कहने को तो भारत विश्व का सबसे युवा देश है, यानी कि यहां युवाओं की संख्या सबसे अधिक है। लेकिन सवाल ये है कि यहां का युवा कर क्या रहा है? क्या उसके पास नौकरी है? स्टार्टअप शुरू करने के पैसे हैं? इंजीनियरिंग-मेडिकल-कॉमर्स-आर्ट्स की डिग्री लेकर रेलवे के फॉर्म का इंतज़ार करता हुआ युवा आखिर कितना मजबूत है हमारे विश्वगुरु भारत में?
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिन्हें या तो आपने कभी नहीं सुना होगा, या फिर बहुत ज़्यादा सुना होगा। उद्योगपति के बच्चे बिना डिग्री के भी राजा हैं, और हम आम लोग पीएचडी के बावजूद भी रंक हैं। ये बातें मैं बढ़ा-चढ़ाकर या आपको उत्तेजित करने के लिए नहीं लिख रहा हूं। यही सच्चाई है। पूरी नहीं तो आधी सच्चाई तो है ही।
देश में अमीर और अमीर होता जा रहा है, गरीब और गरीब
गांधी कहते थे कि आदमी की गरीबी ही सबसे बड़ी हिंसा है, लेकिन हम गरीबी को कितना मिटा पाए? आये दिन योजनाएं बनती हैं, कानून पास होते हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर कोई बदलाव नहीं दिखता। यही कारण है कि युवा भटकता है। फिर भटका हुआ युवा हर जगह मुंह मारता फिरता है। उमैर नजमी का एक शे’र है-
“तूने छोड़ा तो किसी और से टकराऊंगा मैं
कैसे मुमकिन है कि अंधे का कहीं सर न लगे”
हालांकि ये शे’र उन्होंने प्रेम पर लिखा था, लेकिन ये आज युवाओं की स्थिति पर भी सटीक बैठता है।
तमाम प्राइवेट नौकरियों से दुत्कारे जाने के बावजूद आज का युवा हर जगह इंटरव्यू देता है। कुछ दिन नौकरी करता है, सरकारी नौकरी का फॉर्म भरता है, ढाई-तीन साल रिजल्ट का इंतज़ार करता है, खुद के साथ-साथ परिवार को भी संभालता है। ये लगभग हर मिडिल-क्लास घर की कहानी है। यहीं से समझ आता है अमीर और गरीब का फर्क। सर्वहारा और बुर्जुआ का कॉन्सेप्ट तो हमने समझ लिया लेकिन सर्वहारा का कल्याण अभी भी नहीं हो पा रहा है।
देश की 70 प्रतिशत सम्पत्ति को 1 प्रतिशत अमीर लोगों ने हथियाया हुआ है। बड़ी-बड़ी कम्पनियां खड़ी हैं, और बड़े-बड़े गोरखधंधे हो रहे हैं उद्योग के नाम पर। अमीर और अमीर होता जा रहा है, गरीब और गरीब होता जा रहा है। लेकिन हमें ऐसे मुद्दों में फंसाकर बरगलाया जा रहा है जिनसे हमारा कोई वास्ता नहीं होना चाहिए।
बेरोजगार युवा आबादी मुसलमानों से घृणा करने में व्यस्त है
आप हिन्दू हैं और आपको बताया जा रहा है कि मुसलमान आपके दुश्मन हैं, और आप मान भी ले रहे हैं। मुसलमानों के खिलाफ भयावह माहौल बनाया जा रहा है। बड़ी संख्या में हिन्दू जनता, उसमें भी मुख्यतः युवा हिन्दू जनता मुस्लमानों से घृणा करने लगी है। लेकिन हम कब समझेंगे कि क्या हिन्दू, क्या मुसलमान? नौकरी तो दोनों के ही पास नहीं है! इंटरव्यू की लाइन में दोनों को ही धक्के खाने पड़ते हैं।
आज आपकी नौकरी इस बात से तय हो रही है कि आप कौन से कॉलेज और स्कूल से पढ़े हैं। शिक्षा का निजीकरण, और उससे भी घातक है नव-उदारवाद की नीति। इसने हमारी पूरी शिक्षा और रोजगार प्रणाली पर गहरा चोट किया है। चोट क्या, बल्कि ध्वस्त कर दिया गया है। कारण केवल यही नहीं है, कारण है कि रोजगार पैदा हो ही नहीं रहे हैं। नई कम्पनियां खुलने की बजाय पुरानी भी बंद हो रही हैं। ऐसे तो किसी देश का विकास नहीं होता!
एक समस्या “ब्रेन ड्रेन” की है, और सम्भव है कि रहेगी ही। एक पढ़े-लिखे और एलिजिबल व्यक्ति को यदि अपने वतन में ढंग की नौकरी नहीं मिलेगी तो वो विदेश जाएगा ही। इसमें जितना दोष उसका है, उससे कहीं ज़्यादा दोष हमारे देश की व्यवस्था का है।
समाज में जातिवाद और छुआछूत आज भी चरम पर
पिछड़े, दलित और आदिवासी समुदाय का जीवन-स्तर अभी भी बहुत सुधरा हुआ नहीं है। आरक्षण प्रणाली ने बेशक उनके जीवन-स्तर को ऊपर उठाने में मदद की, परन्तु अभी भी समाज में छुआछूत और जातिवाद व्याप्त है और इस बात से हम सभी वाकिफ हैं।
ऊंची जातियों ने नीची जातियों को शुरू से ही दबाया है। चाहे हम कितनी भी भोंडी हिपोक्रेसी कर लें, लेकिन यह सच है। नीची जातियों के पेट में लात मारी जाती रही है, उनके कानों में शीशे पिघला दिए जाते थे, उनकी लड़कियों के साथ आये दिन बलात्कार होते थे और कहीं रपट भी नहीं लिखी जाती थी। ऐसा नहीं है कि ये चीज़ें बस पहले ही होती थीं, अभी-भी ऐसी बहुत सी घटनाएं सुनने में आती हैं और ना-जाने कितनी दबा दी जाती हैं।
चाहे वो जातिगत भेदभाव हो, लिंगभेद हो, धार्मिक भेदभाव हो, यह सब हमारे पूरे मुल्क में व्याप्त है। ऊंची जातियां और उनमें से भी विशेषकर ऊंची जातियों के अमीर लोग हमेशा अपना वर्चस्व बरकरार रखना चाहते हैं। इसके चलते पूरे देश का समूचा विकास असम्भव-सा दिखता है।
आज का युवा पढ़ और सीख क्या रहा है?
आज हर दूसरे-तीसरे बच्चे के हाथ में आपको स्मार्टफोन दिख जाएगा। स्मार्टफोन का इतना सुलभ होना कई मायनों में लाभदायक है, और बहुत मायनों में नुकसानदायक भी। अधिकतर बच्चे दिनभर गेम्स खेलते हैं। पब्जी-फ्रीफायर और तमाम फाइटिंग और रेसिंग गेम्स। ऐसे गेम्स की लत बहुत जल्दी लगती है।
कुछ साल पहले तक बच्चे प्ले-स्टेशन या वीडियो गेम खेलते थे, या फिर साइबर कैफे में जाकर पैसे देकर कम्प्यूटर गेम्स खेलते थे। लेकिन अब हर बच्चे के हाथ में अपना खुद का गेम्स का मेला है। ये चीज़ उनकी पढ़ाई पर पूरी तरह असर डालती है।
ये तो रही बच्चों की बात। अब बात युवाओं की। युवा भी अधिकतर ये गेम्स खेलते ही हैं। उनकी पढ़ने की आदत छूट गयी है। उनकी पढ़ाई बस उनके स्कूल-कॉलेज के सिलेबस तक सीमित रहती है। वो अलग से किताबें नहीं पढ़ते। यहां तक कि उपन्यास भी नहीं। पढ़ने की आदत का खत्म होना, या पढ़ने की आदत का होना ही नहीं, ये बहुत ही घातक चीज़ है।
युवाओं के लिए अच्छी चीज़ें पढ़ना क्यों बहुत ज़रूरी?
सिर्फ स्कूल-कॉलेज और कोचिंग की पढ़ाई तक अपने ज्ञान को सीमित करके रखना तो एक विपदा है। आप कम पढ़ेंगे, तो कम जागरूक होंगे और फिर कम सवाल पूछेंगे। यह एक ट्रैप है। मार्कस सिसेरो ने कहा था कि “ए रूम विदाउट बुक्स इज़ लाइक ए बॉडी विदाउट सोल”। यानी किताबों के बिना एक कमरा, आत्मा के बिना एक शरीर की तरह होता है, जो सजीव होते हुए भी निर्जीव है। पल-पल मर रहा है।
अपने कमरों की दीवारों पर सिर्फ शो-पीस भगवान की मूर्तियां और गुलदस्ते ही नहीं, बल्कि कुछ किताबें भी सजाइये। न सिर्फ उन्हें सजाइये बल्कि पढ़िए भी। किताबें सजाने वाले बहुत मिलते हैं, पर किताबें पढ़ने वाले बहुत कम। सो किताबें सजाने के साथ-साथ उन्हें पढ़ने, और परस्पर पढ़ने की आदत डालिये। कोई भी बदलाव पढ़कर ही आएगा। सीखकर ही आएगा।
हमारे देश में एक-से-एक लोग हुए हैं। यह शिव की भूमि है, राम की भूमि है, कृष्ण की भूमि है। गांधीवादी और समाजवादी नेता डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि – “हे भारतमाता! हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय दो, तथा राम का कर्म और वचन दो। हमें असीम मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ-साथ जीवन की मर्यादा से रचो।”
क्रांति करने लिए तमाम मुद्दे हैं, लेकिन नवचेतना नहीं
आज हमें इन चीज़ों की बहुत ज़रूरत है। भारत शांति और समृद्धि का देश रहा है। बुद्ध से लेकर गाँधी-नेहरू-अम्बेडकर का देश रहा है। ज़रूरत है कि हम इन महापुरुषों से प्रेरणा लें। मगर देश की जो वर्तमान हालत है, वो तो कुछ और ही है।
युवा अहिंसा, शांति तथा प्रेम के रास्ते से भटक गया है और हिंसा, उन्माद तथा नफरत के रास्ते पर चल रहा है। यह देखकर दु:ख होता है जब धर्म के नाम पर झगड़े और हत्याएं होती हैं। इन चीज़ों के खिलाफ जो आवाज़ उठाने वाले लोग हैं, उन्हें पकड़कर जेल में भर दिया जाता है लेकिन अधिकतर भारतीय जनमानस को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्या ऐसी हालत में भारत में बदलाव सम्भव है? क्या भारत में क्रांति हो सकती है? बहुत मुश्किल है। क्रांति के लिए हमारे पास तमाम मुद्दे हैं, लेकिन वो नवचेतना नहीं है।
युवाओं का विजन खत्म हो गया है। हम कितना भी बढ़ा-चढ़ाकर अपने देश की बड़ाई करें, लेकिन सच्चाई हमको भी पता है कि हमारा देश सुस्त लोगों का देश है। यहां सुस्त लोग हैं, जिन्हें कोई भी बहला-फुसला लेगा। विधायकी के चुनाव में 40 रुपये की शराब की बोतल में बिककर वोट दे देते हैं लोग और फिर पांच साल झेलते हैं एक निर्दयी शासक को।
बोलेंगे नहीं तो बोलने का हक भी छीन लिया जाएगा
यह बात निचले स्तर से लेकर सबसे ऊपरी स्तर तक प्रासंगिक है। हम नशे में आकर वोट देते हैं। चाहे वो शराब का नशा हो या अंधभक्ति का। चार भाषण सुनकर प्रभावित होना और वोट दे देना हमारे मुल्क की सच्चाई है।
हम बहुत जल्दी प्रभावित हो जाते हैं और यही चीज़ हमें गर्त में धकेल देती है। फिर हम तर्क करना भूल जाते हैं, सवाल पूछना भूल जाते हैं। जो भी बोल दिया जाता है, हम मान लेते हैं और ऐसा करके नेता हमपर राज चलाते हैं। यही काम हिटलर ने किया था, यही काम मुसोलिनी ने, और यही काम आज हो रहा है। अगर हम नहीं संभले तो बहुत पछताएंगे। ये लड़ाई विचारधारा और सभ्यता से बढ़कर खुद की लड़ाई है।
ऐसे निज़ाम के खिलाफ लड़िये जो आपको नौकरी नहीं देता। उसकी मुख़ालिफ़त करिये। विरोध को नियम बना लीजिये।
कवि मुक्तिबोध ने लिखा है-
“अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे
तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब”
तो विरोध कीजिये, मांगिये नौकरी, खतरा उठाइये। बोलिये, इसलिए क्योंकि नहीं बोलेंगे तो आपके बोलने का हक भी छीन लिया जाएगा।
बाकी इंकलाब आज नहीं तो कल, आकर ही रहेगा। बकौल अली सरदार जाफ़री-
“इंकलाब आएगा रफ़्तार से मायूस न हो
बहुत आहिस्ता नहीं है जो बहुत तेज़ नहीं”