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“अगर अभी भी तुम मौन हो, तो तुम्हारा इस जम्हूरियत में नागरिक कहलाना व्यर्थ है”

एक पूरा दिन
सरकारी दफ्तर की
बेजान फाइलों और
काम के बोझ में बिताकर
अगर हर रात
HD पर्दे पर, तुम सिर्फ
उछलते शरीरों को देखकर
चैन की नींद सो रहे हो दोस्त
तो ये समझना
तुम्हारा इस जम्हूरियत में
नागरिक कहलाना व्यर्थ है।

हर दिन
अपने नंगे चेहरे से
समाज में शोषण देखना,
टेबल के नीचे से कागज गिनना
तुम्हारी रूचि नहीं,
आदत बन चुकी है
तो ये समझना
इस जम्हूरियत में
तुम्हारी आवाज़ और औकात
आदिम पशुता की तरह
चीखती हुई व्यर्थ है।

अगर तुम अभी भी
अपनी कल्पनाओं से बनाये समाज में
एक सभ्य नागरिक बनकर
रह रहे हो दोस्त!
तो तुम एक प्रगाढ़
गलतफहमी का शिकार हो
देखना तुम्हारे पतन पर
सिर्फ वही आस-पडो़स के
चार लोग रोएंगे
जिनकी नज़रों में
तुमने जीवनभर सभ्य बनकर
रहने का अभिनय किया।

अगर अभी भी तुम मौन हो
तो अपनी नंगी आखों से दिखती
इस समाज की गंदगी
और अपने अदंर के उस
मौन आदमी के खिलाफ
बेबाक होकर बोलना सीखो

इस कविता का उद्देश्य
बस इतना ही है।

– हिमांक ( मयंक असवाल )

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