हर महीने कुछ दिन माँ कहती थी, “हमारी तबियत ठीक नहीं है।” सुनकर कुछ अटपटा सा लगता था, क्यूंकि मेरी समझ में माँ को न तो बुखार था, न ही खांसी आदि जिसे हम बीमारी का आम रूप समझते है। माँ मंदिर नहीं जाती, पूजा नहीं करती और कुछ असहज दिखती, अफसोस ये कि माँ की इस ‘बीमारी’ पर कभी मेरा ध्यान भी नहीं गया। घर में मैं सबसे बड़ा था, मुझसे छोटा भाई और लास्ट में मेरी बहन। अब चूंकि मैं लड़का था, इस कारण माँ के पास हो कर भी माँ से बहुत दूर था।
वक्त बीतता गया और हम सभी अपने जीवन में बढ़ते-बहते चले गए। कभी समझ ही नहीं सका कि माँ की वो ‘बीमारी’ क्या थी, पढ़ाई करते-करते मैं कब संन्यासी हो गया, मेरे जीवन के विषय वस्तु कब बदल गए, पता ही नहीं चला।
साल 2013 में लोनावाला कैवल्यधाम योग विद्यालय में मैं योग प्रशिक्षण ले रहा था, उन दिनों इजराइल की एक छात्रा ‘तमर’ मेरे साथ वहां पढ़ती थी। एक दिन उन्हें उदास देख मैंने पूछा, “कोई परेशानी है? स्वास्थ्य ठीक है न!” जवाब में उन्होंने सहज भाव में बताते हुए कहा कि मैं पीरियड के दौर से गुज़र रही हूं।
यकीन कीजिए उस समय ये शब्द मेरे लिए एकदम नए थे, आगे पूछने पर तमर ने सब स्पष्टता से समझाया। तब मैं जान सका कि सचमुच स्त्री के जीवन का यह दौर उनके लिये कितना कष्टकारी होता है। पिछले सप्ताह की बात है, मैं दिल्ली में था। एक योग शिक्षिका जो हमारी सहपाठी थी उनसे मिलने की इच्छा से जब उनको कॉल किया तो उन्होंने कहा कि आपको चाहकर भी घर नहीं बुला सकती, कारण मेरी तबियत ठीक नहीं है।
एक महिला मित्र ने बताया, “जब पीरियड्स होते हैं तो हमें दुखदाई वेदना से गुजरना पड़ता है। कभी-कभी तो लगता है कि पीरियड्स के समय जीने और दर्द सहने से बेहतर है कि मर जाएं, न जाने क्यों परमात्मा ने हमें इस तरह से बना दिया।” इन सब बातों को आपके समक्ष रखने का कारण यह है कि जब से रात के शो में फिल्म ‘पैडमैन’ देख कर लौटा था, तब से मन में अक्षय कुमार अभिनीत चरित्र बार-बार घूम रहा है। इस फिल्म को देखकर स्त्री के असहज जीवन के प्रति एक सहज समझ मेरे भीतर स्पष्ट हो पाई।
मेरी एक ही बहन है जो इस समय एम.ए. की छात्रा है, यदि मैं उसके निकट होता तो इस फिल्म को हम भाई-बहन साथ-साथ देखते। इस लेख के ज़रिए मैं समाज के प्रत्येक भाई से अपील कर रहा हूं कि यदि आप सच्चे भाई हैं तो इस फिल्म को अपनी बहन के साथ ज़रूर देखिए।
जिस तरह बुखार आने पर हम दवा खरीदने में संकोच नहीं करते, उसी तरह अपनी बहन के ज़रूरत के दिनों के लिए सैनेटरी पैड भी निसंकोच खरीदकर बाज़ार से ले आएं। और ज़्यादा क्या कहूं, बस इतना ही कहूंगा कि पैडमैन स्त्री जीवन के असहज काल की एक सहज व्याख्या है। जितना हो सके इस फिल्म का प्रचार-प्रसार किया जाए, इस संदेश को गांव-गांव ले जाएं ताकि लोग इस विषय के प्रति जागरूक हो सके।
एक संन्यासी होने के नाते मैं योग गुरु स्वामी रामदेव जी से अपील कर रहा हूं। ईश्वर ने आपको अपार धन-सम्पदा दी है, अगर आप सच में समाज की सेवा करना चाहते हैं तो व्यापारी मनोवृत्ति से ऊपर उठकर पतंजलि में सैनेटरी पैड का निर्माण करें। कम से कम मूल्य पर अपने आउटलेटों के ज़रिए इन्हें जनता तक पहुंचाने में अपनी टीम और सामर्थ्य का प्रयोग करें, इस दिशा में आपका योगदान सराहनीय होगा।