कोरोना की दूसरी लहर देखते हुए हर तरफ सिर्फ एक ही शोर है, लॉकडाउन का। मगर इस शोर के बीच जो तस्वीरें सामने आती हैं, वह है पिछले लॉकडाउन की। रोती-बिलखती ज़िन्दगी, सड़कों से होकर गुज़रता काफिला, दाने-दाने को मोहताज हो चुके लोग और ना जाने कितना कुछ। पिछले कुछ लॉकडाउन की याद से उभरी तस्वीरें एक बार फिर से हर किसी से सवाल करती है, आखिर लॉकडाउन क्यों?
दूसरी लहर में फिर से दम तोड़ती स्वास्थ्य सुविधाएं
पिछले साल जब अपर्याप्त स्वास्थ्य सेवाओं का बहाना देकर पूरे देश भर को 6 महीनों से भी अधिक महीने के लिए पिंजड़े में कैद कर दिया गया था, तब हमारे देश के कर्ता-धर्ता नेताओं ने एक स्वर में यही कहा था कि पर्याप्त स्वास्थ्य उपकरण मौजूद नहीं होने के कारण फिलहाल भारत इससे लड़ने को तैयार नहीं है। ऐसी स्थिति में कोरोना से बचाव का एकमात्र यही तरीका है। कोरोना की चेन तोड़ने के लिए भारत में लॉकडाउन ही एकमात्र उपाय दिख रहा था।
ऐसी स्थिति में लोगों ने खुद को घरों में कैद भी कर लिया। समय के साथ स्थिति बदली और कोविड मामले कम होने लगे। लोगों को यही लग रहा था कि अब वैक्सीन के आते ही कोरोना एकदम से खत्म हो जाएगा। इसी के मद्देनजर देशभर में 16 जनवरी से टीकाकरण अभियान शुरू किया गया। अब लोगों की आंखों में उम्मीदें थीं। कोरोना से लड़ने के लिए वैक्सीन के रूप में हथियार भी था।
अब जब पूरा देश कोरोना से लड़ने के लिए तैयार था तो वापस से कोविड की दूसरी लहर आ गई। स्थिति एक बार फिर से खराब होने लगी। “जबतक दवाई नहीं, तबतक ढिलाई नहीं” के नारे गुम होने लगे। मामले इतने बढ़ते गए कि इसने पिछले लहर का भी रिकॉर्ड तोड़ दिया और अब वैक्सीन मौजूद होने के बावजूद संक्रमण बढ़ता ही जा रहा है।
जिस मेडिकल इमरजेंसी के बदौलत देश को लॉकडाउन की बेड़ियों में जकड़ा गया था, अब एक बार फिर से वही मेडिकल इमरजेंसी अस्पतालों में सामने आ रही है।
मेडिकल इमरजेंसी का जिम्मेदार कौन?
अब सवाल उठता है कि इसका जिम्मेदार कौन है? हमारी व्यवस्था या फिर कोरोना, जो कि फिर से बिन बुलाए मेहमान की तरह आ पड़ा।
आज अस्पतालों की स्थिति का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बेड और ऑक्सीजन के अभाव में लोगों की मौतें हो रही हैं। झारखंड के सदर अस्पताल में ऐसी ही एक घटना देखने को मिली, जहां अस्पताल में बेड उपलब्ध ना होने की स्थिति में मरीज की अस्पताल के बाहर ही मौत हो गई।
यहां मौत होना शर्मसार नहीं था। शर्मसार था तो वहां झारखंड के स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता की मौजूदगी। जो कि अस्पताल में कोविड स्वास्थ्य व्यवस्था का जायज़ा लेने के लिए बड़े ज़ोरो-शोरों से अस्पताल में आए थे। मगर वह भाप नहीं सके कि इसी व्यवस्था के अभाव में एक मरीज की मौत हो जाती है।
मेरा सवाल है, आखिर इसमें गलती किसकी है? अस्पताल प्रबंधन की या मंत्री महोदय की? या फिर एक साल से कोविड के लिए तैयार किए जा रहे स्वास्थ्य व्यवस्था की? जिसकी आंधी में मौतों का तांड़व होता है।
दोबारा लॉकडाउन की तरफ बढ़ता देश
एक बार फिर से संक्रमण की दूसरी लहर ने भारत में स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोल दी है। यह कहानी सिर्फ झारखंड की नहीं है, बल्कि भारत के हर कोने में इतनी ही बेहतरीन स्वास्थ्य व्यवस्था देखने को मिल रही है। आप किसी भी न्यूज़ चैनल को देख लें, हर तरफ कोरोना का तांडव चल रहा है।
मगर कोई यह सवाल करने की स्थिति में नहीं है कि आखिर एक साल बाद भी अपर्याप्त तैयारी की ज़िम्मेदारी गरीबों के कंधे पर क्यों डाली जा रही है? कोई यह सवाल करने को तैयार नहीं है कि आखिर एक बार फिर से लॉकडाउन की ओर पूरा देश क्यों बढ़ रहा है?