कई बार हमारे जीवन में ऐसी स्थिति आती है, जब हम तय नहीं कर पाते हैं कि दो पहलुओं में सही क्या है? दोनों के अपने-अपने विचार हैं, अपनी ज़रूरतें और अपनी शर्तें हैं। जहां कोई गलत नहीं होता। कई बार हम चाहते हैं कि सब कुछ बस ठीक हो जाए। मगर ठीक होना आसान नहीं होता। इन्हीं सभी को लेकर आईआईएमसी में कुछ दिनों पहले एक आंदोलन की शुरुआत हुई।
कैंपस खोलने को लेकर शुरू हुआ आंदोलन
हम सबकी ऑफलाइन क्लास की मांग हमेशा से चल रही थी। मगर कोरोना के बढ़ते आंकड़े देखकर मैं इसके ज़्यादा समर्थन में नहीं थी।
कई बार ऐसा भी लगा कि ये लोग रोज़ एक ही सवाल करके क्लास डिस्टर्ब क्यों कर रहें हैं? दूसरे सेमेस्टर में चीज़ों को समझने लगी शायद इसलिये भी कि तब लोगों को पहचानने लगी थी।
पहचानने इसीलिए कह रही हूं क्योंकि ऑनलाइन दुनिया में इंस्टाग्राम और फेसबुक के जरिये ही मिल रहे थे। गूगल मीट पर अपने चेहरे लोग छुपाकर के रखते हैं। सबसे मिली और सबको सुनने के बाद खुद को बहुत भाग्यशाली समझने लगी कि मेरे पास पर्याप्त साधन हैं।
आंदोलन की शुरुआत में कोई प्लानिंग नहीं होती है। जिस भी क्षण आपकी चेतना दूसरों के लिए जाग जाती है, उस वक्त से ही आपके अंदर सवाल उठने शुरू हो जाते हैं।
कई बार बेचैनी बढ़ी और डर लगने लगा
हालांकि, इस आंदोलन को शुरुआत करने में मेरी कोई खास भूमिका नहीं थी। बस बात चली कि करना है, तो मैंने लोगों को सुनकर और बाकी मुद्दों को सुनकर एकता ना टूटे इसीलिए किया था। पहले दिन की कहानी कुछ ऐसी है कि मैं पोस्टर के पीछे शक्ल छुपाई हुई बैठी थी ताकि मीडिया में मेरी शक्ल ना आ जाए।
कई बातों पर विरोध जताई, कई बार ऐसा हुआ कि डर लगने लगा और बार-बार मन हुआ कि क्लास कर लूं। मैं शुरुआती कुछ दिनों में बस कैमरा लेकर लाइव करती थी क्योंकि मेरे अंदर बस बेचैनी थी क्लास छोड़ने की। मगर हर बार मुझे ओरिएंटेशन के दिन अपनी कही बात याद आ जाती थी, जब मैंने इंट्रोडक्शन में यह कहा था कि मुझे उनकी आवाज़ बननी है, जिनकी लोग नहीं सुनते।
जिनकी कहानी लोगों तक नहीं पहुंच पाती। लोग सही-गलत या सही और अधिक सही का पता नहीं कर पाते।
आंदोलन आपको ज़िन्दा होने का अहसास दिलाता है
इस आंदोलन में यह सोचकर बैठी थी कि एक दो कहानियां दिखाउंगी और चली जाउंगी। वो हिंदी फिल्म का डायलॉग है ना कि “शुरू मजबूरी में किये थे पर अब मज़ा आ रहा है।” इस जोश, इस जज़्बे को सलाम है।
मैंने पूरे दिन बिना खाना खाये और भूखे काम करते हुए लोगों को देखा है। मच्छरों के प्रकोप से लड़ते देखा है। बिना सोये, अपने आराम को छोड़कर कॉलेज में रात बिताते देखा है। सिर्फ एकजुट करने के लिए उन्हें संघर्ष करते देखा है।
मेरे कुछ साथी ऐसे हैं, जो रात में इमोशनल हो जाते हैं क्योंकि उन्हें सबका साथ चाहिए होता है जो मिल नहीं पाता। खैर बहुत कुछ है इस आंदोलन में जो आपको एक इंसान बनाता है। आपको यह बताता है कि इंसान के अंदर की इंसानियत अभी भी ज़िंदा है। खुद से ज़्यादा दूसरों के बारे में सोचने की सोच ज़िंदा है।