अकादमिक दुनिया में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का नाम देश में सबसे ऊपर होता है। इससे भी ज़्यादा खास इस विश्वविद्यालय को यहां की अपनी संस्कृति बनाती है। देश की उन गिनी-चुनी जगहों में से एक जहां महिलाएं आपको देर रात सुनसान सड़कों पर अकेले घूमती मिल जाएं, तो आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
लोग जहां सार्वजनिक जगहों पर कुछ भी गलत बोलने से कतराते हैं, क्योंकि सामने वाला यहां आपको उस गलत पर टोकने का एक अधिकार रखता है। मगर अब वक्त बदलने लगा है। बीते कुछ सालों में जेएनयू वैसा नहीं रहा, जैसा जाना जाता रहा है। कहें तो तब से, जब से भाजपा की देश में सरकार आई है और विश्वविद्यालय के आइडियाज़ पर हमले होने शुरू हो गए।
महिला छात्रावासों के बाहर अर्धनग्न होकर आपत्तिजनक हरकतें
किसी एक घटना के आधार पर किसी संस्थान के संपूर्ण चरित्र का फैसला करना सही तो नहीं है, पर कोई घटना अगर किसी एक कड़ी में हो रही है, तो उस घटना और उसके पीछे की कड़ी पर ज़रूर बात करनी चाहिए। जेएनयू पिछले कुछ सालों से एक बड़े प्रोपैगेंडा का केंद्र रहा है। यहां की कई घटनाएं राष्ट्रीय सुर्खियां बनीं।
कुछ दिनों पहले जेएनयू में एक घटना हुई, जिसके बरक्स तेज़ी से बदलते जा रहे जेएनयू जैसे संस्थान की बात की जाएगी। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस संस्थान की हवा अब बहुत तेज़ी से बदल रही है।
पिछले दिनों होली के दिन जेएनयू से कुछ तस्वीरें सामने आई, जिसमें अर्धनग्न अवस्था में लड़कों के कुछ समूह लड़कियों के छात्रावास (शिप्रा व कोयना) के सामने परेड कर रहे हैं। छात्रावासों में रह रहीं कई लड़कियों ने यह भी कहा कि परेड करते लड़कों ने कई आपत्तिजनक इशारे भी किए।
इस मसले को जेएनयू छात्रसंघ के आलावा और भी कई संगठनों ने उठाया और प्रशासन से मांग की है कि इन लड़कों को चिन्हित कर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाए।
जेएनयू हमेशा से ऑल जेंडर फ्रेंडली कैंपस
जेएनयू जैसे लैंगिक रूप से संवेदनशील संस्थान में इस प्रकार का दृश्य सामने आना हम सभी को चौंकाता है। गौरतलब है कि जेएनयू में मनाई जाने वाली होली काफी प्रसिद्द है। इसके पीछे का कारण है कि यहां पर मनाई जाने वाली होली में आपसी सौहार्द, भाईचारा और विविधता दिखाई पड़ती है।
सबसे खास बात यह कि यहां मनाई जाने वाली होली में लड़कियों की संख्या भी उतनी ही रहती है जितनी लड़कों की। मतलब ऑल जेंडर फ्रेंडली। कहने का तात्पर्य यह है कि इस संस्थान के किसी भी आयोजन और गतिविधि में लैंगिक समानता और संवेदनशीलता का एक प्रशंसनीय रूप मौजूद रहता है। यही कारण है कि यहां ऐसी घटनाओं को बहुत ही गंभीरता के साथ लिया जाता है।
होली के दिन हुई यह घटना महज एक इत्तेफाक नहीं है, बल्कि इस घटना के पीछे एक वैचारिक और प्रशासनिक पृष्ठभूमि है जो इस संस्थान की हवा को बदलने में सबसे बड़ा कारक है। संबंधित घटना को एक कड़ी में देखने की ज़रूरत है, तभी हम इसका सटीक विश्लेषण कर पाएंगे।
कैंपस की हवा और शब्दावलियां अब बदलने लगी है
यह कैंपस अपनी बौद्धिक और प्रतिरोधी गतिविधियों के लिए जाना जाता है। क्लासरूम हो या ढाबा, हर जगह यहां के छात्र और छात्राएं समाज में चल रहे परिवर्तन पर वाद-विवाद करते हैं और उसे समझने की कोशिश करते हैं। जेएनयू जैसे संस्थान का चरित्र अन्य शिक्षण-संस्थानों से अलग है, क्योंकि जेएनयू की शब्दावली अलग है। भाषा अलग है। जिसमें भाषिक-संवेदना से लेकर लैंगिक और जातिगत संवेदना का पूरा-पूरा ख्याल रखा जाता है।
मगर अब जेएनयू तेज़ी से बदल रहा है, यहां की शब्दावलियां बदल रही हैं। हॉस्टल्स हों या ढाबे या फिर यहां की सड़कें, इन सभी जगहों पर कुछ समूहों के द्वारा ऐसी गालियां सुनने को मिल जाती हैं, जो हमारे भारतीय समाज में धड़ल्ले से प्रयोग की जाती हैं। यह गालियां कई लोगों को सुनने में साधारण और सामान्य लगते होंगे, पर इसके पीछे मर्दवादी और सामंतवादी सोच की एक लंबी परंपरा रही है।
जिसे लेकर इस ससंथान में शुरुआत से ही संवेदनशीलता बरती गई। वर्तमान दौर में ओटीटी प्लैटफॉर्म्स पर अधिकांश वेब सीरीज की भाषा को ध्यान में रखते हुए इन गालियों को अच्छे से समझा जा सकता है।
GSCASH को खत्म कर प्रशासन ने सब अपने नियंत्रण में ले लिया
जेएनयू जैसा संस्थान ‘छात्र संघ’ और ‘GSCASH’ जैसी इकाईयों के लिए जाना जाता है। जिसके प्रतिनिधि विद्यार्थी समुदाय से ही होते हैं और इन्हें चुना भी इन्हीं के द्वारा जाता है। सबसे बड़ी बात यह कि इन्हें चुनने की प्रक्रिया भी यहां का विद्यार्थी समुदाय ही सम्पन्न करवाता है। किसी शिक्षक या विश्वविद्यालय प्रशासन की कोई भी भागीदारी इनमें नहीं होती है। यह बात इस संस्थान को भारत के अन्य शिक्षण-संस्थानों से अलग बनाता है।
इस परिसर में लैंगिक-भेदभाव और छात्रों से संबंधित समस्याओं को GSCASH में चुन कर आये हुए प्रतिनिधि ही हल किया करते थे। इसमें छात्रों से संबंधित किसी भी समस्याओं को निपटाने में गंभीरता बरती जाती थी और ज़ीरो टॉलरेंस का रूख अपनाया जाता था। फिर 2018 में कुलपति जगदीश कुमार के नेतृत्व में GSCASH को खत्म कर ICC नाम की इकाई बनाई गई, जिसके पदाधिकारी कुलपति द्वारा चुने हुए लोग होते हैं।
इसके बाद से इस मसले को लेकर कैंपस में काफी विरोध प्रदर्शन भी हुए। विद्यार्थी समुदाय ने ICC के बनने के बाद भी GSCASH के चुनाव करवाए लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन ने इसे मान्यता नहीं दी। ICC की प्रक्रियाओं में राजनैतिक और वैचारिक प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ने लगे, जिसका सीधा प्रभाव कैंपस के अंदर दिखाई पड़ने लगा। अभी कुछ सालों से कैंपस में बढ़ रहे महिला-विरोधी गतिविधियों को इसके इस पृष्ठभूमि से जोड़कर देखा जाना चाहिए।
JNU शायद कभी ऐसा न रह जाए, जैसा दशकों से इसकी पहचान रही है
जेएनयू में शुरू से ही वाद-विवाद और सहिष्णुता की संस्कृति रही है। मगर कुलपति जगदीश कुमार के कार्यकाल में इसे काफी नुकसान का सामना करना पड़ा है, जिसने इस संस्थान की गरिमा को धूमिल करने का काम भी किया। पिछले साल, 2020 में 5 जनवरी को हुए हमले को एक बड़े उदहारण के दौर पर देखा जा सकता है।
इतने बड़े सुनियोजित हमले के बाद भी विश्वविद्यालय प्रशासन ने आरोपियों पर कार्रवाई को लेकर कोई सक्रियता नहीं दिखाई और उल्टा हमला करने वाले संगठन के लोगों के प्रति वैचारिक प्रतिबद्धता का खुलकर प्रदर्शन किया। इस घटना के आलावा भी कैंपस में आए दिन मारपीट और झगड़े की घटनाएं हो रही हैं।
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि कैंपस में इन घटनाओं को वैचारिक और राजनैतिक शह दिया जा रहा है। यही कारण है कि इतना अच्छा संस्थान अब बहुत ही तेज़ी से बदल रहा है। मारपीट और हिंसा की कई घटनाओं में एक खास संगठन के सदस्यों का नाम अक्सर सामने आया है, पर ऐसे लोगों पर एक बार भी कार्रवाई नहीं की गई। यही कारण है, हिंसा की कई घटनाओं में कुछ लड़कों के नाम कॉमन होते हैं।
इन मसलों पर अगर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो फिर काफी देर हो जाएगी और इतने अच्छे संस्थान की गरिमा और इसके इतिहास को धूमिल कर दिया जाएगा। जेएनयू कभी वैसा नहीं रह जाएगा जैसा दशकों से इसकी पहचान रही है।