डोर वह होती है, जो दो अलग-अलग अस्तित्वों को जोड़ती है। वो निर्जीव को जोड़ती है और सजीव को भी जोड़ती है। वह आत्मा को भी जोड़ती है, आत्मा ही वह अस्तित्व है, जो निर्जीव को सजीव बनाता है। एक डोर जीवन को भी जोड़ती है। वह दोस्ती की डोर ही होती है, जो एक-दूसरे के साथ जीने मरने की कसमें खाने वाले मित्रों को बांधे रखती है। वह संस्कारों की डोर होती है, जो एक पीढ़ी को दूसरी पीढ़ी से जोड़े रखती है।
वह माँ की कोख से बंधी हुई डोर होती है, जो भाई-बहिनों को बांधे रखती है। वह उस मिट्टी से बनी हुई डोर होती है, जो परदेस में रह रहे परदेसी को अपनी ज़मीन से बांधे रखती है। वह ज्ञान की डोर होती है जो गुरु और शिष्य को बांधे रखती है और एक को आशीर्वाद और एक को सम्मान देने के लिए प्रेरित करती है। वह प्यार की बनी डोर होती है, जो एक तरफ राधा और श्याम को तो दूसरी तरफ मीरा और श्याम को जोड़ती है। जब डोर पर तनाव लगता है तो लगने वाला बल उस डोर को तोड़ना चाहता है पर उस डोर का हर रेशा एक दूसरे से बंधा रहना चाहता है और यही डोर के रेशे की उस बल के साथ लड़ाई या संघर्ष आजीवन चलता रहता है। इस लड़ाई में कई बार रेशा जीतता है तो कई बार बल जीतता है और यह सह-अस्तित्व का संघर्ष ही जीवन है।
ऐसी ही एक डोर है, परिणय सूत्र की जो कई बार दो अजनबियों को तो कई बार एक-दूसरे की आत्मा तक को जानने वालों को यह बांध देती है। इस डोर में बंधने के बाद भी वही संघर्ष होता है, रेशा मिलन चाहता है व बाह्य बल बिछड़ना चाहता है। जब तक इस सूत्र का हर रेशा खुश है, तब तक इस डोर को कोई नहीं तोड़ सकता।
यह तो हुई आदर्शवादी बात, पर इस समाज में परिणय सूत्र टूटता है अर्थात एक जीवनसाथी इस संसार में नहीं रहता तो एक रेशे(स्त्री) के लिये समाज पत्थर बन कर खड़ा हो जाता है। जिससे रगड़ खाकर वह मुलायम रेशा जीर्ण- शीर्ण हो जाता है। वहीं दूसरे रेशे(पुरुष) के लिए समाज मलमल बन कर उस रेशे को किसी दूसरे रेशे से जोड़ने की कोशिश में लग जाता है। यह दोहरा व्यवहार हर धर्म में, हर समाज में, हर क्षेत्र में स्त्री समुदाय के साथ होता आया है।
एक तरफ महिला को विधवा हो जाने पर उसे एक निर्जीव वस्तु बनाकर, कोने में फेंक दिया जाता है। वहीं विधुर पुरुष को फिर से सेहरा बांधने की कोशिशें प्रारंभ कर दी जाती हैं। ईश्वर ने पुरुष और स्त्री इस सृष्टि में निर्मित किए, ताकि वे एक-दूसरे को साथ लेकर एक-दूसरे के सहयोग से इस सृष्टि के सृजन में हाथ बंटाए पर ईश्वर के हाथों बने मनुष्य ने उसी के समकक्ष स्त्री के लिये अपने आपको परम ईश्वर(परमेश्वर) बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। वो लाए गए थे, इस संसार में जीवनसाथी बनने के लिये पर वो तो भगवान और भक्त का सम्बन्ध बना बैठे। कभी-कभी परमात्मा भी सोचता होगा, अगर यह परमेश्वर है तो फिर मैं कौन हूं?
आज से सैकड़ों वर्ष पहले एक प्रथा चली, सती प्रथा। इस प्रथा ने एक भक्त अर्थात स्त्री को भगवान बनने का अवसर दिया। कोई भक्त क्यों भला इस अवसर को छोड़ता? डोर का एक रेशा तो जल ही रहा है, दूसरा भला क्यों इस संसार में जिए पूरी डोर को ही एक चिता पर सुला दो। क्या वो रेशा इस संसार में सिर्फ डोर का ही भाग था? उसके अलावा उसका कोई अस्तित्व नहीं था। वह रेशा, वो पितारूपी मिट्टी थी, जिस माँ रूपी खेत में कपास बोया गया था। वो उस शहतूत के कीड़े(पिता) का अंग था, जिस पर वो बुना गया था। उसमें उस जुलाहे(माँ) की रचना या कला थी। जिसने उसे उसका रूप दिया था तो क्या उस दूसरे रेशे के टूटने के साथ उन सबका अस्तित्व समाप्त हो जाता है?
शायद नहीं, तो फिर क्यों उस रेशे के साथ दूसरा रेशा जले। यही हो रहा है, उस जीवित आत्मा के साथ जिसे उसके पति के ना रहने पर मृत्युशय्या पर लिटा दिया जाता है फिर उसका महिमामंडन होता है। उसे इंसान से बढ़कर देवी बनाया जाता है व समाज में उसका आदर्श स्थापित किया जाता है। यही आदर्शत्व उस स्त्री का अस्तित्व उस पुरुष तक समेट कर रख देता है। जब राजा राममोहन राय ने सती प्रथा का विरोध आरम्भ किया तो उनकी माँ ने ही सर्वप्रथम उनका बहिष्कार किया, यही थी उस आदर्शत्व की माया।
क्योंकि, जिस स्त्री को समाज ने जीवित रहते हुए कभी नहीं जाना और उस समाज में जीवित रहते हुए स्त्री का कोई अस्तित्व नहीं था, पर सती बनकर वो समाज में जानी जाती है। उसकी पहचान बनती है, यही है जो स्त्री को सती बनने को खुशी- खुशी मज़बूर करता है।
ऐसा ही एक वीभत्स दृश्य, जिसे इतिहास गौरव की श्रेणी में रखता है वह है ‘जौहर’। जब विदेशी आक्रमण के समय हार के अंदेशे पर सभी स्त्रियां जलते अग्निकुंड में स्वाहा हो जाती थीं। क्यों उन स्त्रियों को इतना कमजोर रखा गया कि उन्हें आग में स्वाहा होना पड़ता था? उन्हें भी उन क्षत्रिय पुरुषों के समकक्ष लड़ने का प्रशिक्षण दिया जाता तो शायद यह पावन धरा विदेशी आक्रांताओं के रौंदे जाने से बच जाती। परंतु, समकक्ष आने पर वो भक्त और भगवान का रिश्ता शायद ना बच पाता।
परिणय सूत्र में बंधने के बाद दो इंसान सात फेरों के साथ-साथ सात जनम के रिश्ते में बंध जाते हैं। यह सम्बन्ध 7 रंगों से भरा होता है पर इस सूत्र के टूटते ही जीवन के 7 रंग, एक रंग में बदल जाते हैं। उस के जीवन की हर खुशी, हर रंग, हर स्वाद, हर अहसास, हर आनंद, हर उल्लास उससे छीन लिया जाता है। जो इंसान, दूसरे इंसान को हर रंग का वादा कर इस बंधन में बांधता है। क्या उसके इस संसार को छोड़ने से वो वादे झूठे हो जाते हैं?
एक भ्रूण, जो अभी गर्भ में पल रहा है। उसने इस संसार को देखा ही नहीं है, उससे पूर्व ही उसे जीवन की सबसे महत्वपूर्ण डोर, परिणय सूत्र से बांध दिया जाता है। इसी दौरान दुर्भाग्यवश, यदि उस डोर का दूसरा रेशा नहीं रहता है तो वह गुड़िया बाल विधवा बन जाती है। जिस गुड़िया ने अभी जीवन के सम्पूर्ण रंग भी नहीं देखे है, उसे सिर्फ एक रंग तक समेट दिया जाता है। यह तानाशाही नहीं तो क्या है?
वृंदावन की गलियां, जो इस पावन भारत भूमि के सबसे रंगीले श्याम के लिए मशहूर हैं, उन्हीं गलियों में बच्ची से लेकर सत्तर साल की वृद्धा तक बहुसंख्या में श्वेत वस्त्रों में दिखाई पड़ती हैं। क्या यही था कान्हा के सपनों का वृंदावन?
यह इस दूसरे रेशे की ज़िम्मेदारी है, जिसके लिये पहला रेशा अपना सर्वस्व त्याग देता है। वह उसका ध्यान रखे। माँ अपने बेटे के लिए सर्वस्व त्याग देती है, परंतु उस माँ के विधवा बनने पर समाज की खातिर कई स्थानों पर वह बेटा अपनी माँ से मुँह मोड़ लेता है, जो गर्भ की डोर से जुड़े हुए हैं। ऐसी माँ अक्सर मथुरा, वृंदावन में देखी जाती हैं।
समाज को इस आधी जनसंख्या को आधी बनाए रखने के लिए भी बहुत प्रयास करने पड़ेंगे, नहीं तो वो आधी से कम होती जा रही है। जो स्त्री विधवा होकर अपने जीवनसाथी को खोने का दुःख झेल रही है। उस स्त्री को समाज के सहारे की आवश्यकता है। वह सहारा पत्थर का नहीं, पर ममता का चाहिए, प्यार और स्नेह का चाहिए। उसके जीवन में नई खुशी, नए रंग, चटपटा नया स्वाद भरने की आवश्यकता है, ताकि वो निर्जीव वस्तु की बजाय सजीव इंसान बनकर इस सृष्टि के सृजन में पुनः अपना योगदान कर सके।
हम विधवाओं को सती बनाने की बजाय ज़िंदा छोड़ रहे हैं, उम्मीद है आने वाले समय में उन निर्जीवों में आत्मा भी भर पाएं।