देश इन दिनों दलित हिस्ट्री मंथ मना रहा है। बहुत ज़रूरी है हमारे लिए अपने संविधान निर्माता के विचारों को जानना, समझना और उसे आगे बढ़ाना। ‘अम्बेडकर सप्ताह’ में हम आज चर्चा करेंगे डॉ अंबेडकर ने कैसा हिंदुस्तान बनाने का विचार सोचा था? क्या वे साम्यवाद के विरोधी थे? बाबा साहेब किसे अल्पसंख्यक मानते थे?
साम्यवाद के विरोधी नहीं थे अंबेडकर
ऑल इंडिया शेड्यूल कास्ट फेडरेशन को संविधान सभा में एक संविधान का प्रारूप विश्लेषण सहित सौंपना था। फेडरेशन ने ये ज्ञापन तैयार करने का काम डॉ अंबेडकर को सौंपा। बाबा साहेब ने पूरे विश्लेषण के साथ संयुक्त राज्य भारत का संविधान लिखकर संविधान सभा को सौंप दिया। बाद में बाबा साहेब सवर्ण हिन्दू मित्रों के निवेदन पर उसे ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ नाम से प्रकाशित करवाए।
अंबेडकर साम्यवाद के विरोधी नहीं थे। अपने एक लेख ‘बुद्ध और मार्क्स’ में वे कहते हैं कि दुनिया के समाजों का वैज्ञानिक विश्लेषण करने का जो भौतिकवादी दर्शन मार्क्स ने दिया है, वो बेमिसाल और वैज्ञानिक है। वे मार्क्स के समानता के सिद्धांत से इत्तेफाक रखते थे।
उनका मार्क्स से जिस बिंदु पर विरोध था, वो ये था कि बाबा साहेब कहते हैं यद्यपि मार्क्स जिस समाजवाद (डिक्टेटरशिप ऑफ प्रोलेटेरिअट) की बात करते हैं वो ज़्यादा स्थायी है लेकिन स्वतंत्रता का त्याग करके समानता का मायने कुछ नहीं रह जाता।
इसलिए यहां वे बुद्ध को आगे करते हैं क्योंकि बुद्ध समानता और स्वतंत्रता दोनों की बात करते हैं।
समानता और स्वतंत्रता दोनों के पक्षधर
डॉ अंबेडकर राजकीय समाजवाद का पुरज़ोर समर्थन करते हैं। वे ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ में सीधे कहते हैं कि निजी उद्यम नहीं होने चाहिए। कृषि और उद्योगों का राष्ट्रीयकरण ही समानता तक जाने के लिए उठाए जाने वाले आवश्यक कदम हैं। वे कहते हैं कि केवल भूमि सुधार कानून इसके लिए कारगर कदम नहीं हैं।
डॉ अंबेडकर समाजवादी रूस की तरह कृषि के सामूहीकरण (Collectivization) को संविधान का पार्ट बनाने की बात करते हैं। बाबा साहेब राजकीय समाजवाद की बात करते हुए कहते हैं कि राजकीय समाजवाद होना चाहिए ना कि संसदीय समाजवाद। वे कहते हैं संसदीय समाजवाद का डर ये है कि जब भी कोई पूंजीवादी संसद में बहुमत में होगा वो संसदीय समाजवाद को खत्म कर देगा।
वो तानाशाही समाजवाद को सबसे ज़्यादा स्थायी मानते हैं। उनकी तानाशाही समाजवाद का विरोध स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने को लेकर है। इस प्रकार यहां राजकीय समाजवाद इसलिए चाहते हैं कि अगर संविधान, समाजवाद को ओढ़ लेगा तो कोई भी संसद में बहुमत लेकर इसे खत्म नहीं कर पाएगा। इस प्रकार समानता और स्वतंत्रता दोनों बनी रहेंगी।
जब गांधी असहमत होकर फिर सहमत हुए थे
बाबा साहेब अल्पसंख्यक समुदाय की पहचान में संख्या को एकमात्र कसौटी मानने से इंकार करते हैं। वे कहते हैं कि अल्पसंख्यक की एक महत्वपूर्ण कसौटी ‘सामाजिक भेदभाव’ भी है।
बाबा साहेब की इस बात को गांधी हमेशा खारिज करते रहे लेकिन गांधी ने 21 अक्टूबर 1939 के हरिजन के संपादकीय में ‘The Fiction Of Majority’ नामक शीर्षक के अंतर्गत सामाजिक भेदभाव को भी अल्पसंख्यक की कसौटी मान लिया।
इस प्रकार बाबा साहेब मार्क्स और उनके समाजवादी विचारों के समर्थक ही नहीं पोषक भी थे। वे कम्युनिस्ट विरोधी नहीं बल्कि भारतीय कम्युनिस्टों के जातिवादी चरित्र के विरोधी थे। उन्होंने मज़दूरों के अधिकारों की लड़ाई के लिए डांगे के साथ मिलकर मजदूर संघ भी बनाया। बाबा साहेब जिन चार वेस्टर्न फिलॉसफर की बुक्स पढ़ने को कहते हैं उसमें रूसो और मार्क्स भी हैं।
इस प्रकार अगर आप ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ को देखेंगे तो लगेगा कि बाबा साहेब इतने दूरदर्शी थे कि वे 1991 के आर्थिक उदारवाद के दुष्परिणामों को 1947 में ही भांप लिए थे।
संदर्भ:
1.State And Minority By Dr Ambedkar
2.Buddha And Marx By Dr Ambedkar
3.Seeing Like A State By James Scott
(Collective Agriculture in Russia)
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