हो। फोर्स द्वारा 24 आदिवासियों को लाइन में खड़ा करके गोलियों से छलनी करने की खबर ने बर्तानिया हुकूमत की यादें ताजा कर दी थीं। क्या इसी आज़ादी के लिए लाखों मज़दूर-किसानों ने शहादतें दी थी?
आदिवासियों के लिए लड़ने वाले बुद्धिजीवियों सुधा भारद्वाज, गोंजालेवेज, अरुण फरेरा, गौतम नवलखा, वरवरा राव, सोमा सेन, आनन्द तेलतुमड़े, प्रो. GN साईं को सरकार ने झूठे मुकदमो में जेलों में डाल दिया। गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार के आश्रमों को नष्ट किया गया। सोनी सोरी, लिंका कोडापी के साथ निर्ममता की हदें पार की गईं। क्यों? क्योंकि ये सत्ता के खूनी खेल के खिलाफ लिखते, बोलते और संवैधानिक व कानूनी लड़ाई लड़ते थे।
छत्तीसगढ़ से पिछले दिनों ही सकारात्मक खबर आई थी। कुछ बुद्धिजीवी, पत्रकार प्रयास कर रहे है शांति वार्ता के लिए लेकिन, सरकार जो कभी शांति वार्ता चाहती ही नहीं है। क्योंकि, शांति आएगी तो सत्ता के आकाओं की लूट बंद हो जाएगी। लूट बंद हो गई तो पार्टियों को मिलने वाली दलाली बंद हो जाएगी।
इसलिए सरकार ने शांति वार्ता की तरफ बढ़ने की बजाए दो हज़ार सैनिकों की टुकड़ी माओवादियों के सफाए के लिए जंगल में सर्च ऑपरेशन के लिए भेज दी। सैनिक सर्च ऑपरेशन पर थे। मुठभेड़ हुई। जिसमें 23 सैनिक मारे गए।
फोर्स जिसके जवान कॉर्पोरेट व साम्राज्यवादी पूंजी की सेवा करते हुए मर रहे हैं। उनको इस मुद्दे की जड़ में जाना चाहिये लेकिन, फोर्स भी मुख्य समस्या की जड़ में नहीं जाना चाहती है क्योंकि, अफसरों को मोटा कमीशन पूंजीपतियों से मिलता है। 600 अरब की मोटी धनराशि हर साल नक्सल उन्मूलन के नाम पर छतीसगढ़ के आठ ज़िलों को मिलती है। उसमें इन सब का हिस्सा है। वैसे भी फोर्स का वेतन सरकार देती है तो समस्या की जड़ में जाना मतलब सरकार के खिलाफ जाना है।
मेनस्ट्रीम मीडिया वर्तमान का गोदी मीडिया पूंजीपति लुटेरों का ही है, इसलिए वो समस्या की जड़ में जाएगा यह सोचना ही मूर्खता है। इस समस्या की जड़ में जाने का काम मेहनतकश जनता का है, उन सैनिको के परिवारों का है जिनके बच्चे मारे जा रहे हैं, किसान-मजदूर का है लेकिन, वो सब भी गोदी मीडिया से संचालित हैं। जो मीडिया ने बोला वो सच मान कर आगे बढ़ गए। इसलिये सबसे पहले तो जनता को सच जानना चाहिए कि “जंगल क्यों सुलग रहे हैं? फौजी बूट जंगलों की शांति को क्यों भंग कर रहे हैं?
संशोधनवादी कॉमरेड भी हिंसा-हिंसा चिल्ला रहे हैं। यह सब भी हिंसा होती क्या है? इसको जाने बिना कॉर्पोरेट की सेवा करने का काम कर रहे हैं जबकि भगत सिंह ने हिंसा और अहिंसा पर विस्तार से लिखा है।
महात्मा गांधी को लिखते हुए भगतसिंह कहते हैं कि
पहले हम हिंसा और अहिंसा के प्रश्न पर ही विचार करें। हमारे विचार से इन शब्दों का प्रयोग ही गलत किया गया है और ऐसा करना ही दोनों दलों के साथ अन्याय करना है, क्योंकि इन शब्दों से दोनों ही दलों के सिद्धान्तों का स्पष्ट बोध नहीं हो पाता है।
हिंसा का अर्थ है कि अन्याय के लिए किया गया बल प्रयोग, परन्तु क्रांतिकारियों का तो यह उद्देश्य नहीं है, दूसरी ओर अहिंसा का जो आम अर्थ समझा जाता है वह है आत्मिक शक्ति का सिद्धांत। उसका उपयोग व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय अधिकारों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। अपने आप को कष्ट देकर आशा की जाती है कि इस प्रकार अन्त में अपने विरोधी का हृदय-परिवर्तन सम्भव हो सकेगा।
एक क्रांतिकारी जब कुछ बातों को अपना अधिकार मान लेता है तो वह उनकी मांग करता है, अपनी उस मांग के पक्ष में दलीलें देता है अपनी समस्त आत्मिक शक्ति के द्वारा उन्हें प्राप्त करने की इच्छा करता है। उसकी प्राप्ति के लिए अत्यधिक कष्ट सहन करता है इसके लिए वह बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए प्रस्तुत रहता है और उसके समर्थन में वह अपना समस्त शारीरिक बल प्रयोग भी करता है।
इसके इन प्रयत्नों को आप चाहें जिस नाम से पुकारें, परंतु आप इन्हें हिंसा के नाम से संबोधित नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा करना कोष में दिए इस शब्द के अर्थ के साथ अन्याय होगा। सत्याग्रह का अर्थ है, सत्य के लिए आग्रह। उसकी स्वीकृति के लिए केवल आत्मिक शक्ति के प्रयोग का ही आग्रह क्यों? इसके साथ-साथ शारीरिक बल प्रयोग भी [क्यों] ना किया जाए? क्रांतिकारी स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अपनी शारीरिक एवं नैतिक शक्ति दोनों के प्रयोग में विश्वास करता है, परन्तु नैतिक शक्ति का प्रयोग करने वाले शारीरिक बल प्रयोग को निषिद्ध मानते हैं।
इसलिए अब यह सवाल नहीं है कि आप हिंसा चाहते हैं या अहिंसा, बल्कि प्रश्न तो यह है कि आप अपनी उद्देश्य प्राप्ति के लिए शारीरिक बल सहित नैतिक बल का प्रयोग करना चाहते हैं या केवल आत्मिक शक्ति का? बम का दर्शन
छत्तीसगढ़ में कल 23 जवानों की मौत के लिए फासीवादी सत्ता ज़िम्मेदार है। साम्राज्यवादी व कॉर्पोरेट पूंजी की जल-जंगल-ज़मीन की लूट को जारी रखने के लिए दलाल सत्ता व नौकरशाही गिरोह ने लाखों की तादात में फोर्स को वहां तैनात किया हुआ है।
आदिवासी जो लूट के खिलाफ जल-जंगल-ज़मीन को बचाने के लिए कार्पोरेट पूंजीपतियों से लड़ रहे हैं। लेकिन, सत्ता कॉर्पोरेट पूंजी की दलाली खा कर लूट को जारी रखने के लिए फोर्स को तैनात करती है। इसलिए जंगल में एक युद्ध चला हुआ है। हर रोज जंगलों की धरती खून से लाल होती है। कभी आदिवासी मरता है तो कभी सैनिक मरता है। लेकिन, मरने वाला जवान दोनों ही तरफ का मज़दूर-किसान का बेटा है।
कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा मुठभेड़ में मारे गए सैनिकों के परिवारों के लिए संवेदनाएं व्यक्त की गईं
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने इस मुठभेड़ के बाद एक प्रेस नोट जारी कर मरने वाले सैनिको के परिवार के प्रति दुःख व संवेदनाएं जारी की हैं।
हम कम्युनिस्ट हैं, इसलिए किसी भी इंसान की मौत का हमको दुःख होता है पर व्यापक जनता के हित मे लड़ाई अनिवार्य है। हम दुनियां में प्यार, मोहब्बत, शांति और समानता का समाज चाहते हैं। हमारी लड़ाई पुलिस के जवानों से नहीं है। पुलिस में भर्ती जवान आम शोषित जनता का ही हिस्सा है। दुश्मन वर्ग की तरफ से उनका हथियार बनकर जब पुलिस या अर्धसैनिक बलों के रूप में ये जवान हमला करने आते हैं तो मजबूरन हमको इनसे लड़ना पड़ता है।
देश के विभिन्न राज्यों के जवानों की इस लड़ाई में मृत्यु हुई है। हमारी संवेदनाएं उनके परिवारों से हैं पर यह ही वो समय है सोचने का कि हम किसके साथ हैं? जनता की लड़ाई के साथ या लुटेरे सत्ताधारी वर्ग के साथ हैं? हमारी आप सब से यह अपील है कि आप अपने बच्चों को बलि का बकरा बनने के लिए पुलिस में मत भेजो।(प्रेस नोट से)
अगर आपको जंगल में शांति चाहिए तो आपको सत्ता के सामने बोल कर, लिख कर या जुलूस निकालकर आवाज़ उठानी होगी। आपके बच्चों की जान के बदले कॉर्पोरेट व साम्राज्यवादी पूंजी की लूट नहीं चलेगी।
- मुल्क की जनता द्वारा सत्ता और कार्पोरेट के नापाक गठजोड़ का विरोध करना चाहिए।
- जनता को सत्ता से मांग करनी चाहिए कि तुरंत जंगलों से फोर्स को वापिस बुलाए।
- कॉर्पोरेट की नंगी लूट को बंद किया जाए।
- आदिवासियों के संवैधानिक अधिकार बहाल किए जाएं।
- सभी राजनीतिक बंदियों को बिना शर्त रिहा किया जाएं।
जनता जितना लेट करेगी खून उतना ज्यादा बहेगा तब तक मज़दूर-किसान दोनों ही तरफ से अपने बच्चों की लाशें उठाते रहेंगे।