स्कूल के दिनों में पटना स्थित खुदा बख्श ओरिएंटल लाइब्रेरी और सिन्हा लाइब्रेरी के बारे में जानकारी किताबों में देखने को मिलती थी। दोनों ही लाइब्रेरी को बिहार का गौरव बताया जाता था। समान्य ज्ञान के जानकारी के तौर पर बस दिमाग में बिठा लिया था। लाइब्रेरी के रूप में स्कूल और कॉलेज के दिनों में यही अनुभव था कि वो कभी खुलती नहीं थी।
लाइब्रेरी कार्ड बनता ज़रूर था पर उसपर कोई किताब पढ़ने को कभी नहीं मिलती थी। स्कूल-कॉलेज की लाइब्रेरी में अक्सर ताला लगा हुआ दिखता है और खिड़की से अलमारी में रखी धूल खाती हुई किताबें दिखती हैं। हम सभी सोचते थे, काश इस लाइब्रेरी के साथ रीडिंग रूम हमलोगों को मिल पाता।
अकादमिक जीवन में लाइब्रेरी का महत्व
एक छात्र के जीवन में लाइब्रेरी का महत्व क्या होता है? इसके बारे में विस्तार से तब जान सका, जब हायर एजुकेशन के लिए सेंट्रल यूनिवर्सिटी पहुंचा। रिसर्च के दौरान यह बात और अधिक पुख्ता हुई। लाइब्रेरी के अभाव में रिसर्च की कल्पना ही नहीं हो सकती है। दिल्ली में रहते हुए, साहित्य अकादमी, तीन मूर्ति के साथ-साथ कई लाइब्रेरी तो जीवन का ही हिस्सा बन गईं। जिसने अपने घर में भी छोटी सी लाइब्रेरी बनाने की विचार को और पुख्ता कर दिया।
मैं जिस विषय पर अपना रिसर्च कर रहा था उसी के सिलसिले में मुझे पटना के कुछ लाइब्रेरी में जाना हुआ। जिसमें गांधी संग्रहालय की लाइब्रेरी, सिन्हा लाइब्रेरी, एन एन सिन्हा संस्थान की लाइब्रेरी, आद्री और खुदा बख्श ओरिएंटल लाइब्रेरी जाना हुआ।
खुदा बख्श ओरिएंटल लाइब्रेरी में मेरे रिसर्च से जुड़ी सामग्री नहीं थी इसलिए अन्य लाइब्रेरी की तुलना में वहां जाना थोड़ा कम हुआ। मगर जितनी भी बार गया वहां के कर्मचारियों का सहयोग और उनका संग्रह मुझे रोमांचित ज़रूर कर देता था। मन में एक अफसोस भी रहता था कि काश मुझे उर्दू, अरबी या फारसी भाषा की जानकारी होती, तो मैं यहां रखे दस्तावेज़ो को भी देख पाता।
यहां यह बताना अधिक मौजूं होगा कि खुदा बख्श ओरिएंटल लाइब्रेरी पचास लाख से अधिक किताबें, कलमी मख्तूतात, अखबारात, मैगज़ीन, मौसिकी रेकार्डज़, मशहूर लोगों की आवाज़े, नक्शे, डाक टिकट, कायदा मतियात और पता नहीं कितने ही सालों का आर्काइव अपने अंदर समेटे हुआ है। जो न जाने कितने ही रिसर्च स्कॉलरों के लिए एक नायाब तोहफा है।
क्यों चर्चा में है पटना की खुदा बख्श लाइब्रेरी?
पिछले कुछ दिनों से खुदा बख्श ओरिएंटल लाइब्रेरी लगातार खबरों में बना हुआ है। वजह यह कि खुदा बख्श लाइब्रेरी का एक भवन बिहार के विकास पथ पर बीच में रोड़े की तरह आ खड़ा हुआ है। बिहार सरकार एक फ्लाई ओवर का निमार्ण करना चाह रही है, जिसके कारण पुरी दुनिया में अपनी पहचान रखने वाली खुदा बख्श लाइब्रेरी को तोड़ना ज़रूरी लग रहा है। जिसने एक साथ कई मौजूं सवाल खड़ा कर दिया।
जिसपर इन दिनों प्रतिरोधों और बहसों का दौर चल रहा है। नागरिक समाज अपना प्रतिरोध ज़ाहिर करके सरकार से संवाद स्थापित करने की दिशा में अपने तरफ से तमाम कोशिशें कर रहा है, जो इन दिनों सोशल मीडिया पर भी लगातार देखने को मिल रही है। सवाल यह है कि यह किस तरह का विकास है, जो अब तक राज्य के गौरव कहे जाने वाले संस्थान को रौंदकर खड़ा होना चाहता है?
क्यों विकास का डंका बजाकर एक चुनी हुई सरकार अपने ही ऐतिहासिक धरोहर को धवस्त करना चाहती है? आने वाली पीढ़ी के लिए लोगों ने इतिहास की जो धरोहर सजों कर रखी है, उसे काटकर किस तरह का मानवीय विकास खड़ा करना चाहती है?
विकास के मानचित्र पर लाइब्रेरियों को ढाहना कितना सही है? वैसे भी डिजिटल युग आने बाद समाज में किताबें पढ़ने की रूचि पहले से बहुत कम होती जा रही है।
पुस्तकालयों के अस्तित्व को कैसे बचाया जा सकता है?
बहरहाल, यह मात्र एक खुदा बख्श ओरिएंटल लाइब्रेरी की बात नहीं है। पिछले दिनों लखनऊ के मेरे एक मित्र वहां की एक लाइब्रेरी को बंद किए जाने पर काफी आहत थे। मामला वही कि लाइब्रेरी चलाना सरकार के लिए मुनाफे का सौदा नहीं रह गया है, इसलिए उस भवन को रिनोवेट करके एक फ्लोर तक ही सीमित करना ज़रूर लग रहा हो। बाकी फ्लोर पर कुछ अन्य व्यावसायिक गतिविधियों की शुरुआत करने की योजना है।
किताबों को संजोकर रखने वाली लाइब्रेरी जो कभी हमारे समाज को बौद्धिक बनाने का जरिया रही है वो आज अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। सोशल मीडिया पर लेखकों से संवाद की वीडियोज़ ने एक बड़े समूह को किताबों से जुड़ने के लिए प्रेरित कर रही है। आज ज़रूरत इस बात की अधिक है कि तमाम लाइब्रेरी स्वयं को नागरिक समाज से जोड़े।
वह नागरिक समाज के लोगों को लाइब्रेरी में होने वाली गतिविधियों में शामिल करे। अपने अस्तित्व के संकट से जूझता हुआ लाइब्रेरी स्वयं को समाज से उपेक्षित रखकर कभी आगे नहीं बढ़ सकता। लाइब्रेरियों के बड़े-बड़े रीडिंग रूम, में समय-समय पर वहां होने वाले वाद-विवाद, संवाद, प्रतिष्ठित व्यक्तियों के लेक्चर, स्कूल के बच्चों को लाइब्रेरी भम्रण करवाना इस दिशा में ज़रूरी कदम हो सकते हैं।
अधिक से अधिक लोगों का लाइब्ररियों के तमाम गतिविधियों में सम्मिलित होना तमाम लाइब्ररियों को उसके एलिनेशन से बचा सकती है, जो बेशक एक चिंतनशील समाज को बनाने में एक बड़ा कदम साबित हो सकती है।